Saturday, December 17, 2016

सवालों से भागता संघी प्रधानमंत्री

संघी प्रधानमंत्री के बचाव में उतरी भाजपा ने संसद का शीत सत्र स्वयं ही हंगामे की भेंट चढ़ा दिया। यह संसद के इतिहास में पहली बार हुआ होगा कि स्वयं सत्ता पक्ष ने ही संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी। यह तथ्य इतना स्पष्ट था कि निर्वासन में भेजे जा चुके भाजपा के अपमानित बुजुर्ग आडवाणी ने संसद से इस्तीफे की इच्छा जाहिर कर दी। 
ऐसा नहीं था कि संसद में नोट वापसी पर चर्चा से लाइनों में ठिठुरती जनता को कोई राहत मिल जाती। न ही रोजगार छिन जाने या ठप हो जाने से दुखी लोगों को कोई सहायता मिल जाती। न ही वे लोग वापस जीवन जीवन पा जाते जो लाइनों में खड़े-खड़े काल-कवलित को गये। न ही इससे काला धन सरकार की तिजोरियों मे आने लगता। 
पर इस पर चर्चा से यह जरूर  होता कि संघी सरकार और मोदी को कुछ असुविधाजनक सवालों का सामना करना पड़ता। संघी इनका सामना करने के लिए राजी नहीं थे। 
इन सवालों में राहुल गांधी का वह गुप्त सवाल नहीं था जो उन्होंने संसद के बाहर भी नहीं पूछा। वे तो बस बड़बोले मोदी की ही शैली में दावे करते रहे। 
सवाल मोदी के या भाजपा के व्यक्तिगत भ्रष्टाचार का उतना नहीं है। यह तो जगजाहिर है। अंबानी-अडाणी से गहरी यारी वाले मोदी और भाजपा का भ्रष्टाचार किसी भी नेता या पार्टी से ज्यादा है। बस अदालती सबूतों के अभाव में साबित नहीं किया जा सकता। साबित तो खैर कांग्रेसियों का भ्रष्टाचार भी आज तक नहीं हुआ। 
सवाल दूसरे स्तर के थे। सवाल यह था कि क्या सरकार को यह अधिकार है कि वह लोगों को उनकी संपत्ति से वंचित कर दे। सवाल यह है कि क्या सरकार को यह अधिकार है कि वह करेन्सी नोट के धारक को दिये गये वचन से साफ मुकर जाये ? क्या सरकार को यह अधिकार है कि वह बिना घोषित किये वित्तीय आपातकाल लागू कर दे ? क्या सरकार को यह अधिकार है कि लोगों को उनकी जीविका से वंचित कर दे ? क्या सरकार को यह अधिकार है कि वह काले धन के मामले में अपनी अक्षमता को, यदि वह अक्षमता मानी जाये, जनता के जिम्मे मढ़ दे ?
ये ऐसे कुछ असुविधाजनक सवाल हैं जिनसे देश का सर्वोच्च न्यायालय भी बचता रहा है हालांकि वह स्वयं को देश के पूंजीवादी संविधान का रक्षक मानता है। ये ऐसे सवाल हैं जो शायद संसद में पूछे न जाते। पर मोदी और भाजपा को आशंका थी। आशंका उन्हें काले धन के उनके अन्य वादों को लेकर भी रही होगी। इसीलिए मोदी और भाजपा इनका सामना करने से बचते रहे। 
पर पूंजीवादी राजनीति के सारे छल-कपट के बावजूद ये सवाल फिजां में घूमते रहेंगे और आज नहीं तो कल, इस रूप में नहीं तो उस रूप में मोदी और भाजपा को इनका सामना करना ही होगा। तब उन्हें जनता के जीवन से खिलवाड़ की कीमत पता चलेगी। राजनीतिक स्टंट के प्रभाव की एक समय सीमा होती है। इंदिरा गांधी ने कभी इसे समझा था और आपातकाल लगाकर इससे निपटने की कोशिश की थी। आत्मरति में लीन संघी प्रधानमंत्री भी अपनी कुर्सी बचाने के लिए इस ओर बढ़ सकता है। पर तब भी यह संघी फासीवाद होगा। 

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