विरासत

प्लेखानोव: एक प्रखर मार्क्सवादी चिंतक
रूस के पहले मार्क्सवादी संगठन के संस्थापकों में से एक थे प्लेखानोव। 29 नवंबर 1856 से 17 मई 1918 तक के अपने जीवनकाल में प्लेखानोव ने नरोदवाद से मार्क्सवाद तक की और फिर बोल्शेविक-विरोघ से क्रांति विरोध तक की यात्रा की। परंतु मजदूर क्रांति के विज्ञान को स्थापित करने एवं उसका प्रचार-प्रसार करने में उनका जो ऐतिहासिक योगदान रहा, उसके चलते वे जीवन पर्यंत एवं मृत्यु के बाद आज तक भी क्रांतिकारियों के बीच में एक ऊंचे कद की शख्सियत के रूप में स्थापित हैं। 
ज्यार्जी वैलेन्तिनोविच प्लेखानोव रूस के सबसे पहले मार्क्सवादी थे। वे अपने दौर के एक महान चिंतक और प्रचारक थे। 1880 और 1890 के दशकों में उन्होंने रूस एवं पूरी दुनिया को मार्क्सवादी सिद्धान्त एवं उसके इतिहास के बारे में शानदार कृतियां दीं। इन कृतियों में उन्होंने मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी विचारघारा को प्रस्तुत करने वाले कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के विचारों एवं शिक्षाओं की न सिर्फ रक्षा की बल्कि उन्हें समृद्ध किया एवं उन्हें व्याख्यायित एवं प्रचारित कर लोकप्रिय बनाया। मार्क्स और एंगेल्स जर्मनी के ऐसे बुद्धिजीवी थे जिन्होंने राजनीति, अर्थशास्त्र और दर्शनशास्त्र के क्षेत्रों में मजदूर वर्ग का पक्ष लेते हुए उस समय तक विश्व में प्रचलित विचारों एवं विचारघाराओं की समालोचना करते हुए मजदूर वर्ग की मुक्ति का क्रांतिकारी सिद्धान्त पेश किया था। दशकों की मेहनत, संघर्ष, अध्ययन, बहस-मुबाहसों से समृद्ध यही युगान्तकारी क्रांतिकारी सिद्धांत मार्क्सवाद, वैज्ञानिक समाजवाद, साम्यवाद (कम्युनिज्म) आदि के नाम से जाना जाता है और आज भी पूरी दुनिया के मजदूर वर्ग एवं उसके क्रांतिकारी संगठनों का मार्गदर्शन कर रहा है। 
इतिहास में अलग-अलग समाज व्यवस्थाओं (आदिम साम्यवाद, दास समाज, सामंती समाज, पूंजीवादी समाज) के विकास के विज्ञान को प्रस्तुत करने वाला मार्क्सवादी सिद्धान्त ऐतिहासिक भौतिकवाद कहलाता है। प्लेखानोव ने ऐतिहासिक भौतिकवाद की व्याख्या की। इसके अलावा उन्होंने इतिहास में व्यापक आम जनता एवं व्यक्तियों (नेताओं) की भूमिका, अर्थव्यवस्था के बुनियादी ढांचे के अघिरचना (राजनीति, कानून, साहित्य, विचारघाराएं, नैतिकता, रीतियां...) के साथ संबंघों की मार्क्सवाद के आधार पर वैज्ञानिक जांच पड़ताल की। समाज परिवर्तन एवं विकास में विचारघाराओं के महत्व पर भी प्लेखानोव ने लिखा। 
दर्शनशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र, सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों के इतिहास एवं खासकर रूस में भौतिकवाद एवं दर्शनशास्त्र के इतिहास पर उनकी बेहतरीन कृतियां वैज्ञानिक विचारों एवं प्रगतिशील संस्कृति के विकास के संदर्भ में बहुमूल्य योगदान हैं। 
रूस की क्रांति के महान नेता लेनिन ने प्लेखानोव के योगदान के बारे में कहा था ‘‘अतीत में उनके द्वारा प्रदान की गयी सेवाएं अतिशय थीं। 1883 एवं 1903 के मध्य के बीस वर्षों में उन्होंने बड़ी संख्या में निबंघ लिखे खास कर अवसरवादियों, माखवादियों और नरोदवादियों के खिलाफ शानदार निबंघ लिखे।’’ प्लेखानोव द्वारा छोड़ी गयी समृद्ध दार्शनिक विरासत आज तक मार्क्सवादी सिद्धान्तों की रक्षा करने और प्रतिक्रियावादी (समाज के विकास को पीछे ले जाने वाली) पूंजीवादी विचारघारा के खिलाफ मजदूर वर्ग के संघर्ष में मददगार हैं। 
प्लेखानोव तम्बोव गुबेर्निया के गुदालोव्का नामक गांव में पैदा हुए थे। उनके पिता वैलेनितन पेत्रोविच प्लेखानोव कुलीन परिवार से थे, उनकी थोड़ी जायदाद भी थी। उनकी माता मारिया फ्योदोरोव्ना के विचार प्रगतिशील थे और अपने पुत्र पर उनका विशेष प्रभाव था। वोरोनेझ के एक सैनिक स्कूल से 1873 में शिक्षा पूरी करने के बाद प्लेखानोव ने कुछ माह तक पीटर्सबर्ग के कोन्स्तान्तिन कैडेट स्कूल में पढ़ाई की और फिर 1874 में खनन संस्थान में प्रवेश किया। 
1876 में वे एक नरोदवादी संगठन में शामिल हो गए और उस ही वर्ष रूस के पहले राजनीतिक प्रदर्शन के संगठन में भागीदारी की। इसके बाद वे भूमिगत जीवन जीने लगे। 
नौजवान प्लेखानोव चेर्नीश्वेस्की और बेलीन्स्की  के उत्साही प्रशंसक थे जिन्हें वे अपना आदर्श और गुरु मानते थे। वे बेलीन्स्की के लेखों की विचारघारात्मक समृद्धि से बहुत प्रभावित थे और चेर्नीशेव्स्की के नेक कामों और क्रांतिकारी नायकवाद से उन्हें प्रेरणा मिलती थी। यह आश्चर्यजनक नहीं था कि बाद में अपनी बहुत सी कृतियों को क्रांतिकारी जनवाद के इन रूसी प्रतिनिघियों-बेलीन्स्की, चेर्नीशेव्स्की, हरजेन और दोब्रोल्यूबोत को समर्पित किया
उक्त जनवादी-क्रांतिकारी विचारकों से प्रेरणा ग्रहण करने वाले नरोदवादी आन्दोलन की रूस के क्रांतिकारी आन्दोलन में ऐतिहासिक भूमिका रही है। 1870 के दशक में रूस की अर्थव्यवस्था में पूंजीवाद जड़ जमाने लगा था। जहां एक तरफ पूंजीवाद अपने उद्योगों के माध्यम से श्रमिकों का शोषण करता था, वहीं देहातों में भी पूंजीवादी संबंध  अपनी जड़ें उत्तरोत्तर जमाते जा रहे थे और अतीत के  सामंती दासता के अवशेषों को हटाते जा रहे थे। गरीब किसानों की तबाही के साथ उनका उद्योगों के उजरती मजदूरों की वृहद बेरोजगार सेना में रूपांतरण होता जा रहा था। निरंकुशशाही के अघीन तत्कालीन रूस के देहातों में धीमी गति  से पूंजीवाद प्रवेश कर रहा था। ऐसे में जमीदारों का प्रभुत्व भी देहातों से अभी समाप्त नहीं हुआ था। किसानों का बहुलांश सामंतवाद और पूंजी की दोहरी मार झेल रहा था। जमीदारों के खिलाफ किसानों के संघर्ष को क्रांतिकारी जनवादी नेतृत्व नरोदवाद ने दिया।
अपने क्रांतिकारी जीवन के प्रारंभिक वर्षों में प्लेखानोव एक नरोदवादी सिद्धान्तकार के रूप में किसान क्रांति के माध्यम से समाजवाद में संक्रमण की संभावना में विश्वास रखते थे। पर साथ ही मजदूर वर्ग के लक्ष्य में भी उनकी बेहद दिलचस्पी थी। वे मजदूरों के अध्ययन चक्र संचालित करते थे, मजदूरों की सभाओं में भाषण देते थे, हड़तालों  के आयोजन में मदद करते थे। मजदूर वर्ग का लेखों एवं परचों के माध्यम से लड़ाई के लिए आह्वान करते थे। 
प्लेखानोव के मजदूर वर्ग से घनिष्ठ संबंघों  ने प्लेखानोव के लिए क्रांतिकारी आंदोलन में मजदूर वर्ग की भूमिका को समझना आसान बना दिया। उन्होंने मार्क्सवाद और पश्चिमी यूरोप के मजदूर आन्दोलन का गहन अध्ययन किया। इनकी मदद से वे मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी भूमिका को स्पष्टतः समझने लगे और क्रांतिकारी सर्वहारा की विचारधारा  को स्वीकारते गए।
नरोदवादी किसानों के संगठित क्रांतिकारी संघर्ष के माध्यम से समाजवाद की स्थापना की बात सोचते थे। उनके द्वारा क्रांति के लिए किसानों को लामबंद करने के तमाम प्रयासों के असफल हो जाने के बाद नरोदवादियों ने आतंकवाद की कार्यदिशा को अपनाया। जनता की चेतना के विकास के माध्यम से क्रांति में जनता की निर्णायक भूमिका के महत्व को समझने में नरोदवादी अक्षम साबित हुए। इसके बजाय वे जनता को भीड़ समझते थे जो किन्हीं खास जागे हुए व्यक्तियों के साहसिक नायक (Hero) सदृश कारनामों को देखकर क्रांति के लिए उमड़ पड़ेगी। इसी आतंकवादी कार्यदिशा पर चलते हुए 1881 में नरोदवादियों ने अलेक्सान्द्र द्वितीय की हत्या कर दी। इसके बाद अलेक्सांद्र तृतीय के शासनकाल के साथ प्रतिक्रिया और दमन का जो काल शुरु हुआ उसमें क्रांतिकारी नरोदवादी आतंकवाद की उभरती लहर को कुचल दिया गया। 1890 के दशक में नरोदवाद क्रांति के मार्ग को छोड़कर जारशाही से समझौता करने वाली एक उदारवादी रुझान में पतित हो गया।
प्लेखानोव ने अपने राजनीतिक मतभेदों के कारण नरोदवादियों को छोड़ दिया। वे नरोदवादियों की आतंकवादी कार्यदिशा के विपरीत जनता को आन्दोलित करने में विश्वास रखते थे। उन्होंने मात्र किसानों के क्रांतिकारी आह्वान की खोट को उजागर किया। वे 1877 और 1878 में दो बार अपनी क्रांतिकारी गतिविघियों की वजह से गिरफ्तार हुए और 1880 में बढ़ते मुकदमों ने उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर किया। तब से आगे उन्होंने विदेशों में रहकर ही रूस के लिए क्रांतिकर्म किया। 1882-83 तक वे पूरी तरह मार्क्सवाद को अपना चुके थे। 
पहला रूसी मार्क्सवादी संगठन-श्रम मुक्ति दल- जेनेवा में 1883 में प्लेखानोव, जासूलिच, एक्सेलरोद, ड्यूश एवं इग्नातोव ने स्थापित किया। इसका उद्देश्य मार्क्स एवं एंगेल्स की कृतियों के रूसी अनुवाद करके एवं मार्क्सवादी दृटिकोण से नरोदवाद की आलोचना करके  वैज्ञानिक समाजवाद का प्रचार-प्रसार करना था। श्रम मुक्ति दल ने रूस में मार्क्सवादी क्रांतिकारी दल की स्थापना का सैद्धान्तिक आघार तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और रूस के प्रगतिशील मजदूरों के मध्य राजनैतिक चेतना का सघन प्रसार किया। विदेशों में छपे श्रम मुक्ति दल के परचों एवं लेखों में रूस में पहली बार मार्क्सवाद को व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया गया और मार्क्सवादी विचारघारा के आघार पर व्यवहारिक निष्कर्ष निकाले गए।
मार्क्स और एंगेल्स के क्रांतिकारी विचारों के प्रसार को अपने जीवन का ध्येय बना लेने वाले प्लेखानोव फ्रांस, स्विट्जरलैण्ड और इटली में अपने प्रवास के दौरान मार्क्सवाद को लोकप्रिय बनाने के लिए बहुत अधिक सक्रिय थे। वे भाषण देते थे और विविध विषयों पर परचे लिखते थे। 1882 में उन्होंने ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ का रूसी में अनुवाद किया। 
प्लेखानोव के गैरकानूनी रूप से रूस में लाकर वितरित किये गए लेख मजदूर वर्ग के लिए एक नयी ही दुनिया खोल देते थे, उनमें एक बेहतर भविष्य के लिए लड़ने का आह्वान होता था और मार्क्सवाद की बुनियादी बातों की शिक्षा सीधे, सरल, सबको समझ में आने वाले रूप में होती थी। मजदूर वर्ग के आदर्शों की अंतिम जीत में अडिग विश्वास से ओतप्रोत ये लेख यह आश्वस्त करते थे कि उन आदर्शों के मार्ग के सारे अवरोधों और कठिनाइयों को संगठित सर्वहारा आसानी से हटा देगा। 
1880 के दशक के अंत से प्लेखानोव ने वैज्ञानिक समाजवाद के अंतर्राष्ट्रीय प्रतिनिधि के रूप में स्थान प्राप्त कर लिया। उन्हें एक महान सिद्धान्तकार और मजदूर वर्ग के आंदोलन के नेता के रूप में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिली। रूस के मार्क्सवादी क्रांतिकारी मजदूर संगठन (रूस की सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी) की ओर से मार्क्सवादियों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन(द्वितीय इण्टरनेशनल) में वे प्रतिनिधित्व करते रहे। उन्होंने जर्मनी, स्व्जिरलैण्ड, फ्रांस और इटली की पार्टियों के कामों में भी सक्रिय भागीदारी की। 
प्लेखानोव ने बाकूनिन के अराजकतावादी विचारों और उसकी दुस्साहसवादी कार्यदिशा की आलोचना की। उन्होंने बर्नस्टीन के सिद्धान्तों की आलोचना की जो मार्क्सवाद में कमियां निकालकर उसे गलत साबित करना चाहता था। उन्होंने मिलेरां, बिसोलाती और अन्य की आलोचना कर सही मार्क्सवाद को स्थापित किया। उन्होंने अर्थवाद और ”कानूनी मार्क्सवाद (जो मार्क्सवाद के नाम पर पूंजीवाद की सेवा करता था) के खिलाफ संघर्ष किया उन्होंने वैयक्तिक आतंकवादी रणकौशल को अपनाने वाले समाजवादी क्रांतिकारियों को भी बेनकाब किया। उन्होंने बताया कि मार्क्सवाद कैसे कल्पनावादियों(ओवेन, सेंट साइमन, फूरिये) और निम्न पूंजीवादियो(प्रूधों, नरोदवादी, अराजकतावादी एवं अन्य) के समाजवाद से भिन्न वैज्ञानिक समाजवाद की सर्वहारा क्रांतिकारी विचारधारा है। 
उन्होंने पूंजीवादी अर्थशास्त्रियों-एडम स्मिथ एवं डेविड रिकारडो -के सिद्धान्तों के बरखिलाफ मार्क्सवादी अर्थशास्त्र कैसे सही है, पूंजीवादी अर्थशास्त्र एवं मार्क्सवादी अर्थशास्त्र का सामाजिक सारतत्व क्या है, इसकी व्याख्या की। उन्होंने मार्क्स की अतिरिक्त मूल्य एवं पूंजी संबंधी शिक्षा को व्याख्यायित किया।
उन्नीसवीं सदी के अन्त में विश्व पूंजीवाद अपने विकास की नयी मंजिल साम्राज्यवाद में दाखिल हुआ। इस प्रकार शुरु हुए नए युग में  क्रांतियां और युद्ध अनिवार्य थे। इस नए युग में सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टियों को भी अपनी समझ और कार्यप्रणाली का विकास करने की आवश्यकता थी। हालांकि प्लेखानोव अंतराष्ट्रीय स्तर पर मजदूर आंदोलन में एक सक्रिय शख्सियत बने रहे और मार्क्सवादी दर्शन की रक्षा में संलग्न रहे तो भी वे इस नए युग की विशेषताओं को समझ पाने में असफल रहे। न तो वे साम्राज्यवाद के संबंध में मजदूर आन्दोलन की सैद्धान्तिक समझ बढ़ा सके और न ही इस नए युग के मजदूर आन्दोलन के नए अनुभवों का ही कोई समाहार प्रस्तुत कर पाए। यह काम लेनिन के हिस्से में आया, जिन्होंने साम्राज्यवाद की समझदारी के साथ मार्क्सवाद को समृद्ध किया। 
19वीं शताब्दी के अंत में प्लेखानोव के सबसे उत्साही समर्थकों में लेनिन थे। वे प्लेखानोव को रूसी मार्क्सवाद का संस्थापक मानते थे और उनके द्वारा शुरु किए गए क्रांतिकारी कर्म के प्रशंसक थे। लेनिन की पहलकदमी पर प्लेखानोव के श्रम मुक्तिदल समेत अन्य रूसी मार्क्सवादी धाराएं एक मंच (रूस की सामाजिक जनवादी पार्टी) के तले एकत्र हुयी थीं। प्लेखानोव भी इस एकता के हिमायती थे और 1900 में जब इसी एकता के उद्देश्य के साथ लेनिन ‘ईस्क्रा’ निकालने लगे तो प्लेखानोव ने भी इसमें लिखा और दोनों ने मिलकर सर्वहारा क्रांति और मार्क्सवाद का समर्थन किया और संशोधनवाद को बेनकाब किया। 
परंतु रूस की सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की फूट (दूसरी कांग्रेस, 1903 के बाद) के समय लेनिन और प्लेखानोव आमने सामने खडे़ थे और फिर उनके सिद्धान्त कभी एक नहीं हुए। 
1903 की कांग्रेस के बाद प्लेखानोव मेंशेविक हो गए। (पार्टी लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक और मारतोव के नेतृत्व में मेंशेविक दलों में बंट गयी थी।) उनके मेंशेविक में पतित होने और मार्क्सवादी सिद्धान्तों और व्यवहार में उनकी असंगतता के पीछे तत्कालीन पश्चिमी यूरोप में फलफूल रहे सुघारवाद की भी कम भूमिका नहीं थी। अब प्लेखानोव मेंशेविकों के समर्थक थे और मार्क्सवाद के निहायत ही महत्वपूर्ण सवालों पर वे मेंशेविक दृष्टिकोण के समर्थक बन गएः क्रांति में सर्वहारा की भूमिका और क्रांति की कार्यदिशा, किसानों के प्रति रुख, 1905 की क्रांति का मूल्यांकन, राज्य का प्रश्न, दर्शन के क्षेत्र में गंभीर सैद्धान्तिक गलतियां और ढेरों सवालों पर उनका सुसंगत मार्क्सवाद से विचलन, राजनीति में उनकी मेंशेविक पक्षघरता से संबद्ध था। मेंशेविक क्रांति में सर्वहारा वर्ग की नेतृत्वकारी भूमिका के खिलाफ थे।
तमाम राजनैतिक संगठनात्मक सवालों पर मेंशेविक अवस्थिति के बावजूद प्लेखानोव ने पार्टी के विघटन के किसी भी रूप एवं प्रयास का विरोघ किया और पार्टी के बचाव के लिए विघटनवाद के खिलाफ संघर्षरत लेनिन का समर्थन किया। ऐसा उन्होंने 1909 से 1912 के मध्य किया। 1908 से 1912 तक लेनिन की तरह ही प्लेखानोव ने भी माखवादियों का पुरजोर विरोघ किया। प्लेखानोव ने क्रोसे (Croce), माख, ऐवेनेरियस, नीत्शे, विण्डेलवैण्ड, बर्गसन और तमाम अन्य बुर्जुआ दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों की तीखी आलोचना की और मार्क्सवाद की दार्शनिक बुनियाद की रक्षा की।
परंतु 1912 के बाद प्लेखानोव दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से विघटनवादियों से एकता के समर्थक बन गए। प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान वे सामाजिक अंघराष्ट्रवादी अवस्थिति पर खड़े थे। समग्र साम्राज्यवादी विश्वयुद्ध की मुखालफत करने के बजाय वे जर्मनी की जीत में सर्वहारा वर्ग के लिए आपदा देखते हुए रूस की विजय को विश्व सर्वहारा के लिए बेहतर देखने लगे। जबकि दसियों लाख रूसी विश्वयुद्ध में मर रहे थे और लड़ाई से इन्कार कर रहे थे। प्लेखानोव ने विश्वयुद्ध का समर्थन किया।
फरवरी 1917 में रूस में बुर्जुआ जनवादी क्रांति के बाद प्लेखानोव 37 वर्ष के विदेश प्रवास से वापस लौटे और पेत्रोग्राद गए।
अपनी रूस वापसी पर वे तब तक पतित हो चुके द्वितीय इण्टरनेश्नल के सामाजिक सुघारवादी एवं सामाजिक अंघर्राष्ट्रवादी सिद्धान्तों (समाजवाद के नाम पर सुघारवादी एवं अंघराष्ट्रवादी सिद्धान्तों) के गुलाम बने रहे और रूस के तत्कालीन समाज के विकासक्रम को समझ पाने में निहायत अक्षम साबित हुए। उन्होंने केरेन्स्की की अस्थायी सरकार को यह कहते हए समर्थन दिया कि यह एक वास्तविक बुर्जुआ (पूंजीवादी) सरकार की स्थापना है जो रूस का पूंजीवादी विकास करेगी। इस विकास के परिणाम स्वरूप सर्वहारा वर्ग अपनी संख्या और शक्ति में आगे बढ़ेगा। तब समाजवादी रूपान्तरण की जमीन तैयार होगी और समाजवाद (मजदूर वर्ग का राज) आएगा।
लेनिन के नेतृत्व में संचालित समाजवादी क्रांति पर उन्होंने हमला किया। इस क्रांति के भविष्य के मूल्यांकन के संदर्भ में वे पतित हो चुके द्वितीय इण्टरनेश्नल की रूढ़िवादी अवस्थितियों से चिपके रहे कि अभी रूस की आर्थिक परिस्थितियों के और अघिक परिपक्व होने की आवश्यकता है तभी समाजवादी क्रांति करनी चाहिए, तभी समाजवाद टिक सकता है। या कि समाजवाद में संक्रमण के लिए अभी कहीं ऊंचे सांस्कृतिक स्तर की आवश्यकता है, आदि,आदि। प्लेखानोव मानते थे कि फरवरी 1917 की क्रांति (पूंजीवादी जनवादी क्रांति) को रूस के पूंजीवादी विकास के लम्बे कालखण्ड का आरंभ होना चाहिए था। वे अक्टूबर 1917 की समाजवादी क्रांति को ‘‘इतिहास के सारे नियमों का उल्लंघन’’ मानते थे।  
परंतु जहां वे एक तरफ तत्काल रूस में एक समाजवादी क्रांति की आवश्यकता से इनकार करते रहे, वहीं वे विजय प्राप्त सर्वहारा वर्ग एवं उसकी सोवियत सत्ता  के खिलाफ नहीं लड़े। मई 1918 में वे फिनलैण्ड में मृत्यु को प्राप्त हुए और उन्हें पेत्रोग्राद के वोल्कोवो कब्रगाह में बेलीन्स्की एवं दोब्रोल्यूबोव की कब्र के बगल में दफना दिया गया।
इस प्रकार एक ऐसे शख्स का अन्त हुआ, जो अपनी गलत राजनैतिक, संगठनात्मक, रणकौशलात्मक और सर्वाघिक विचारघारात्मक अवस्थितियों के कारण रूस की महान बोल्शेविक पार्टी और इतिहास को रचने वाली मजदूर-किसान क्रांतिकारी जनता के खिलाफ खड़ा हो गया। इस शख्स के मेंशेविक बनने से यह पूरी प्रक्रिया गहराई के साथ जुड़ी थी।
पर अपने जीवन के पहले के वर्षों में मार्क्सवादी सिद्धान्तों की रक्षा और प्रचार के लिए वे हमेशा याद किए जाएंगे और उनकी कृतियां भी मजदूर वर्ग की विचारघारा के अध्ययन और रक्षा में उपयोगी साबित होती रहेंगी।

अन्तोली लूनाचार्स्की :  मजदूर राज का पहला शिक्षा कमिसार
अन्तोली लूनाचार्स्की के 58 वर्ष के जीवन को प्रथम विश्व युद्ध के विरोध में उनकी भूमिका, रूस की महान सर्वहारा अक्टूबर 1917 की क्रांति में औद्योगिक मजदूरों के उद्वेलन एवं नेतृत्व के साथ-साथ मजदूर राज में साक्षरता और शिक्षा के प्रसार के लिए सदैव याद किया जाएगा। युद्ध के विरोध से लेकर अपने समकालीन मजदूर नेताओं के संस्मरणों में उनके प्रखर लेखन की छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है। 
लूनाचार्स्की का जन्म 1875 में यूक्रेन के पोल्तावा में हुआ था। उनके पिता एक सरकारी अधिकारी थे। इस परिवेश में वे 15 वर्ष की कम उम्र में ही क्रांतिकारी बन गए। इस उम्र में उन्होंने कीव में एक गैर कानूनी मार्क्सवादी अध्ययन चक्र में शामिल होना शुरू कर दिया था। जैसा कि उन्होंने लिखा, ‘‘मै जीवन के इतने प्रारंभ में ही क्रांतिकारी बन गया कि मुझे यह याद नहीं आता कि मैं कब क्रांतिकारी नहीं था।’’
तत्कालीन जारशाही वाले रूस में बेहतर शिक्षा की उम्मीद न करते हुए वे 19 वर्ष की आयु में 1894 में शिक्षा ग्रहण करने के उद्देश्य से स्विट्जरलैंड  गए। परंतु दो वर्षों तक ज्यूरिख में अध्ययन करने के बाद वे बिना डिग्री लिए ही रूस वापस लौट आए और वहां की क्रांतिकारी गतिविधियों में शिरकत करने लगे। ज्यूरिख में अध्ययन के दौरान वे यूरोप के समाजवादियों-रोजा लग्जमबर्ग और लियो जोगिशेज से मिले और उन्होंने रूस की सामाजिक जनवादी पार्टी में शिरकत प्रारंभ की। रूस लौटने पर वे पार्टी निर्माण की गतिविधियों में भागीदारी के ‘जुर्म’ में जारशाही द्वारा गिरफ्तार कर लिए गए। 
तात्कालीन जारशाही वाले रूस में लोगों को संगठन बनाने के जनवादी अधिकार हासिल नहीं थे। वहां निरंकुश जारशाही का चौतरफा वर्चस्व था। उस दौर में रूस के क्रांतिकारी आंदोलन को जारशाही भ्रूणावस्था में ही दफन कर देना चाहती थी। परंतु इसी दमन, गिरफ्तारियों, निष्कासनों से तप कर रूस के क्रांतिकारी आंदोलन की फौलादी बुनियाद पड़ी, जिसके प्रभाव को आने वाले वर्षों  में जारशाही की खुफिया पुलिस जरा भी कम न कर सकी और क्रांतिकारियों के परचों का मजदूर वर्ग पर प्रभाव बढ़ता गया। क्रांतिकारी आंदोलन और मजदूर आंदोलन उत्तरोत्तर एकाकार होता गया। 
अन्तोली लूनाचार्स्की को रूस के ही साइबेरिया क्षेत्र के कलूगा में निर्वासित कर दिया गया, जहां से चार वर्ष बाद वे पुनः कीव पहुंचे-अपने प्रिय मजदूर वर्ग के बीच।
1903 में लन्दन में रूस की सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी की दूसरी कांग्रेस हुयी। इस कांग्रेस में पार्टी की संरचना और चरित्र के संबंध में विवाद खड़ा हुआ। लेनिन और मारतोव के नेतृत्व में कांग्रेस दो भागों में बंट गयी। लेनिन सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी को सीमित संख्या में मौजूद कुशल और अनुभवी पेशेवर क्रांतिकारियों के इर्द-गिर्द एक सुगठित और कठोर अनुशासन में चलने वाला संगठन बनाना चाहते थे जबकि मारतोव अन्य यूरोपीय समाजवादी पार्टियों की तर्ज पर संगठन (पार्टी) को ढीला ढाला व्यापक संगठन बनाना चाहते थे जिसकी सदस्यता किसी निष्क्रिय प्रोफसर को भी दी जा सकती थी। तमाम अन्य क्रांतिकारियों के साथ लूनाचार्स्की ने भी लेनिन का पक्ष चुना। लेनिन के समर्थक बहुमत में (बोल्शेविक) रहे और मारतोव के समर्थक अल्पमत में (मेन्शेविक) रहे। 
इतिहास ने साबित किया कि बोल्शेविक क्रांतिकारी थे और मेन्शेविक अवसरवादी। पहले तो रूस की तत्कालीन परिस्थितियों में बोल्शेविकों का पार्टी ढांचा और कठोर अनुशासन की उनकी कार्यशैली ज्यादा कारगर थी। दूसरे प्रथम विश्व युद्ध के छिड़ने के बाद यूरोप की सामाजिक जनवादी पार्टियों के बिखराव ने यह दिखाया कि पूरी दुनिया में ही (चाहे किसी देश में निरंकुशतंत्र हो या पूंजीवादी जनवाद) पार्टी का पेशेवर क्रांतिकारियों के इर्द गिर्द अनुशासनबद्ध सुगठित बोल्शेविक ढांचा ही क्रांतिकारी पार्टी की क्रांतिकारिता की गांरटी कर सकता है। 
लूनाचार्स्की ने बोग्दानोव के साथ मिलकर स्विट्जरलैण्ड से पार्टी पत्रिका का संपादन किया। उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन पर ”सकारात्मक सौन्दर्यशास्त्र और धर्म और समाजवाद के बारे में एक निबंध'' नामक पुस्तक भी लिखी। लेनिन के साथ मिलकर ‘व्पेरेद’ और ‘प्रोलेतारी’ (सर्वहारा) नामक पत्रिकाएं भी निकाली जिन्हें गैर कानूनी तरीके से रूस ले जाकर वितरित किया जाता था। 
लूनाचार्स्की 1905 की रूसी क्रांति के दौरान रूस लौटे और मैक्सिम गोर्की के साथ मिलकर पहला खुला (वैधानिक) बोल्शेविक अखवार ‘जोवाया झिज्न’ भी निकाला। 
1909 से 1911 तक लूनाचार्स्की बोग्दानोव और मैक्सिम गोर्की, मिखाइल पोक्रोव्स्की के साथ मिलकर कैप्री द्वीप में ‘रूसी समाजवादी मजदूरों का स्कूल चलाते रहे।             
इस दौरान लूनाचार्स्की के लेनिन के विचारों से मतभेद भी उभरे परन्तु 1914 में लुटेरे साम्राज्यवादियों द्वारा विश्व युद्ध छेड़कर जब तमाम देशों की जनता को उसमें मात्र इसलिए झोंका जाने लगा कि साम्राज्यवादी  अपने देशों के लिए ज्यादा कच्चा माल और बड़ा बाजार  हासिल कर सके, तब तमाम क्रांतिकारी लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविकों की प्रखर युद्ध विरोधी अवस्थिति के इर्द-गिर्द जमा होने लगे। लूनाचार्स्की और लेनिन के मतभेदों के छंटने की भौतिक परिस्थिति भी विश्व युद्ध ने पैदा की। 1915 में लूनाचार्स्की ने अन्तर्राष्ट्रीयतावादी सर्वहारा अवस्थिति के साथ विश्व युद्ध विरोध में ‘व्पेरेद’ के पुनर्प्रकाशन में भागीदारी की। 
फरवरी 1917 की क्रांति के बाद तमाम निर्वासित क्रांतिकारी विदेशों से वापस रूस लौटे। परंतु उन्हें तत्कालीन केरेन्सकी की पूंजीवादी सरकार के चरित्र को पहचानने में ज्यादा देर नहीं लगी। जुलाई 1917 में केरेन्स्की ने लूनाचार्स्की को जेल में डाल दिया। 
लूनाचार्स्की कुछ समय के लिए त्रात्स्की के साथ ‘मेझरायोन्त्सी’ समूह का हिस्सा भी रहे। परन्तु अन्ततः अगस्त 1917 में ट्राट्त्स्की के साथ वे भी बोल्शेविकों में शामिल हो गए। 
उसके बाद बोल्शेविकों ने केरेन्स्की (मेंशेविक) की पूंजीवादी सरकार जो युद्ध को समाप्त करने के बजाय मजदूरों किसानों के बेटों को युद्ध में लगातार झोंके हुयी थी, के खिलाफ मजदूरों किसानों के संघर्ष को तीव्र कर दिया। अक्टूबर क्रांति की घटनाओं में लूनाचार्स्की ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने एक उद्वेलनकर्ता के रूप में रोज मजदूरों, सैनिकों को संबोधित किया और उन्हें क्रांति के लिए लामबंद किया। यह काम उन्होंने बहुत कुशलतापूर्वक किया। 
अक्टूबर 1917 की सर्वहारा क्रांति के बाद लूनाचार्स्की को प्रबोधन का कमिसार नियुक्त किया गया। नयी सर्वहारा सरकार में साक्षरता शिक्षा समेत तमाम बौद्धिक सांस्कृतिक पक्षों में मजदूर शासन के संचालन की जिम्मेदारी लूनाचार्स्की की थी और यह जिम्मेदारी लूनाचार्स्की ने बखूबी निभायी। वे 1929 तक इस पद पर रहे। उन्होंने रूस के शिक्षा तंत्र में आमूल चूल बदलाव के लिए प्रयास किए। उन्होंने कला जगत को सब्सिडी देने की नीति शुरू की। उनका अन्य नवीन योगदान मजदूर वर्ग और किसान वर्ग के लिए तकनीकी और प्रशासनिक शिक्षा के लिए सघन और संक्षिप्त पाठ्यक्रमों की शुरूआत था। इस शिक्षा के तहत मजदूरों-किसानों को विज्ञान, तकनीकी और प्रशासन-संचालन की वह शिक्षा कुछ ही समय में तीव्र गति से और व्यवहारिक तरीके से दी जाती थी, जिससे वे सदियों से महरूम थे, क्योंकि जारशाही में मजदूरों किसानों को ज्ञान के योग्य नहीं बल्कि उत्पादन के लिए खटने वाली मशीन मात्र समझा जाता था। 
वयस्क साक्षरता का रूस में 1917 में आलम यह था कि मात्र 35 प्रतिशत वयस्क साक्षर थे। परंतु 1929 तक यह साक्षरता दर लगभग 100 प्रतिशत पहुंच गयी। यह मजदूर राज में ही संभव था, जिसके पास लूनाचार्स्की जैसे कमिसार थे। 
लूनाचार्स्की 1919 में मक्सिम गोर्की, अलेक्सांद्र ब्लाक एवं मारिया अन्द्रेवा के साथ ‘बोल्शोई नाट्य मंच’ की स्थापना से भी जुड़े रहे। 
लूनाचार्स्की ने सोवियत संघ के पुस्तकालयों की नयी प्रणाली दिखाने के लिए अमरीकी पुस्तकालयाध्यक्षों को भी सोवियत संघ में आंमत्रित किया। 
लूनाचार्स्की एक प्रखर लेखक थे। उन्होंने अलेक्सांद्र पुश्किन, ज्यार्ज बर्नार्ड शॉ और मार्सेल प्राउस्ट समेत तमाम लेखकों की कृतियों पर साहित्यिक निबंध लिखे। 
साहित्यिक मिजाज के लूनाचार्स्की में ढेरों ऐसी चीजें थीं जो उन्हें समय-समय पर दृढ़ क्रांतिकारी सर्वहारा स्थिति से भटका देती थीं। वे शुरू में बोल्शेविक थे। लेकिन जब 1905-07 की क्रांति की पराजय के बाद हताशा का समय आया तो वे उन लोगों की कतार में शामिल हो गये जो मार्क्सवादी दर्शन के बदले माखवादी भाववादी दर्शन का प्रचार कर रहे थे। इससे भी आगे बढ़कर उन्होंने मैक्सिम गोर्की के साथ मिलकर ईश्वर विहीन धर्म की स्थापना का प्रचार किया। अपने इसी वैचारिक ढुलमुलपन के कारण वे एक लम्बे समय  तक ढीले-ढाले ग्रुप मेझरायोन्त्स्की के सदस्य रहे। अक्टूबर क्रांति के दौरान जब कठिन समय आया तब भी उन्होंने इसी ढुलमुलपन का परिचय दिया। वे क्रांति के निर्मम वैचारिक और व्यवहारिक संघर्ष से अक्सर विचलित हो उठते थे जिसका स्वाभाविक परिणाम होता था सही क्रांतिकारी स्थिति से ढुलमुलपन। यह उनके क्रांतिकारी जीवन की सबसे बड़ी कमी थी। 
1933 में स्पेन के राजदूत में नियुक्त लूनाचार्स्की अपना कार्यभार संभालने जाने के दौरान मार्ग में  ही मृत्यु का शिकार हुए। और इस प्रकार 58 वर्षों  के सारगर्भित एक जीवन का अंत हुआ जिसे रूस की मजदूर क्रांति और मजदूर राज में शिक्षा के बदलाव के लिए हमेशा याद किया जाएगा। 

ज्यार्जी दिमित्रोव : फासीवाद के खिलाफ साम्यवाद का सच्चा सिपाही
ज्यार्जी दिमित्रोव का जन्म कहां हुआ था, यह महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि  वे मजदूर वर्ग के सच्चे अन्तर्राष्ट्रीय सिपाही थे। वे अपने दौर में पूरी दुनिया के मजदूरों के प्रतिनिधि थे और आज भी पूरी दुनिया के मजदूरों को पूंजीवाद के खिलाफ मजबूती से संघर्ष करने के लिए प्रेरणा देते हैं। ‘ट्रेड यूनियनों के कार्यभार’ नामक उनकी पुस्तक आज भी क्रान्तिकारी मजदूर आन्दोलन में पूरी दुनिया में पढ़ी जाती है। 
फासीवाद यानी नंगे, कातिल, वीभत्स पूंजीवाद के खिलाफ साम्यवाद यानी मजदूर वर्ग के शोषणविहीन समाज के मिशन के सच्चे और वीर सिपाही ज्यार्जी दिमित्रोव बुल्गारिया में पैदा हुए थे। बाद में वे पूरी दुनिया के मजदूर आन्दोलन के सर्वमान्य नेता बने। इस लेख में हम उनके बारे में और उनके दौर में उनकी ऐतिहासिक भूमिका के बारे में परिचय प्राप्त करेंगे। 
ज्यार्जी दिमित्रोव का जन्म 18 जून सन् 1882 को बुल्गारिया में हुआ था। पेशे से छपाई का काम करने वाले ज्यार्जी दिमित्रोव अपनी तरूणाई के दिनों से ही मजदूर वर्ग के संघर्षों के हमसफर बन गए। जब वे मात्र 15 वर्ष की उम्र के थे, एक छापेखाने में कम्पोजिटर के रूप में काम करते हुए वे क्रांतिकारी आंदोलन में शरीक हो गए और छापेखानों की बुल्गारिया की सबसे पुरानी ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करने लगे थे।
1902 में दिमित्रोव बुल्गारियाई मजदूर सामाजिक जनवादी पार्टी में शामिल हो गए। उन्होंने मजदूर आन्दोलन में मजदूर विचारधारा में संशोधन की सक्रिय रूप से मुखालफत की। 
आत्मत्याग से परिपूर्ण दिमित्रोव के क्रातिकारी संघर्षों ने उन्हें जनता की श्रद्धा का पात्र बनाया। वे 1905 में बुल्गारिया के क्रातिकारी ट्रेड संघों के मोर्चे के सचिव चुने गए और इस पद पर वे 1923 तक बने रहे जब इस मोर्चे को फासीवादियों द्वारा भंग कर दिया गया। 1919 में  बुल्गारिया की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना में उन्होंने भूमिका निभाई। 
बुल्गारिया के मजदूर वर्ग के लिए संघर्ष के दौरान दिमित्रोव ने साहस और वीरता का परिचय दिया, वे बार-बार गिरफ्तार हुए और उत्पीड़न का शिकार हुए। सितम्बर 1923 के बुल्गारिया के सशस्त्र विद्रोह में केन्द्रीय क्रान्तिकारी कमेटी के प्रमुख के रूप में उन्होंने क्रांतिकारी निर्भयता और मजदूर वर्ग के मिशन के प्रति समर्पण का परिचय दिया। फासिस्ट न्यायालयों ने उनकी अनुपस्थिति में ही उनकी विद्रोह में भागीदारी के लिए दो बार मृत्युदण्ड दिया।
1923 में मजबूरन उन्हें बुल्गारिया छोड़ना पड़ा। वे यूगोस्लाविया और विएना होते हुए मास्को पहुंचे। वे एक पेशेवर क्रांतिकारी के रूप में जीवन जीने लगे। मजदूर वर्ग के संघर्षों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व देने वाली संस्था कम्युनिस्ट इण्टरनेश्नल की कार्यकारी समिति में उन्होंने सक्रिय भूमिका निभायी। इस संस्था की ओर से बर्लिन में रहते हुए उन्होंने बाल्कन देशों आस्ट्रिया और जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी को गुप्त रूप से सम्पर्क साध कर नेतृत्व दिया।
1933 में उन्हें बर्लिन में उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों की वजह से गिरफ्तार किया गया। जर्मन सरकार ने उन पर जर्मनी की संसद (रीखस्टाग) को जलाने की कार्यवाही में भागीदारी का आरोप लगाया। विश्व इतिहास के उस दौर में दुनिया ने पूंजीवाद और साम्यवाद की ताकतों के बीच भीषण संघर्ष देखा। अपने संकटों से रूबरू पूंजीवाद ने फासीवाद या नाजीवाद का खतरनाक रूप ग्रहण किया था तो दूसरी तरफ सोवियत संघ में क्रांति कर मजदूरों ने अपना राज स्थापित किया था जो पूरी दुनिया के मजदूरों को सूर्य की तरह रोशनी प्रदान कर रहा था। फासीवाद के खिलाफ साम्यवाद के एक वीर और उत्कृष्ट सिपाही के रूप में ज्यार्जी दिमित्रोव हमेशा याद किए जाएंगे। न्यायालय में उनका साहसिक व्यवहार फासीवाद और साम्राज्यवादी युद्ध के खिलाफ व्यवहार का आदर्श बन गया। उन्होने पूरी वीरता के साथ न्यायालय के समक्ष सच्चाई को उजागर किया और रीखस्टाग अग्निकाण्ड को लेकर किए जा रहे बेशर्म कुत्सा प्रचार को बेनकाब किया। और इस प्रकार दुनिया भर में करोड़ों मजदूरों को फासीवाद विरोधी संघर्ष की प्रेरणा दी। 
1935 में दिमित्रोव को कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल (कॉमिन्टर्न; अंतराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन एवं मजदूर आंदोलन का नेतृत्वकारी क्रांतिकारी संगठन) की कार्यकारी समिति (कार्यकारिणी) का महासचिव चुना गया। उन्होंने फासीवाद के खिलाफ संघर्ष के लिए सर्वहारा के एकीकृत एवं लोकप्रिय मोर्चे के गठन एवं सुदृढीकरण के लिए सतत प्रयास किया। यह प्रयास उस युद्ध के खिलाफ लक्षित था जिसकी तैयारी जर्मनी, जापान और इटली के फासीवादी शासक कर रहे थे। उन्होंने अथक रूप से सभी देशों के मेहनतकशों का आह्वान किया कि वे अपने देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों के इर्द-गिर्द लामबंद होकर फासीवादी आताताइयों के मार्ग को अवरूद्ध कर दें।
दिमित्रोव ने अन्तर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन में मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी विचारधारा के आधार पर एकता स्थापित करने का महान कार्य किया। उन्होंने आंदोलन में सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के आधार पर एवं सभी देशों की जनता के हितों की रक्षा के सिद्धान्त के आधार पर एकता स्थापित करने के लिए कार्य किया।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने कम्युनिस्टों का राष्ट्रीय मुक्ति फासीवाद विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए आह्वान किया और फासीवादी आक्रामणकारियों को खदेड़ने के उद्देश्य से सभी देशभक्त ताकतों को एकजुट करने के लिए अथक प्रयास किए। उन्होंने बुल्गारिया की मजदूर पार्टी का और सभी देशभक्त बुल्गारियावासियों का जर्मन-फासीवादी आक्रमणकारियों से मोर्चा लेने में नेतृत्व किया।
फासीवाद के खिलाफ उनकी अप्रतिम सेवाओं के लिए उन्हें 1945 में सोवियत संघ की सर्वोच्च सोवियत के अध्यक्ष मण्डल द्वारा ‘आर्डर ऑफ लेनिन’ पुरस्कार दिया गया।
फासीवादी जर्मनी की पराजय के बाद, दिमित्रोव ने बुल्गारियाजनवादी गणराज्य के निर्माण कार्य में नेतृत्व प्रदान किया।
संयुक्त साम्राज्यवाद विरोधी शिविर की एकता के सुदृढी़करण के लिए अथक रूप से काम करते हुए, ज्यार्जी दिमित्रोव ने टीटो के राष्ट्रवादी गुट द्वारा समाजवाद एवं संयुक्त साम्राज्यवाद विरोधी मोर्चे के लक्ष्यों के प्रति गद्दारी को निर्ममतापूर्वक बेनकाब किया।
2 जुलाई, 1949 को पूरी दुनिया के मेहनतकशों ने दिमित्रोव के रूप में एक सशक्त योद्धा को खो दिया, जिसने अपना पूरा महान जीवन मजदूर वर्ग के लक्ष्य की, साम्यवाद के लक्ष्य की सेवा में लगा दिया। यह पूरे अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आंदोलन के लिए स्थायी शांति और जनवाद के सभी योद्धाओं के लिए बड़ी क्षति थी। मजदूर वर्ग की विचारधारा, मजदूर वर्ग के शिक्षक लेनिन की विचारधारा में अपार निष्ठा के साथ अपने बलिदान से दिमित्रोव ने दुनिया भर के मजदूरों और मेहनतकशों के दिलों में अपने लिए प्रेम पैदा किया। 
वीर क्रांतिकारी और फासीवाद विरोधी दिमित्रोव का जीवन शांति, जनवाद और साम्यवाद को समर्पित सभी योद्धाओं के लिए प्रेरणाश्रोत बना रहेगा।
 रीखस्टाग अग्निकाण्ड एवं मुकदमा
27 फरवरी 1933 को जर्मन संसद के निचले सदन रीखस्टाग के भवन में आग लगी। इसके बाद गोएबल्स जो नाजी मंत्री था, के नेतृत्व में जर्मनी में राजा की ओर से आपातकाल लगा दिया गया। अभिव्यक्ति, प्रेस की स्वतंत्रता प्रतिबंधित कर दी गयी। एक ही दिन में शहर के 100 कम्युनिस्टों को गिरफ्तार कर लिया गया।दरअसल इस अग्निकाण्ड का फायदा नाजी सरकार ने अपनी निरंकुशता के मंसूबों को पूरा करने के लिए उठाया। यहूदी और कम्युनिस्ट नाजी सरकार के खास निशाने पर रहे।
21 सितम्बर 1933 को डच अराजकतावादी मैरीनस वानडर लूबे, रीखस्टाग के कम्युनिस्ट नेता अर्न्स्ट टॉर्ग्लर, एवं तीन बुल्गारियाइयों-दिमित्रोव, ब्लागोई पोपोव और वसील तानेव पर मुकदमा शुरू हुआ। इस मुकदमे को शायद ठीक ही सदी का मुकदमा कहा जाता है क्योंकि इसका न्यायालय बीसवीं सदी की सबसे क्रांतिकारी और सबसे प्रतिगामी राजनैतिक शक्तियों के विवाद का मंच बना।
23 दिसम्बर 1933 को हुए मुकदमे के फैसले में वानडर लूबे को फांसी की सजा दी गयी और अन्य चार को छोड़ दिया गया। परन्तु परिणाम से इतर यह मुकदमा इसलिए ऐतिहासिक बना क्योंकि यह जर्मनी की नाजी शक्तियों द्वरा जनता के दमन के लिए रचा गया मुकदमा था। मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था कौमिन्टर्न के प्रयासों से जनवाद पसंद ताकतों ने इस मुकदमे के समानान्तर लंदन में मुकदमा चलाया जिसने जर्मनों के नाजीवादी मंसूबे के मार्ग में सफलतापूर्वक बाधा डाली। 
ज्यार्जी दिमित्रोव और गोएबल्स के रूप में जर्मनी के नाजी न्यायालय में विश्व के क्रांतिकारियों और प्रतिक्रांतिकारियों के सशक्त प्रतिनिधि इस मुकदमे में आमने-सामने थे। कैद की बेड़ियां दिमित्रोव को उनके नजरिए और विचारों से रंचमात्र भी नहीं डिगा सकीं। उन्होंने बड़ी ही बुद्धिमता से और साहस से गोएबल्स और गोएरिंग के कुत्सा प्रचार और साजिशों को सारी दुनिया के सम्मुख बेनकाब किया। उन्होंने बड़े ही शांत और स्थिर चित्त  के साथ अपनी वकालत स्वयं की एवं हर उपलब्ध अवसर पर फर्जी गवाहों से सवाल कर उन्हें रद्द किया और नाजीवाद के खिलाफ मजदूर वर्ग के शांति, जनवाद और शोषण विहीन समाज के संदेश को पूरी दुनिया तक पहुंचाया। 
न्यायधीशों और न्यायालय का स्पष्ट पक्षपात भी कातिलों की कैद भी दिमित्रोव को ऐसा करने से रोक नहीं पायी।


पैनी दृष्टि और दृढ़ पक्षधरता वाले फ्रांज मेहरिंग
फ्रांज मेहरिंग जर्मनी के मजदूर क्रांतिकारी थे। उन्होंने अपना जीवन मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन यानी शोषण विहीन, वर्ग विहीन समाज की स्थापना के लिए समर्पित किया। जिन बातों के लिए उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर और क्रांतिकारी आंदोलन द्वारा हमेशा याद किया जाता रहेगा, उनमें से एक प्रथम विश्व युद्ध की उनके द्वारा की गई मुखालफत है। 1914 में साम्राज्यवादियों द्वारा अपनी लूट को पूरी दुनिया में फैलाने की और अन्य साम्राज्यवादियों के लूट के चरागाहों (विभिन्न गुलाम देशों) को छीन लेने की मंशा के साथ प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ था। हर देश के पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अपने देश की मजदूर-किसान जनता को देशभक्ति का हवाला देकर युद्ध में झोंकर युद्ध में अपनी विजय सुनिश्चित करने में जुटे थे। अपने सैनिकों को युद्ध की कभी न बुझने वाली आग में झोंककर वे अपने बाजार का विस्तार और कच्चे माल के स्रोतों का विस्तार करना चाहते थे। फ्रांज मेहरिंग दुनिया के और अंतर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी आन्दोलन के उन चुनिंदा शख्सों में से एक थे जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध का सक्रिय विरोध किया था। उन्होंने रोजा लक्जमबर्ग, क्लारा जेटिकन और कार्ल लीब्नेख्त जैसे अपने साथियों के साथ जर्मनी द्वारा विश्वयुद्ध में भागीदारी की मुखालफत का साहसिक कार्य किया था, जबकि अपने को क्रांतिकारी और मजदूर वर्ग का सेवक मानने वाली तमाम पार्टियों के अधिकांश नेताओं ने विश्वयुद्ध में साम्राज्यवादी शासकों के सामने घुटने टेक दिये थे और अपने देश की पूंजीवादी सरकारों का युद्ध में साथ देने में जुट गये थे। 
1946 में पोलैण्ड की जर्मन सीमा के पास जन्मे मेहरिंग को एक कुशल और जानकार पत्रकार, साहित्य आलोचक, इतिहासकार और सर्वाधिक मजदूर वर्ग के एक अडिग साहसी नेता के रूप में याद किया जायेगा। 
मेहरिंग अपनी पृष्ठभूमि से मजदूर नहीं थे। पर एक ईमानदार और क्रांतिकारी पत्रकार के रूप में उन्होंने उत्कृष्ट कार्य किया और पत्रकारिता के पेशे के साथ उन्होंने जर्मनी की राजनीति, इतिहास, विचारधाराओं के चरित्र, जर्मन समाज के साथ-साथ विश्व की सामाजिक स्थिति एवं राजनीतिक संघर्षों की स्पष्ट समझदारी ही उन्हें आखिरकार वामपंथी राजनीति की ओर अर्थात् शोषक वर्गों  के खिलाफ शोषितों की राजनीति की ओर ले गयी। जब मेहरिंग 1891 में जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी में शामिल हुए तो वे 45 वर्ष की परिपक्व आयु को प्राप्त कर चुके थे। 
जर्मनी मार्क्स-एंगेल्स का देश था, हीगेल का देश था। 19वीं सदी में जर्मन मजदूर वर्ग और क्रांतिकारी समुदाय सैद्धान्तिक दार्शनिक मामलों में स्पष्टता और गहरी समझदारी के लिए जाने जाते थे। इन मामलों में ये यूरोप के अन्य देशों के मजदूर वर्ग एवं उनके क्रांतिकारी नेतृत्व से अग्रणी के रूप में स्थापित थे। इन परिस्थितियों में फ्रांज मेहरिंग जैसे स्तरीय पत्रकार जो जर्मन संसद रीखस्टाग की रिपोर्टिग के लिए अपनी अलग पहचान बना चुके थे, के लिए यह लाजिमी था कि वे सामाजिक जनवादी राजनीति की ओर आकृष्ट हों। और जब वे सामाजिक जनवादी पार्टी में शामिल हुए तो शीघ्र ही अपनी स्पष्ट समझदारी और व्यापक ज्ञान के बल पर जर्मन सामाजिक जनवाद के लिए काफी महत्वपूर्ण साबित हुए। उन्होंने लाजिमी तौर पर सामाजिक जनवादी पार्टी के वाम पक्ष की कमान संभाली। वे पार्टी के मुखपत्र के संपादन में मुख्य भूमिका निभाते रहे। जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी में नीत्शे के विचारों के प्रभाव को अपने मार्क्सवादी विश्लेषणों से प्रतिस्थापित करने में मेहरिंग ने महत्वपूर्ण एवं नेतृत्वकारी भूमिका निभायी। सामाजिक जनवादी पार्टी के वामपक्ष के सुदृढी़करण में इन विविध रूपों में फ्रांज मेहरिंग की महत्वपूर्ण भूमिका रही। पार्टी का यही वामपक्ष था जिसने प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ होने पर युद्ध का क्रांतिकारी प्रतिरोध किया था। 
जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी में शामिल होने से पूर्व एक पत्रकार के रूप में भी फ्रांज मेहरिंग जनपक्षधर पत्रकार थे। वे अल्पकाल के लिए फर्दीनांद लासाल की सामान्य जर्मन मजदूर यूनियन से भी संबद्ध रहे। आम जन के प्रति पक्षधरता उनके लेखन, संपादन, में हमेशा रही। अपने विचारो और जनपक्षधरता से समझौता करने के मौकों पर उन्होंने संबंधित अखबारों से संबंध विच्छेद की कीमत पर भी अपने विचारों की धार को कमजोर नहीं पड़ने दिया। 
फ्रांज मेहरिंग सामाजिक जनवादी पार्टी में पूंजीवादी विचारों की आलोचना में कोई मुरव्वत या नरमी नहीं बरतते थे। ऐसी आलोचना मजदूर वर्ग की विचारधारा की गहरी समझदारी और मजदूर वर्ग की अडिग पक्षधरता के दम पर ही संभव थी। 
प्रथम विश्व युद्ध के पहले दुनिया की मजदूर पार्टियों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन ‘द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय’ के नाम से जाना जाता था। 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध के प्रारंभ होने से कई वर्ष पहले से ‘द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय’ की बैठकों में युद्ध की प्रबल संभावना , युद्ध का कारण, उसका उद्देश्य, उसके प्रभावों-परिणामों पर चर्चा होती थी। एक मत से ये बातें पारित की जाती थी कि साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच दुनिया के बाजारों के बंटवारे को लेकर कोई सहमति नहीं बन पा रही हैं। सभी साम्राज्वादी देश मजदूरों-मेहनतकशों की लूट में अधिक से अधिक हिस्सा चाहते हैं। इसको लेकर बढ़ता तनाव साम्राज्यवादियों के बीच युद्ध विश्व युद्ध तक जाएगा। इस विश्व युद्ध में तमाम साम्राज्यवादी-पूंजीवादी देश अपने देश की जनता को युद्ध में झोंककर अपनी विजय और लूट में अपना बढ़ा हुआ हिस्सा सुनिश्चित करना चाहेंगे। यह युद्ध अपार जन-धन की हानि साथ लेकर आएगा ऐसे में सभी देशों के क्रांतिकारियों को इस विश्व युद्ध के खिलाफ खड़े होते हुए इस युद्ध को अपने-अपने देशों के गृहयुद्ध में बदल देना होगा। ऐसा करने पर यह विश्व युद्ध क्रांतियों को जन्म देगा जिससे मानवता नये युग में प्रवेश कर जायेगी। इन बातों पर सभी देशों के सामाजिक जनवादियों, मजदूर वर्ग के नेताओं की सहमति थी। बार-बार सहमति थी। सालों दर साल यह सहमति बनी रही।
परंतु विश्व युद्ध के छिड़ते ही पूंजीवादी साम्राज्यवादी शासकों ने अपने-अपने देशों को युद्ध के लिए लामबंद किया। जनवादी नागरिक अधिकारों के बरखिलाफ आपातकालीन अध्यादेश जारी हुए। रूस के बोल्शेविकों के अलावा सभी देशों के मजदूर वर्ग के अधिकांश नामी गिरामी नेताओं ने अपनी पूंजीवादी सरकारों के समक्ष आत्मसमर्पण करते हुए ‘पितृभूमि की रक्षा’ का नारा लगाया। इसके साथ ही द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय का पतन हो गया। 
अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग के आंदोलन के इतिहास का एक बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण और दुःखद घटनाक्रम द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय के तमाम भागीदारों का अपने देश के शासकों का समर्थन करना और इस प्रकार क्रांतिकारी मार्ग को छोड़कर द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय को पतित-विखण्डित करना रहा है। रूस के क्रांतिकारी नेता लेनिन ने इस घटनाक्रम की गहराई से जांच पड़ताल की। उन्होंने बताया कि कैसे यूरोप के तमाम देशों के मजदूर नेताओं द्वारा अपने को मात्र कानूनी दायरे की सांगठनिक कार्यवाहियों में समेट लेना भी द्वितीय अंतर्राष्ट्रीय के पतन का कारण बना था। जर्मनी भी इसमें अपवाद नहीं था। जर्मनी की सामाजिक-जनवादी पार्टी भी तब तक के जाने माने मार्क्सवादी कार्ल काउत्स्की के नेतृत्व में ‘पितृभूमि की रक्षा’ का नारा लगाने लगी। 
परंतु रूस के क्रांतिकारियों ने विश्व युद्ध को जारशाही के खिलाफ जनता को गोलबंद करने के अवसर के रूप में इस्तेमाल किया। और ज्यों-ज्यों जार रूसी नौजवानों को सेना में झोंकता रहा, वैसे-वैसे बोल्शेविकों का प्रचार प्रभावी होता गया। अंततः बोल्शेविकों के नेतृत्व में रूस के मजदूरों ने 1917 में क्रांति को अंजाम दिया और मजदूरों का ऐतिहासिक सोवियत समाज स्थापित किया। 
जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी के एक हिस्से ने बोल्शेविक रास्ते का अनुसरण किया और युद्ध में जर्मनी की भागीदारी की मुखालफत की। कार्ल लीब्नेख्त, क्लारा जेटकिन, रोजा लक्जमबर्ग के साथ-साथ फ्रांज मेहरिंग इस हिस्से के प्रतिनिधि थे। 1916 में इन सभी ने विश्वयुद्ध के असली चरित्र को उजागर करते हुए युद्ध की मुखालफत के लिए स्पार्टकस लीग बनायी। 
प्रथम विश्वयुद्ध ने यूरोप और पूरी दुनिया में क्रांतिकारियों की अग्निपरीक्षा का काम किया। बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में दुनियाभर के क्रांतिकारियों के जो धड़े इस अग्निपरीक्षा में खरे उतरे(जिन्होंने विश्वयुद्ध के खिलाफ प्रतिरोध संगठित किया।) उन्होंने विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद स्वयं को कम्युनिस्ट पार्टियों में संगठित किया (इन पार्टियों ने रूस की बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में तीसरा अन्तर्राष्ट्रीय या कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल या कोमिण्टर्न बनाया)। जनवरी 1919 में फ्रांज मेहरिंग, कार्ल लीब्नेख्त, व रोजा लक्जमबर्ग ने जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की।
जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के तुरंत बाद ही 73 वर्ष की आयु में फ्रांज मेहरिंग की मृत्यु हो गयी। मजदूर वर्ग की विचारधारा की दुनिया में  विजय और पहले प्रयोगों के गवाह रहे फ्रांज मेहरिंग ने जीवन पर्यन्त आगे बढ़कर मजदूर वर्ग के हितों और मुक्ति के पक्ष में क्रांतिकारी अवस्थिति को चुना। 
जर्मन सामाजिक-जनवाद के इतिहास, जर्मन राज्य के विकास, कार्ल मार्क्स की जीवनी संबंधी कृतियों के रूप में  अपनी विलक्षण प्रतिभा की धरोहर मेहरिंग दुनिया के क्रांतिकारियों के लिए छोड़ गए। साथ ही मजदूर वर्ग के ऐतिहासिक मिशन-मजदूर वर्ग के राज्य की स्थापना और कम्युनिज्म की स्थापना के लिए संघर्षों की प्रेरणा भी।

विलियम जेड् फोस्टर: साम्राज्यवाद के गढ़ में श्रमिक प्रतिरोध के प्रतीक


विलियम जेबुलोन फोस्टर अथवा विलियम जेड् फोस्टर को  मजदूर वर्ग के एक ऐसे नेता के रूप में जाना जाता है जिन्होंने साम्राज्यवाद के गढ़ संयुक्त राज्य अमेरिका में क्रांतिकारी मजदूर आन्दोलन का परचम बुलंद रखा तथा समाजवाद की चुनौती को मजबूती से प्रस्तुत किया। वे अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी से शुरुआती दौर में ही जुड़ गए  तथा इसके नेतृत्व तक पहुंचे । उन्होंने विषम परिस्थितियों में पार्टी को नेतृत्व प्रदान किया तथा क्रांतिकारी सिद्धांतों की रक्षा की। 
विलियम जेड् फोस्टर का जन्म संयुक्त राज्य अमेरिका के मैसाचुसेट्स स्थित टाँटन में 25 फरवरी 1881 को एक अप्रवासी यूरोपीय मजदूर परिवार में हुआ था। उनका परिवार बाद में फिलाडेल्फिया में आकर बस गया था। विलियम ने बचपन से ही बेहद गरीबी तंगहाली का जीवन देखा। दस वर्ष की अवस्था में उन्हें स्कूल छोड़कर काम की तलाश में भटकना पड़ा। पहले उन्होंने फिलाडेल्फिया में ही प्रशिक्षु (अप्रेंटिस) के बतौर डाई सिंकर का काम सीखा। इसके तीन वर्ष बाद उन्होंने एक सफेद शीशा फैक्ट्री में काम किया। तत्पश्चात उन्होंने पेंसिल्वेनिया जैक्सनविले, फ्लोरिडा तथा रीडिंग में रासायनिक खाद के कारखानों में तथा बाद में रेल पथ श्रमिक के रूप में फ्लोरिडा में एक कार मिस्त्री के रूप में न्यूयार्क, काष्ठ मजदूर के रूप में पोर्टलैंड तथा नाविक के रूप में ओरेगॉन में काम किया।
इसके अलावा उन्होंने 1905 तक अनेक छोटे मोटे काम किये जिनमें खदान मजदूरी,भेड़ चराने, आरा मिल (सांमिल) में मजदूरी आदि काम शामिल हैं। इस तरह विलियम फोस्टर विशुद्ध मजदूर पृष्ठभूमि से पैदा हुए मजदूर नेता थे जिन्होंने मजदूर वर्ग की कठिन जिंदगी को ने केवल देखा था बल्कि भोगा भी था। इस बात न इनकी तीक्ष्ण वर्ग चेतना को निर्मित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।
विलियम जेड फोस्टर 1901 में अमेरिका की समाजवादी पार्टी (सोशलिस्ट पार्टी ऑफ यू.एस.ए.) से जुड़ गए। उन्हें 1909 में पार्टी के आंतरिक संकट के दौरान अतिवामपंथी धड़े का सहयोगी होने के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया। इसके बाद फोस्टर इंडस्ट्रियल वर्कर्स ऑफ दि वर्ल्ड (आई.डब्ल्यू.डब्ल्यू.) नामक यूनियन से जुड़ गए। 
फोस्टर शीघ्र ही एक लोकप्रिय मजदूर नेता के रूप में जाने जाने लगे। उन्होंने1911 में बुडापेस्ट (हंगरी) में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय श्रम सम्मेलन में भी भागीदारी की। उन्होंने 1910और 1911 में अनेक यूरोपीय देशों की यात्रा की। उनका झुकाव इस दौर में संघाधिपत्यवाद (सिंडिकेटलिज्म) की ओर हो गया था। उन्होंने ‘इंडस्ट्रियल वर्कर्स ऑफ दि वर्ल्ड’ (आई.डब्ल्यू.डब्ल्यू.) की स्थापित यूनियनों के भीतर काम न करने की नीति की आलोचना की। उन्होंने अमेरिकी वामपंथियों से अपील की कि वे स्थापित  ट्रेड यूनियन अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर (ए.एफ.एल.) के भीतर घुसकर काम करें न कि प्रतिद्वंदी यूनियनें खड़ी करें जैसा कि आई.डब्ल्यू.डब्ल्यू. प्रयास कर रही थी। उन्होंने चुनावी राजनीति को यह कहकर खारिज कर दिया कि यह कार्यनीति वामपंथी ग्रुपों की ऊर्जा को तमाम तरह के समझौते करने के साथ साथ महज दफ्तरी कामकाज में खपाकर उनकी क्रांतिकारिता का क्षरण करती है। आई.डब्ल्यू.डब्ल्यू. में फोस्टर द्वारा उठाई गयी बहस पराजित हो गयी। इसके बाद फोस्टर ने स्वयं अपना एक ग्रुप संगठित किया जिसे उन्होंने सिंडिकेटलिस्ट लीग ऑफ नॉर्थ अमेरिका (एस.एल.एन.ए.) नाम दिया। 
एस.एल.एन.ए. के कामों का मुख्य जोर कार्यस्थल पर प्रत्यक्ष कार्यवाहियां तथा सामूहिक संस्थाओं (सोसाइटियों) के माध्यम से श्रमिकों की प्रशासनिक भागीदारी (गवर्नेन्स) सुनिश्चित करना था। इसमें भी वह किसी न्यूनतम नौकरशाही तंत्र की उपस्थिति के खिलाफ थे। इस तरह उनके विचारों में संघाधिपत्यवाद के साथ-साथ अराजकतावाद की प्रवृत्तियां भी उस दौर में शामिल रही थीं। यह अनायास नहीं था। उस दौर में फोस्टर न केवल अराजकतावादियों की सभाओं में भाषण देते थे बल्कि शिकागो लेबर मूवमेन्ट के प्रख्यात अराजकतावादी नेता जे. फॉक्स के सहयोगी थे।
उनका विवाह एस्टर एब्रामोवित्ज से हुआ था जो वाशिंगटन में अराजकतावादियों द्वारा स्थापित एक  सहकारी समिति से जुड़ी थीं।
 इस दौर में एस.एल.एन.ए. से जुड़े अन्य प्रमुख लोगों में शामिल थे टॉम मूनी, जिनपर 1916 में प्रिपेयर्डनेस डे की परेड में बम फेंकने का आरोप था और जो जेल के भीतर शहीद हो गये थे, अर्ल ब्राउडर जो कि कंसास शहर में यूनियन कार्यकर्ता थे तथा पेशे से लेखाकार थे और जेम्स पी.केनन जो कि आई.डब्ल्यू.डब्ल्यू.के सदस्य थे तथा बाद में कम्युनिस्ट पार्टी में फोस्टर के निकट सहयोगी रहे।
लेकिन एस.एल.एन.ए. कभी प्रभावी शक्ति नहीं बन पायी तथा 1914 में उसे खत्म कर दिया गया। 
फोस्टर मजदूरों के बीच सक्रिय रहे। उन्होंने शिकागो के रेलवे बोगी के मजदूरों की ब्रदरहुड शाखा के यूनियन बिजनेस एजेन्ट के बतौर काम करना शुरू किया तथा इंटरनेशनल ट्रेड यूनियन एजूकेशनल लीग (टी.यु.ई.एल.) के माध्यम से अपना ट्रेड यूनियन का काम जारी रखा। वे 1915 में ए.एफ.एल. के संगठनकर्ता बन गए। इस  दौर में संघाधिपत्यवाद व अराजकतावाद से प्रभावित होने के चलते फोस्टर ने अपेक्षाकृत समझौतावादी रुख अपना लिया था। वे ट्रेड यूनियनों को ही सर्वोपरि मानने लगे थे। वे ट्रेड यूनियनों से अलग किसी भी तरह के संघर्ष के विरोधी हो गये थे। उन्होंने ट्रेड यूनियनों के रूढ़िवादी नेतृत्व की आलोचना करने से परहेज किया । उनके लिए पूंजीवाद खत्म करने के लिए मजदूरों का संगठित होना ही सर्वोपरि था। मजदूर वर्ग की एकता खंडित होने के भय से उन्होंने अमेरिका के प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल होने की सार्वजनिक निंदा नहीं की और उन्होंने 1918 में युद्ध बांडों की बिक्री में सहायता की। इसी दौर में उन्होंने सैंकड़ों आई. डब्लू. डब्लू. कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का भी विरोध नहीं किया। क्योंकि उनकी नजर में आई. डब्लू. डब्लू. मजदूर वर्ग की व्यापक एकता में बाधक था। 
लेकिन इस दौर में फोस्टर राजनीतिक तौर पर निष्क्रिय नहीं थे। इसी समय उन्होंने जॉन फिट्जपैट्रिक के साथ ‘शिकागो फेडरेशन ऑफ लेबर’ में काम किया। यह संगठन कई राजनीतिक उद्देश्यों को लेकर बना था जिनमें टॉम मूनी की रिहाई, श्रमिक पार्टी की स्थापना के लिए प्रचार तथा शहर के पैकिंग हाउसेज, स्टील मिल तथा अन्य व्यापक उत्पादक फैक्टरियों के हजारों अकुशल मजदूरों को संगठित करने जैसे कार्यभार शामिल थे। 
1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो गया। युद्ध शुरू होने के साथ ही मांस की मांग में भारी वृद्धि हो गयी। पैकेजिंग हाउस में मांस को डिब्बाबंद कर निर्यात  किया जाता था। इससे पूर्व 1870 और 1880 के दशक में ‘नाइट ऑफ लेबर’ ने पैकेजिंग मजदूरों को संगठित करने के प्रयास किये थे। इसी दौर में ‘अमेलगेटेड कटर्स और बूचर्स वर्कसमैन’ ने अलग-अलग नृजातीय समूहों को 20वीं शताब्दी  के पहले दशक में संगठित करने का प्रयास किया था। लेकिन विशाल ताकतवर निगमों ने सभी यूनियनों को कुचल दिया था। 
विश्व युद्ध के दौर में मांस की मांग बढ़ने के साथ-साथ श्रम की आपूर्ति में कमी दर्ज की गयी क्योंकि युद्ध परिस्थितियों के चलते अप्रवासी मजदूरों की संख्या में गिरावट आ गयी थी।संघीय सरकार उत्पादन में किसी तरह की गिरावट नहीं चाहती थी तथा हड़तालों से भयभीत थी। मजदूरों को  संगठित करने के लिहाज से यह समय उपर्युक्त था। लेकिन अन्य यूनियनों से इस मामले में प्रतिस्पर्धा भी थी। ऐसे में फोस्टर ने समझदारी से काम लेते हुए सभी यूनियनों का एक बड़ा संघ स्टॉकयार्ड  लेबर काउन्सिल (सी.एल.सी.) के नाम से गठित करने का प्रस्ताव रखा तथा अपने संगठन सी.एफ.एल. से इसे अनुमोदित करवा लिया। प्रयोग सफल रहा। एक सप्ताह बाद स्टॉकयार्ड लेबर काउन्सिल अस्तित्व में आ गयी। इसमें सभी विभागों के मजदूर शामिल थे। मसलन मशीनिस्ट, इलैक्ट्रीशियन, कारपेन्टर, कूपर्स, ऑफिस वर्कर्स, स्टीम फिटर्स, इंजीनियर, रेलवे कारमैन, और फायर मैन। हालांकि सी.एल.सी. को एक मात्र इकाई के रूप में समझौता करने का हक नहीं था फिर भी मजदूरों को व्यापक मात्रा में गोलबंद करने का यह एक अच्छा प्रयास था। फोस्टर इस काउन्सिल के सचिव चुने गए।
व्यापक एकता मजदूर वर्ग के लिए काफी लाभदायक रही। इसी दौरान 8 घंटे के कार्य दिवस, ओवरटाईम भुगतान व मजदूरी में वृद्धि हुई। मांस पैकेजिंग उद्योग की अमेलगेटेड वर्कर्स यूनियन की संख्या में दुगुनी वृद्धि हुई। 
इसी प्रकार 1914 में उन्होंने अपना ध्यान इस्पात (स्टील) उद्योग के मजदूरों को संगठित करने पर लगाया। यहां मजदूरों के बीच कुशल-अकुशल देशी-विदेशी का बडा भेद था। मोनेन्गेहेला घाटी में इस्पात उद्योग केन्द्रित था। फोस्टर ने इस्पात मजदूरों को संगठित करने के लिए संगठनकर्ता भेजे। इस्पात उद्योग मजदूरों को संगठित करने वाली एक राष्ट्रीय कमेटी गठित हुई जिसने 1919 तक 1लाख मजदूरों क हस्ताक्षर ले लिए थे। 22 सितंबर 1919 को 250,000 इस्पात मजदूर एक सर्वसम्मत फैसले के तहत हड़ताल पर चले गए। शासन द्वारा इस हड़ताल का क्रूरता पूर्वक दमन किया गया 14 मजदूर पुलिस गोलीबारी में मारे गए। फोस्टर इस दौरान मजदूरों के लिए धन व राहत सामग्री इकट्ठा करने में लगे रहे। यह हड़ताल असफल रही।जनवरी 1920 को मजदूरों के मतदान द्वारा हड़ताल वापस ले ली गयी। फोस्टर ने मजदूरों को नए सिरे से संगठित करने के उद्देश्य से कमेटी से इस्तीफा दे दिया। 
1919 में अमेरिका की समाजवादी पार्टी में हुई फूट के बाद अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी अस्तित्व में आयी। कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने संकीर्णतावादी रुख के चलते फोस्टर को वर्ग सहयोगी तथा अवसरवादी घोषित किया। ऐसा उसने फोस्टर द्वारा अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर (ए.फ.एल.) के साथ उनके सहयोग के कारण किया, लेकिन अल ब्राउडर ने उन्हें 1921 में रेड इंटरनेशनल ऑफ लेबर यूनियंस (प्रोफिंटर्न) की बैठक में शामिल होने के लिए बुलावा भेजा। बैठक में उन्हें अमेरिका में प्रोफिंटर्न का एजेन्ट नियुक्त किया गया। उनका मजदूर संगठन ट्रेड यूनियंस एजूकेशन लीग (टी.यू.ई.एल.) कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.यू.एस.ए.) से जुड़ गया। अमेरिका लौटने के बाद फास्टर कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.यू.एस.ए.) में भर्ती हो गये। 
टी.यू..ई.एल ने इस बीच मजदूरों में काफी लोकप्रियता हासिल की। शिकागो में यह संगठन सबसे मजबूत था। 1922 में रेलवे शॉपमैनों की एक हड़ताल हुई जिसे मालिकों ने ओछे  हथकंडे अपनाकर कुचल दिया। टी.यू.इ.एल. ने यूनाइटेड माइन वर्कर्स ऑफ अमेरिका को राजनीतिक रूप से प्रभावित करना शुरू किया। लेकिन इसके नेतृत्व ने यूनियन के बगावती तत्वों की छंटनी कर इस प्रयास को असफल कर दिया। हालांकि 1927 के कोयला मजदूरों की हड़ताल के दौरान इस यूनियन से निकाले गये टी.यू.ई.एल. के प्रभाव वाले मजदूरों ने जी जान से मजदूरों के लिए हड़ताल को आगे बढ़ाने में सफलता प्राप्त की। सी.पी.यू.एस.ए.ने 1928 में ‘नेशनल माइनर यूनियन’ का गठन कर खदान मजदूरों को स्वतंत्र रूप से संगठित किया।
1927 में सी.ई. रूथेनवर्ग की मृत्यु के बाद जे. लवस्टोन अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव बने। इसी बीच सोवियत संघ में ट्राट्स्की को सोवियत सत्ता  के खिलाफ षड़्यंत्र रचने व सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी को ध्वस्त करने की कार्यवाही में संलिप्तता के चलते पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। सी.पी.यू.एस.ए. में फोस्टर के निकट सहयोगी पी.कैनन जैसे लोग ट्राट्स्की से सहानुभूति रखते थे। फोस्टर ने ट्राट्स्कीपंथी भटकाव के खिलाफ पार्टी में संघर्ष किया तथा पी.कैनन के निष्कासन का समर्थन किया। 
1928 में बुखारिन ने जब कुलकों का समर्थन करते हुए कृषि के सामूहिकीकरण अभियान का विरोध किया तथा पार्टी में तोड़ फोड़ की कोशिशें की तो स्तालिन के नेतृत्व में बुखारिन के खिलाफ सधर्ष चला। अमरीका की कम्युनिस्ट पार्टी में जे.लवस्टोन जैसे नेता भी बुखारिन के प्रति नरम रुख रखते थे। फोस्टर के नेतृत्व में जे.लवस्टोन के खिलाफ संघर्ष चला।जे.लवस्टोन को कोमिंटर्न की सलाह पर सचिव पद से हटा दिया गया तथा फोस्टर अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव बन गये। 
कोमिंटर्न ने सी.पी.यू.एस.ए. को ए.एफ.एल. से बाहर नई क्रांतिकारी ट्रेड यूनियनें खड़ी करने की सलाह दी। हालांकि फोस्टर बैध यूनियनवाद के खिलाफ थे लेकिन उन्होंने कोमिंटर्न के निर्देश को पूरी ईमानदारी से लागू किया।
फोस्टर ने समाजिक जनवादी तत्वों को सामाजिक फासिस्ट के रूप में आलोचना की।
1928में फोस्टर और मार्शल शेरअर ने एफ.ए.ई.सी.टी. का गठन किया जिसने आर्किटेक्टों, इंजीनियरों कैमिस्टों तथा तकनीशियनों को पार्टी के एक गुप्त तंत्र के रूप में संगठित करना शुरू किया ताकि विभिन्न तबकों- वर्गों में घुसपैठ की जा सके। 
विलियम जेड. फोस्टर कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर 1924,1928 तथा 1932 में राष्ट्रपति पद के चुनाव में खड़े हुए। 1930 में वे न्यूयार्क के गवरर्नर पद के लिए भी चुनाव लड़े। 1932 में फोस्टर को दिल का दौरा पड़ा। वे अल ब्राउडर को नेतृत्व सौंपकर इलाज के लिए मास्को चले गये। 
1935 में फोस्टर वापस अमेरिका लौटे। उनकी अनुपस्थिति में अल ब्राउडर ने कम्युनिस्ट पार्टी को संशोधनवादी रास्ते पर धकेलना शुरू कर दिया था। पार्टी ने रूजवेल्ट के ‘न्यू डील के कल्याणकारी नुस्खों का स्वागत किया तथा एक हद तक वह रूजवेल्ट शासन का समर्थन करने लगी थी। पार्टी में अल ब्राउडर के ईर्द गिर्द एक आभामंडल (Personality cult) निर्मित करना शुरू कर दिया गया था। ट्रेड  यूनियन मोर्चे पर जिन इलाकों व क्षेत्रों में पर्टी का मजबूत आधार या वहां अब पकड़ काफी कमजोर हो गयी थी। फोस्टर ने इन सब रुझानों का विरोध किया ताकि वे पार्टी में एक वफादार विपक्ष की भूमिका निभाने लगे। उन्होंने पार्टी के भीतर विश्व सर्वहारा के नेता  स्तालिन की रक्षा की।
1944 में अल ब्राउडर ने अमरीका की कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.यू.एस.ए.) का नाम बदलकर कम्युनिस्ट राजनीतिक संगठन करने की पेशकश की। इसी के साथ उसने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पार्टी द्वारा हड़ताल न करने की प्रतिज्ञा को जारी रखा। फोस्टर ने अल ब्राउडर की इन नीतियों की कड़ी आलोचना की। 
लेकिन अल ब्राउडर के कदम यही नहीं थमे। उसने 1945 में अमेरिका की कम्युनिस्ट पार्टी का विलोप करने का प्रयास किया। फोस्टर ने इसका तीखा प्रतिवाद किया तथा अल ब्राउडर को पार्टी से निकाल दिया गया।   1948में फोस्टर ने कुख्यात स्मिथ एक्ट का कड़ा विरोध किया। इस एक्ट के तहत कई कम्युनिस्ट पार्टी की पहली कतार के नेताओं को गिरफ्तार करने का आदेश दिया। खराब स्वास्थ्य के चलते फोस्टर की गिरफ्तारी नहीं हो सकी। कम्युनिस्ट पार्टी के नेता भूमिगत होने के लिए मजबूर हो गये। 
1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद ख्रुश्चेव सत्ता पर आसीन हो गया। 1956 में सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20 वीं कांग्रेस में उसने स्तालिन पर कीचड़ उछाला। दुनिया भर के कम्युनिस्टों के लिये यह बहुत भ्रम की स्थिति थी। खुश्चेव का संशोधनवादी चेहरा तब तक बेनकाब नहीं हुआ था। इन्हीं परिस्थितियों में भ्रमवश विलियम फोस्टर ने ख्रुश्चेव की प्रशंसा की। शायद वह कुछ समय और जीवित रहते तो खु्रश्चेव का संशोधनवादी चेहरा पहचान लेते। 
सन् 1961 में मास्को में विलियम फोस्टर का निधन हो गया। 

मजदूर वर्ग के पूंजीवाद को उसके गढ़ में चुनौती देने वाले एक सर्वहारा योद्ध के रूप में विलियम फोस्टर को हमेशा याद  रखेगा

विल्हेम लिब्नेख्त-सर्वहारा वर्ग के योद्धा व शिक्षक
मजदूर वर्ग के योद्धाओं और प्रारंभिक शिक्षकों में विल्हेम लिब्नेख्त का नाम अग्रणी है। विल्हेम लिब्नेख्त ताउम्र मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए, मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आन्दोलन को आगे बढ़ाने के लिए, सामंती निरंकुशता के खिलाफ जनवाद के लिए संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिए संघर्षरत रहे। वे मजदूर वर्ग के उन प्रारंभिक शिक्षकों में से एक थे जिन्होंने काल्पनिक समाजवाद, मानवतावाद की जगह मजदूर आन्दोलन को वैज्ञानिक समाजवाद अथवा मार्क्सवाद की जमीन पर खड़ा करने में अहम भूमिका निभायी। मजदूर वर्ग को उदार प्रगतिशील बुर्जुआ वर्ग के प्रभाव से मुक्त कराकर एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में खड़ा करने के लिए वे जीवन भर संघर्षरत रहे। उनका पूरा जीवन तूफानी संघर्षों में बीता। जेल, निर्वासन, मौत की उन्होंने परवाह नहीं की। मजदूर वर्ग के लिए उनका जीवन और कृतित्व हमेशा प्रेरणा स्रोत बने रहेंगे।
विल्हेम लिब्नेख्त का जन्म 29 मार्च 1826 को जर्मनी अथवा तत्कालीन प्रशिया के गीसेन में हुआ था। उनके पिता लुडविग क्रिश्चन लिब्नेख्त एक सरकारी मुलाजिम थे। 1832 में, जब विल्हेम अभी बालक ही थे, उनके मां-बाप गुजर गए। लिब्नेख्त का पालन पोषण उनके रिश्तेदारों ने किया। उनकी प्रारंभिक शिक्षा उनके गृहनगर में ही एक जिमखाने (जिम्नैजियम) में हुई। आगे उच्च शिक्षा उन्होंने गीसेन, बॉन और माबर्ग विश्वविद्यालयों में ग्रहण की। भाषा विज्ञान, धर्म शास्त्र (theology) और दर्शन उनके विषय रहे।
स्कूल छोड़ने से पहले ही लिब्नेख्त राजनीति की ओर आकृष्ट हो चुके थे। उस समय जर्मनी में राजनीतिक असंतोष लगातार बढ़ता जा रहा था। लिब्नेख्त अपने स्कूली जीवन में ही काल्पनिक समाजवादी सेंट साइमन की रचनाओं का अध्ययन कर चुके थे। सेंट साइमन की रचनाओं के कारण ही उनका साम्यवाद की ओर आकर्षण हुआ। ये उस दौर में जर्मनी में चल रहे गणतंत्रवादी आंदोलन से भी प्रभावित थे।
अपने जनवादी विचारों के चलते विल्हेम शीघ्र ही सरकारी कोप की चपेट में आ गये। उन्हें राजद्रोह जैसे संगीन जुर्म में बंदी बनाये गये पोलिस लोगों के प्रति मजबूत सहानुभूति दर्शाने के लिए बर्लिन से निष्कासित कर दिया गया। लिब्नेख्त ने अमेरिका में प्रवास करने की योजना बनाई लेकिन वे स्विटजरलैंड पहुंच गए। स्विटजरलैंड में अध्यापन कार्य करके उन्होंने अपनी आजीविका चलाई। विल्हेम को रोजगार करके सामान्य जीवन जीना भला कब मंजूर था? वे तो सामंती निरंकुशता व पूंजीवाद के खिलाफ संघर्ष को ही अपनी जिंदगी का मकसद बना चुके थे। 1848 में जैसे ही फ्रांस में क्रांति की लहर उठी विल्हेम बिना विलंब किए पेरिस पहुंच गए।  उन्होंने फ्रांस में जनतंत्रवादियों की मदद से एक गणतंत्रवादी सेना संगठित कर जर्मनी की राजशाही को उखाड़ फेंकने की योजना बनायी। लेकिन फ्रांसीसी सरकार द्वारा हस्तक्षेप कर उनका यह प्रयास विफल कर दिया गया। विल्हेम ने हार नहीं मानी। गुस्ताव वान स्त्रूवे की मदद से उन्होंने स्विटजरलैंड में एक गणतंत्रवादी स्वंयसेवक ग्रुप तैयार किया तथा राइन नदी को पार कर जर्मनी पहुंच गए और बाडेन में एक गणतंत्र की घोषणा कर दी। उनका यह प्रयास भी असफल हुआ। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तथा आठ माह के कारावास के बाद मुकदमे के लिए पेश किया गया। 
सौभाग्यवश इसी समय जर्मनी में क्रांति की एक लहर उठ रही थी। क्रांतिकारी जनता ने अदालत पर हमला कर उन्हें मुक्त करा लिया। कुछ समय के लिए क्रांतिकारी जनता के हाथों में ही स्थानीय सत्ता पहुंच गयी। लिब्नेख्त इस क्रांतिकारी सरकार के सहयोगी बने तथा सबसे उग्र दस्ते के साथ जुड़ गए। यह सत्ता थोड़े समय तक ही चली। क्रांतिकारी उभार कुचल दिया गया। विल्हेम प्रशिया की सेनाओं के पहुंचने से पहले सुरक्षित निकलने में कामयाब रहे तथा फ्रांस पहुंच गये। इसके बाद वे जेनेवा पहुंचे जहां उनकी मुलाकात गणतंत्रवादी दार्शनिक मेजिनी से हुई। जेनेवा पहुंचने वाले तमाम अप्रवासियों में वे ही कुछ चुनिंदा लोगों में थे जो समाजवाद को अपना चुके थे। स्विट्जरलैंड में उनकी मुलाकात फ्रेडरिक एंगेल्स से हुई।
स्विट्जरलैंड में विल्हेम लिब्नेख्त ने अपने पैर जमाये ही थे कि स्विट्जरलैंड के जर्मन मजदूरों को संगठित करने के उनके प्रयासों से कुपित होकर वहां कि सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तथा देश निकाले की सजा दे दी। लिब्नेख्त को स्विट्जरलैंड भी छोड़ना पड़ा। स्विट्जरलैंड छोड़कर विल्हेम ने लंदन में शरण ली। लंदन प्रवास के दौरान ही विल्हेम की मुलाकात कार्ल मार्क्स से हुई। मार्क्स का सान्निध्य उन्हें 13 वर्ष तक प्राप्त हुआ। लंदन में मार्क्स-एंगेल्स के निर्देशन में काम करने वाली ‘कम्युनिस्ट लीग’ से वे जुड़ गए। 1864 में मजदूरों के अंतर्राष्ट्रीय संघ (प्रथम इंटरनेशनल) के अस्तित्च में आने के बाद विल्हेम लिब्नेख्त इंटरनेशनल के प्रचार प्रसार में पूरी शिद्दत से जुट गए।  लंदन में लिब्नेख्त का जीवन बहुत कठिनाइयों में गुजरा। वे अध्यापन और लेखन के जरिये अपनी आजीविका जुटाते थे। उन्होंने लंदन से निकलने वाले पत्र ‘आग्सबर्गर’ के संवाददाता के बतौर भी काम किया। 
1861 में 1848-49 की क्रांति में हिस्सा लेने वाले लोगों को आम माफी दे दी गयी। विल्हेम लिब्नेख्त जर्मनी लौट आये। जर्मनी आकर वे फर्डीनेन्ड लासाल के संगठन ‘सामान्य जर्मन मजदूर संगठन’ से जुड़ गये। यह संगठन एक तरीके से भावी जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी का बीज रूप था। 
1862 में लिब्नेख्त ने ‘नार्थ जर्मन गजट’ नामक पत्र में लिखना शुरु किया। इस पत्र की स्थापना एक भूतपूर्व क्रांतिकारी ने की थी। शीघ्र ही वे एक विख्यात समाजवादी लेखक के रूप में स्थापित हो गए। 
जर्मनी का प्रधानमंत्री बिस्मार्क ‘नॉर्थ जर्मन गजट’ का इस्तेमाल अपने खुद का प्रभाव बढ़ाने के लिए करना चाहता था। विल्हेम लिब्नेख्त ने इसे कतई मंजूर नहीं किया। दबाव में काम करने के बजाय उन्होंने संपादक पद से इस्तीफा दे दिया। कुपित होकर बिस्मार्क ने 1865 में विल्हेम लिब्नेख्त को प्रशिया से निष्कासित कर दिया। इसके बाद विल्हेम लिपजिग चले आये तथा उनहोंने सेक्सोनी में मजदूरों की नवनिर्मित यूनियनों को अपने काम का आधार बनाया। उनका यही काम भावी जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी का आधार बना।
विल्हेम लिब्नेख्त मार्क्सवाद के प्रमुख प्रचारकों में से एक थे। फर्डीनेन्ड लासाल की मृत्यु के बाद जर्मनी में वे ही मार्क्सवाद के शीर्ष प्रवक्ता जाने जाते थे।
विल्हेम लिब्नेख्त का इसी दौरान अगस्त बेबेल से संपर्क हुआ जो कि पेशे से एक काष्ठ मजदूर थे और साथ ही मजदूर वर्ग के मुक्ति के सिपाही भी। उनकी दोस्ती प्रगाढ़ होती गयी और समाजवाद के सहयोद्धा के बतौर उनकी जुगलबंदी ने जर्मन समाजवाद का पथ प्रशस्त किया। लिब्नेख्त एक प्रभावी लेखक थे, बेबेल एक ओजस्वी वक्ता। दोनों एक दूसरे के संपूरक बन गये। उन्नीसवीं सदी के अंत तक इन दोनों मित्रों ने जर्मन मजदूर आन्दोलन को कुशल नेतृत्व प्रदान किया।
अपने लेखन में विल्हेम लिब्नेख्त बहुत सरल सामान्य भाषा में वर्गीय राजनीति को बहुत तीक्ष्ण रूप में उड़ेल देते थे। उनका लेखन सामान्य मजदूर के लिए भी रुचिकर होता था। उनका प्रसिद्ध पैंफलेट ‘मकड़ा और मक्खी’ पूंजीवादी व्यवस्था को सरल शब्दों में तार-तार कर देने के लिहाज से आज भी प्रासंगिक है।
1867 में विल्हेम लिब्नेख्त मजदूरों के समर्थन से उत्तर जर्मन राइखस्टाग (संसद) के लिए चुने गये। लिब्नेख्त ने लासाल के पितृवत राज्य पूंजीवाद (Paternalistic state capitalism) का विरोध किया तथा इसे पूंजीवाद का ही एक रूप बताया। उन्होंने लासालपंथियों के विपरीत पूंजीपतियों से किसी भी तरह के समझौतों से इन्कार किया। उन्होंने राइखस्टाग तक अपनी पहुंच का इस्तेमाल, हर उपयुक्त अवसर का इस्तेमाल कर संसद को हास्यास्पद बनाने के लिए किया। 
1870 में फ्रांस जर्मन युद्ध छिड़ गया तो विल्हेम लिब्नेख्त ने सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद का झंडा बुलंद रखा। उन्होंने  युद्ध खर्च के पक्ष में वोट देने से इंकार किया तथा अपनी लेखनी द्वारा युद्ध का पुरजोर विरोध किया। उनकी युद्ध विरोधी नीति के चलते उन्हें शासक वर्ग का कोप झेलना पड़ा। उन पर ‘राष्ट्र द्रोह की नीयत’ का आरोप लगाकर उन्हें हर्बट्स बर्ग के किले में दो वर्ष के लिए कैद कर लिया गया। उनके मित्र एवं सहयोगी बेबेल को भी इन्हीं आरोपों के आधार पर कैद कर लिया गया।
1871 में प्रशिया की सैन्य जीत ने राइखस्टाग पर जर्मन सामाजिक जनवादियों के बढ़ते प्रभाव को कम नहीं किया। बिस्मार्क की नजर में लिब्नेख्त चुभते ही रहे। बिस्मार्क ने सामाजिक जनवादियों का क्रूर दमन कर उन्हें खत्म करने की कोशिश की। इन परिस्थितियों में लिब्नेख्त के समर्थकों तथा लासाल के समर्थकों की एकता के परिणामस्वरूप 1875 में गोथा सम्मेलन में समाजवादी मजदूर पार्टी अस्तित्व में आयी। गोथा सम्मेलन का कार्यक्रम दोनों संगठनों का समझौता कार्यक्रम था जिसकी मार्क्स ने आलोचना की। इस कार्यक्रम की सबसे गलत अवस्थिति सरकार द्वारा सहायता प्राप्त उत्पादक संगठनों के निर्माण का आह्वान थी। यह अवस्थिति 1891 में एरफुर्ट कार्यक्रम तक जर्मन समाजवाद के घोषणापत्र का हिस्सा बनी रही। 1891 में एरफुर्ट कार्यक्रम में गोथा कार्यक्रम की राज्य सहायता प्राप्त संगठनों की अवधारणा को रद्द करके सही मार्क्सवादी अवस्थिति पर पार्टी को खड़ा किया गया। इस सबके बावजूद 1875 में गोथा कांग्रेस में जर्मन समाजवादियों की एकता एक बड़े महत्व की घटना थी। विल्हेम लिब्नेख्त इसी समय से जर्मन मजदूर पार्टी के संस्थापक सदस्य माने गये।
1874 से अपनी मृत्यु के समय तक विल्हेम लिब्नेख्त जर्मन राइखस्टाग के सदस्य रहे। साथ ही सैक्सोनी डाइट के भी सदस्य रहे। वे पार्टी के मुख्य प्रवक्ता थे तथा पार्टी के नीति निर्धारण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रखते थे। 
जर्मनी में समाजवादियों का दमन करने की नीयत से बिस्मार्क ने 1878 में एक नया कानून बनाया। इस नए कानून ‘समाजवादी कानून’ के तहत नेताओं के दमन के साथ-साथ समाजवादी साहित्य के प्रकाशन पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। दमन के दौर में भी लिब्नेख्त ने राइखस्टाग के मजदूर प्रतिनिधि की हैसियत से बिस्मार्क की नीतियों की कड़ी आलोचना की। 
लिब्नेख्त को 1881 में लिपजिग से निष्कासित कर दिया गया। उन्होंने पास के ही एक गांव में शरण ली। भरपूर दमन के बावजूद जर्मन समाजवादी आन्दोलन को दबाया नहीं जा सका। 1890 में जब ‘समाजवादी कानून’ खत्म हुआ तो जर्मन मजदूर पार्टी और मजबूत होकर सामने आयी। यह लिब्नेख्त जैसे सर्वहारा नेताओं की शिक्षा दीक्षा का ही परिणाम था।
 1891 में एरफुर्ट में पार्टी की कांग्रेस हुई तो उसमें वैज्ञानिक समाजवाद के सिद्धांतों को पूरी तरह अपनाया गया तथा पार्टी का नाम ‘जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी’(एस. पी. डी.) रखा गया। 1891 में लिब्नेख्त पार्टी के मुखपत्र वोरवार्ट(अग्रणी) के संपादक बने। वे पार्टी के प्रमुख प्रवक्ता बनाये गए।
लिब्नेख्त ताउम्र मजदूर वर्ग की मुक्ति के लिए प्रयासरत रहे। उन्होंने बार-बार सत्ता का कहर झेला पर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। वे उदार पूंजीवाद, सामंती निरंकुशता, राजकीय ‘समाजवाद’(पूंजीवाद), व अंधराष्ट्रवाद के खिलाफ हमेशा संघर्षरत रहे। वे मार्क्स के सर्वोत्तम अनुआइयों में से एक थे। उन्होंने हर तरह के अवसरवाद का खुलकर विरोध किया। बिस्मार्क ने जब प्रगतिशील पूंजीवादी तत्वों के खिलाफ समाजवादी तत्वों का इस्तेमाल करने हेतू समाजवादियों को मदद उपलब्ध करानी चाही तो पार्टी के कई तत्वों ने ढुलमुल व्यवहार का परिचय दिया लेकिन विल्हेम लिब्नेख्त ने साफ शब्दों में इसकी खिलाफत की। बिना किसी परिप्रेक्ष्य के बिस्मार्क की मदद लेने की नीति की आलोचना की।
सर्वहारा वर्ग के रणकौशल को सुपरिभाषित करते हुए उन्होंने  कहा,”यह रणनीति समाजवादी पार्टी के वर्ग चरित्र को साफ-सुथरा बनाने की है, आंदोलनों द्वारा इसे प्रशिक्षित करने की है, इसे मुक्ति संघर्ष में विजय दिलाने के लिए तथा उस वर्ग राज्य के खिलाफ सुव्यवस्थित युद्ध छेड़ने के लिए संगठित करने व शिक्षित करने की है जिसमें  पूंजीवाद की आर्थिक शक्ति निहित है, और इस युद्ध में शासक वर्ग के अंतर्विरोधों व संघर्षों का अधिकाधिक लाभ उठाने की है।“
उन्होंने शासक वर्गो के अंतविरोधों का फायदा उठाकर सर्वहारा वर्ग को एक स्वतंत्र राजनीतिक शक्ति के रूप में संगठित करने तथा राजसत्ता पर विजय प्राप्त करने को ही सही रणकौशल बताया। 
जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी के मजदूर चरित्र को बनाये रखने के प्रति वे काफी सचेत थे। उन्होंने आगाह किया कि जर्मनी में किसी जुझारू पूंजीवादी पार्टी के अभाव में जनवादी आकांक्षाओं से प्रेरित तत्व भारी मात्रा में जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी में शामिल हो रहे हैं। इन तत्वों का वस्तुतः समाजवाद से गहरा जुड़ाव नहीं है और अगर पार्टी में इनकी संख्या बढी तो ये पार्टी के मजदूर चरित्र को नष्ट कर देंगे।
उन्होंने कहा,”....राजनीतिक दायरे में हमारे प्रति भय और घृणा खत्म होने के साथ राजनीतिक तत्व हमारी कतारों में जुड़ रहे हैं। जब तक यह छोटे पैमाने पर है तब तक यह कोई डरने की बात नहीं है क्योंकि भारी मा़त्रा में मजदूरों के बीच वे नगण्य होंगे तथा उनमें अवशोषित कर लिए जायेंगे। लेकिन ये तत्व अगर भारी मात्रा में पार्टी में आते हैं और उनका प्रभाव इतना बढ़ जाता है कि पार्टी में उनका अवशोषण कठिन हो जाता है तो इस बात का खतरा पैदा हो जाता है कि पार्टी का समाजवादी तत्व विरल हो जाय....।“
विल्हेम लिब्नेख्त की उपरोक्त बातें आज भी कई क्रांतिकारी संगठनों की आंखे खोलने के लिहाज से प्रासंगिक हैं। 
सर्वहारा वर्ग के इस योद्धा की 7 अगस्त 1900 को बर्लिन के पास मृत्यु हो गई। उनकी अन्तिम यात्रा में 50,000 लोगों ने शिरकत की। एक सच्चे योद्धा के प्रति यह मजदूरों का सम्मान था।
लिब्नेख्त का व्यक्तित्व व कृतित्व वर्तमान व आने वाली कई मजदूर पीढ़ियों को प्रेरित करता रहेगा।
         
रोजा लक्जमबर्ग: सुधारवाद के खिलाफ समझौताविहीन संघर्ष की प्रतीक सर्वहारा योद्धा

रोजा लक्जमबर्ग का नाम सर्वहारा वर्ग के उन योद्धाओं में शामिल है जिन्होंने सुधारवाद के खिलाफ दुधर्ष संघर्ष किया और क्रांति को आगे बढ़ाते हुए अपने प्राण न्यौछावर कर दिये। द्वितीय इंटरनेशनल के क्रांतिकारी धड़े की नेता के बतौर सुधारवाद के खिलाफ उनके समझौताविहीन संघर्ष और 1918 की जर्मन क्रांति की प्रमुख नेता के बतौर उनके साहस, समर्पण और कुर्बानी के चलते वे सर्वहारा वर्ग के लिए हमेशा आदरणीय तथा महान प्रेरणास्रोत बनी रहेंगी।
रोजा लक्जमबर्ग अथवा रोजालिया लक्जमबर्ग का जन्म एक मध्यवर्गीय यहूदी परिवार में जारशाही रूस के अधीन पोलैण्ड के जैमोश के निकट लुबलिन में पांच मार्च 1871 को हुआ था। उनके पिता एक लकड़ी व्यावसायी थे। रोजा उनकी पांचवीं संतान थीं। पांच वर्ष की उम्र में पैर में रोग के चलते वे जन्म भर के लिए विकलांगता की शिकार हो गयीं। स्कूली दिनों से ही रोजा मजदूर आंदोलन से जुड़ गयीं। वे पोलैण्ड की वाम सर्वहारा पार्टी से जुड़ गयीं। उन्होंने अपनी राजनीतिक जीवन की शुरूआत मजदूर वर्ग की व्यापक आम हड़तालें आयोजित करके की। जार अलेक्सान्द्र तृतीय के तानाशाही शासन में स्वतंत्र विचारों, राजनीतिक व्यक्तियों व मजदूर आंदोलन का भंयकर दमन किया जाता था। जारशाही के दमन के चलते पार्टी के चार नेताओं को फांसी की सजा हो गयी और पार्टी प्रतिबंधित कर दी गयी। पार्टी के अन्य सदस्य व रोजा लक्जमबर्ग भूमिगत रूप से काम करने लगे। 
1887 में रोजा अपनी माध्यमिक (Abitur) परीक्षा पास करने के बाद जारशाही के तहत गिरफ्तारी से बचने व उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से वे ज्यूरिच (स्विटजरलैण्ड) चलीं आयीं। स्विटजरलैण्ड में उनकी मुलाकात निर्वासन में रह रहे अलेक्सान्द्रा कोलोन्ताई, प्लेखानोव, लियो जोगिश व पावेल अक्सेलरोद जैसे क्रांतिकारियों से हुई। ज्यूरिच में उन्होंने दर्शन, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र,  गणित का अध्ययन किया तथा राज्य के रूप, मध्य युग तथा आर्थिक व शेयर बाजार के संकट में विशेषज्ञता हासिल की। 
रोजा लक्जम वर्ग की पोलिस समाजवादी पार्टी की राष्ट्रवादी नीतियों से असहमत थीं। वह राष्ट्रवादी प्रवृत्तियों को सर्वहारा अंतर्राष्ट्रवाद के लिए घातक मानती थीं। 1893 में लियो जोगिश के साथ मिलकर उन्होंने स्प्रावा रोबोनित्कजा (मजदूरों का ध्येय) अखबार की स्थापना की। इस अखबार के माध्यम से वे पोलिस समाजवादी पार्टी की राष्ट्रवादी नीतियों की आलोचना करने लगीं। पोलिस समाजवादी पार्टी पोलैण्ड की रूसी साम्राज्य से स्वतंत्रता की मांग करती थी। रोजा लक्जमबर्ग ने इस मांग का विरोध किया तथा इस मतभेद के चलते 1893 में लियो जोगिश, कोस्तान्जा शवा व जूलियस कार्स्की (जूलियन मार्शलेवस्की) के साथ मिलकर पोलैण्ड की सामाजिक जनवादी पार्टी की स्थापना की जो बाद में लिथुआनिया के सामाजिक जनवादी संगठन के साथ विलय के बाद पोलैण्ड व लिथुआनिया की सामाजिक जनवादी पार्टी कहलायी। रोजा लक्जमबर्ग स्प्रावा रोबोनित्कजा (मजदूरों का ध्येय) का संपादन करने पेरिस चली आयीं। 
राष्ट्रीयताओं की मुक्ति के संबंध में रोजा लक्जमबर्ग की धारणा गलत थी। वे राष्ट्रीयताओें की मुक्ति की समर्थक होने के साथ ही पोलैण्ड की स्वतंत्रताओं की मुक्ति की समर्थक होने के साथ ही पोलैण्ड की स्वतंत्रता की विरोधी थी। उनका मानना था कि केवल जर्मनी रूस और आस्ट्रिया जैसे मुल्कों में समाजवादी क्रांति संपन्न होने की शर्त पर ही स्वतंत्र व आत्मनिर्भर पोलैण्ड अस्तित्व में आ सकता है। साथ ही वे साम्राज्यवाद के दौर में बड़ी शक्तियों के अस्तित्व में आने के बाद से छोटी राष्ट्रीयताओं के लिए आत्मनिर्णय के अधिकार को भ्रामक मानने लगी थीं। इन आधारों पर वे पोलैण्ड के लिए स्वतंत्रता की मांग करतीं थी। इस गलत अवस्थिति के कारण रूसी क्रांति के नेता लेनिन से उनकी तीखी बहस भी हुई। दरअसल पोलिस समाजवादी पार्टी के राष्ट्रवादी भटकावों से जूझते हुए अतिरेक में वह दूसरे छोर पर पहुंच गयीं और गलत अवस्थिति पर खड़ी हो गयीं। 
1898 में रोजा लक्जमबर्ग ने गुस्ताव ल्यूबेक के साथ विवाह कर लिया। इससे उन्हें जर्मन नागरिकता मिल गयी। रोजा को विश्वास था कि समाजवादी क्रांति पहले पहले  फ्रांस व जर्मनी में होगी। जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी उस समय की सबसे बड़ी संसदीय पार्टी बन चुकी थी। रोजा जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी के साथ मिलकर काम करना चाहती थीं, अतः वह बर्लिन आ गयीं। हालांकि लियो जोगिश के साथ मिलकर वह पोलैण्ड व लिथुआनिया की सामाजिक जनवादी पार्टी को भी नेतृत्व देती रहीं। जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी इस समय अवसरवाद व नौकरशाही जैसी गंभीर बीमारियों से ग्रस्त थी। जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी के क्रांतिकारी वाम पक्ष के साथ मिलकर रोजा ने अवसरवाद व नौकरशाही के खिलाफ जिहाद छेड़ दिया। 
इसी समय जर्मनी की सामाजिक जनवादी पार्टी में संशोधनवाद तीखे रूप में प्रकट हुआ। पार्टी के एक प्रमुख नेता व सिद्धान्तकार एडवर्ड बर्नस्टीन ने यह अवधारणा पेश की कि पूंजीवाद अपने अंतर्विरोधों से निजात पा सकता है, कि विकसित पूंजीवादी देशों में तीव्र औद्योगिक विकास व संसदीय जनवाद के द्वारा समाजवाद हासिल करना संभव है। यह वर्ग संघर्ष को तिलांजलि देना था, मार्क्सवाद को तिलांजलि देना था। रोजा लक्जमबर्ग ने कार्ल काऊत्सकी के साथ मिलकर इस संशोधनवादी विचार का दृढ़तापूर्वक मुकाबला किया व मार्क्सवाद की हिफाजत की। रोजा लक्जमबर्ग ने अपने संघर्ष के दौरान साफ शब्दों में घोषित किया कि पूंजी व श्रम के बीच का अंतर्विरोध केवल क्रांति और उसके बाद उत्पादन संबंधों में आमूल-चूल बदलाव के साथ ही हल हो सकता है। इसी दौरान (1999 में) उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘‘सामाजिक सुधार या क्रांति’’ लिखी। रोजा ने संशोधनवादियों को पार्टी से बाहर निकालने की मांग की। यह मांग हालांकि नहीं मानी गयी लेकिन मार्क्सवादी दृष्टिकोण और सर्वहारा क्रांति को पार्टी के कार्यक्रम में स्वीकार किया गया। 
रोजा लक्जमबर्ग ने अपने पत्र में 1900 के बाद की सामाजिक आर्थिक समस्याओं पर विश्लेषण प्रकाशित किये। युद्ध की आशंका को देखते हुए उन्होंने जर्मन सैन्यवाद व साम्राज्यवाद की तीखी आलोचना की। 1904 से 1906 के बीच अपने राजनीतिक कार्यवाहियों के लिए उन्हें तीन बार गिरफ्तार होकर जेल जाना पड़ा। 1905 में अगस्त बेबेल ने रोजा लक्जमबर्ग को पार्टी के अखबार वोरवाटर्स  (अग्रिम) का संपादक बना दिया। 
पार्टी निर्माण के प्रश्न पर रोजा लक्जमबर्ग के विचार रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी के बोल्शेविक धड़े के खिलाफ व मेंशेविकों के पक्ष में थे। बोल्शेविकों व लेनिन के जनवादी केन्द्रीयता के आधार पर एक सुगठित नाभिक या केन्द्रीकृत नेतृत्व के ईर्द-गिर्द बुने पार्टी ढांचे को वे नौकरशाहना बीमारियों का जनक मानती थीं। मेंशेविकों की ढीलीढाली पार्टी की अवधारणा की वह समर्थक थीं । लेनिन व बोल्शेविकों की उन्होंने पार्टी गठन के सवाल पर तीखी आलोचना की। इसके चलते लेनिन ने रोजा लक्जमबर्ग व लियो जोगिश के नेतृत्व वाले पोलैंण्ड के सामाजिक जनवादी पार्टी ग्रुप के हिस्से की जगह शदेक के नेतृत्व वाले हिस्से का पक्ष लिया। दरअसल जर्मन पार्टी की नौकरशाही से संघर्ष करते हुए एक बार फिर रोजा ने अतिरेक पर जाकर गलत अवस्थिति अपना ली उनकी धारणा थी कि संगठन का ढांचा किसी केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा गठित न होकर संघर्षों के दौरान स्वतः निर्मित होना चाहिए। 
1905 की रूसी क्रांति के दौरान लक्जमबर्ग व लियो जोगिश वारसा (पोलैण्ड) लौट आए जहां वे तुरंत गिरफ्तार कर लिए गये। गौरतलब है कि पोलैण्ड उस समय रूसी साम्राज्य का हिस्सा था। इस असफल क्रांति ने क्रांति के संदर्भ में रोजा लक्जमबर्ग की धारणा में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। पहले जहां वह यह मानती थीं कि समाजवादी क्रांति केवल विकसित पूंजीवादी मुल्कों में हो सकती है वहीं अब वह इस बात की कायल हो गयीं कि रूस जैसे पिछड़े मुल्कों में भी क्रांति हो सकती है।
दूसरे, 1905 की क्रांति में उन्होंने बोल्शेविकों व मेंशेविकों की कार्यनीति के फर्ख को भी महसूस किया। जहां बोल्शेविक क्रांति का भरपूर समर्थन व नेतृत्व कर रहे थे वहीं मेंशेविकों का रुख ढुलमुल व पूंजीपतियों का पिछलग्गू बना हुआ था। उन्होंने आम हड़तालों और मजदूर वर्ग के उभार को भी देखा तथा सोवियतों के रूप में सर्वहारा तानाशाही के नए रूपों को भी देखा। इस क्रांति के बाद वे बोल्शेविकों की समर्थक बन गयीं। 
1906 में रोजा लक्जमबर्ग ने ‘‘आम हड़ताल, राजनीतिक पार्टी  और ट्रेड  यूनियनें’’ के नाम से एक पुस्तक प्रकाशित की। इस पुस्तक में उन्होंने इस बात की वकालत की कि आम हड़तालों के भीतर मजदूरों की चेतना व संघर्ष के स्तर को ऊपर उठाने व समाजवादी क्रांति संपन्न करने का माद्दा होता है। बाद में आम हड़तालों के महत्व को समझते हुए रोजा लक्जमबर्ग ने जर्मन साम्राज्यवाद व सैन्यवाद के खिलाफ मजदूरों की आम हड़तालों का सुझाव जर्मन पार्टी को दिया लेकिन पार्टी ने उनके सुझाव को स्वीकार नहीं किया। 
वारसा जेल से रिहा होने के बाद उन्होंने सामाजिक जनवादी पार्टी के स्कूल में 1907 से 14 तक अध्यापन का कार्य किया। 1907 में वे रूसी सामाजिक जनवादी पार्टी की पांचवी कांग्रेस में शामिल हुई जो कि लंदन में हुई थी। इसी कांग्रेस के दौरान लेनिन से उनकी मुलाकात हुई। लेनिन के साथ कई मुद्दों पर अलग मत होने के बावजूद क्रांतिकारी मार्क्सवाद की हिफाजत करने के लिए लेनिन रोजा को बहुत सम्मान देते थे।  
1907 में स्टुटगार्ट में हुई दूसरे इंटरनेशनल की कांग्रेस में रोजा ने साम्राज्यवादी मुल्कों की युद्ध की कोशिशों के विरोध में सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयतावाद को बुलंद करते हुए सभी समाजवादी पार्टियों से अपने देश में युद्ध का विरोध करने की अपील की तथा युद्ध के विरोध में एक प्रस्ताव पेश किया जो स्वीकार कर लिया गया। उन्होंने कांग्रेस में कहा, ‘‘युद्ध छिड़ जाने के खतरे के बीच, मजदूरों और उनके संसदीय प्रतिनिधियों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे संबंधित देशों में युद्ध को रोकने के लिए सभी उचित प्रयास करें, जिनमें निश्चित तौर पर वर्ग-संघर्ष की स्थिति और राजनीतिक स्थितियों के अनुरूप तब्दीली या तेजी लायी जा सकती है। हो न हो, अगर युद्ध छिड़ जाता है तो यह उनका कर्त्तव्य है कि इसके शीघ्र खत्म होने के लिए आवाज उठायें तथा युद्ध से उत्पन्न आर्थिक, राजनीतिक संकट का इस्तेमाल विभिन्न सामाजिक संस्तरों को जागृत कर पूंजीवादी शासन को जल्दी उखाड़ फेंकने के लिए करें।’’
1912 में वे यूरोपियन सोशलिस्ट कांग्रेस में जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी की प्रतिनिधि चुनी गयीं। उन्होंने फ्रांसीसी समाजवादी जीन जोरेस से यह आग्रह किया कि युद्ध शुरु होने पर यूरोप की सभी मजदूर पार्टियां युद्ध का विरोध करें। 1913 में एक विशाल सभा में मजदूरों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा; ‘अगर वे सोचते हैं कि हम अपने फ्रांसीसी और अन्य भाइयों के खिलाफ हथियार उठायें तो हमें चीखकर कहना होगा ‘‘हम यह नहीं करेंगे’।’’
लेकिन 1914 में जब प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया तो जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी सहित फ्रांसीसी सामाजिक जनवादी पार्टी अधिकांश सामाजिक जनवादी पार्टियां युद्धोन्माद में बह गयीं और अपने-अपने देशों के पूंजीपतियों की पिछलग्गू बन गयीं। जर्मन संसद (राइखस्टाग) के मजदूर प्रतिनिधियों ने सरकार की युद्धनीतियों के पक्ष में मतदान किया तथा सरकार को युद्ध के दौरान हड़ताल न करने का आश्वासन दे दिया। 
इस समय जर्मनी में रोजा लक्जम बर्ग, कार्ल लीब्नेख्त, क्लारा जेटकिन, फ्रांज मेहरिंग जैसे मजदूर वर्ग के सच्चे प्रतिनिधियों ने युद्ध का विरोध किया। रोजा लक्जमबर्ग ने फ्रैंकफर्ट में एक युद्ध विरोधी रैली आयोजित की जिसमें उन्होंने सैनिक भर्ती का विरोध करने तथा सरकारी आदेश न मानने की अपील की। 
युद्ध के दौरान ही अगस्त 1914 में कार्ल लीब्नेख्त, क्लारा जेटकिन, फ्रांज मेहरिंग के साथ मिलकर उन्होंने ‘डाई इंटरनेशनल’ ग्रुप की स्थापना की जो कि जनवरी 1916 में स्पार्टाकस बुंद या स्पार्टाकस लीग कहलाया। यह एक भूमिगत संगठन था जो कि अपने विचारों को ‘स्पार्टाकस लेटर’ नामक पत्र में प्रकाशित करता था। 
मई 1916 में स्पार्टाकस लीग ने खुलकर काम करने का निर्णय लिया तथा विश्वयुद्ध के खिलाफ बर्लिन में एक प्रदर्शन आयोजित किया। रोजा लक्जम बर्ग व कार्ल लीब्नेख्त सहित स्पार्टाकस लीग के नेता गिरफ्तार कर लिए गये। जेल के भीतर रोज लक्जम ने कई दस्तावेज लिखे जिसमें जर्मन सामाजिक जनवाद का संकट’ दस्तावेज जो जूनियस छद्म नाम से लिखा गया काफी प्रसिद्ध हुआ। जूनियस पैंफलेट के नाम से विख्यात इस दस्तावेज में रोजा ने बोल्शेविक पार्टी के नेता लेनिन के पूंजीवादी शासन को बलपूर्वक उखाड़ फेंकने तथा विश्व युद्ध पर रोक लगाने हेतु एक नए इंटरनेशनल के गठन के विचारों का समर्थन किया। 
बोल्शेविकों द्वारा अक्टूबर क्रांति सम्पन्न करने पर रोजा ने अक्टूबर क्रांति की आलोचना की। उनकी आलोचना का आधार यह भ्रमपूर्ण धारणा थी कि अक्टूबर क्रांति गैर जनवादी तरीके से सम्पन्न की गयी है। दूसरे जनवादी केन्द्रीयता की बोल्शेविक नीति की जगह वह जनवाद पर अत्यधिक जोर देती थीं। सर्वहारा तानाशाही की समर्थक होते हुए भी वह एक दलीय सर्वहारा पार्टी के शासन की विरोधी थीं। उनका मानना था कि बोल्शेविकों की नीति से नीचे से मजदूरों की पहलकदमी बाधित होगी और यह नौकरशाहना विकृतियों को पैदा करेगा। रोजा लक्जमबर्ग की नजदीकी मित्र व सहयोगी क्लारा जेटकिन के अनुसार जेल से छूटने के बाद रोजा ने अक्टूबर क्रांति के बारे में अपनी राय बदल ली थी और माना था कि तथ्यों के अभाव के चलते ही अक्टूबर क्रांति के बारे में उनका रुख आलोचनात्मक बना। जो कि गलत था। 
रोजा लक्जमबर्ग आठ नवम्बर 1918 को जेल से रिहा हुईं। उनके साथ कार्ल लीब्नेख्त भी रिहा हुए। रोजा जब जेल में ही थीं तो उसी दौरान 1917 में र्स्पाटाकस लीग इंडिपेंडेंट सोशलिस्ट पार्टी (यू.पी.एस.पी.ओ.) से जुड़ गयी। इंडिपेंडेंट सोशलिस्ट पार्टी का गठन एक युद्धविरोधी भूतपूर्व एस.पी.डी. (जर्मन सामाजिक जनवादी पार्टी) सदस्य ने किया था। नवंबर 1918 में एस.पी.डी.और यू.एस.पी.डी.ने सम्राट कैसर के गद्दी छोड़ने के बाद सरकार का गठन किया। इसके साथ जर्मन क्रांति की शुरूआत हो गयी। मजदूर और सैनिकों की परिषदों ने युद्ध खत्म करने तथा राजशाही खत्म करने के उद्देश्य से समितियां गठित कर लीं तथा जर्मनी के अधिकांश हिस्सों पर कब्जा कर लिया। यू.एस.पी.डी. तथा ए.पी.डी. के अधिकांश सदस्यों ने इन समितियों का स्वागत किया लेकिन एस.पी.डी.के नेतृत्व ने इस भय से ग्रस्त होकर कि ये समितियां कहीं 1905 और 1917 की रूस की क्रांति के समय पैदा हुई सोवियतों जैसी जमीनी सत्ता का रूप ग्रहण न कर लें, इनका विरोध किया। इस दौरान रोजा लक्जमबर्ग और कार्ल लीब्नेख्त ने स्पार्टाकस लीग को पुनर्जीवित किया तथा ‘लाल झंडा’ नामक अखबार की स्थापना की। उन्होंने सभी राजनीतिक बंदियों की रिहाई की मांग की। दिसम्बर 29 से 31 के बीच उन्होंने स्पार्टाकस लीग, इंडिपेंट सोशलिस्ट तथा जर्मनी के अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट नामक संगठनों के संयुक्त सम्मेलन में हिस्सा लिया। इस सम्मेलन में ही जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की नींव पड़ी। रोजा लक्जमबर्ग कार्ल लीब्नेख्त तथा क्लारा जेटकिन लियो जोगिश व फ्रांज मेहरिंग इसके शीर्ष नेतृत्व में थे। 
रोजा लक्जमबर्ग ने संविधान सभा के चुनावों में जर्मनी की कम्युनिस्ट पार्टी की भागीदारी का समर्थन किया लेकिन वे इस मुद्दे पर मतदान में पराजित हो गयीं। 
जनवरी 1919 में पुनः जर्मनी में विद्रोह की एक लहर दौड़ गयी। हालांकि रोजा ने बलपूर्वक सत्ता हथियाने का विरोध किया था लेकिन क्रांति शुरू होने के बाद उन्होंने उसका समर्थन किया तथा कार्ल लीब्नेख्त के साथ उसे नेतृत्व देने लगीं। 
विद्रोह के शुरु होने पर सामाजिक जनवादी पार्टी (एस.पी.डी.) के नेता और जर्मनी के नए चांसलर फ्रेडरिक एबर्ट ने जर्मन सेना व दक्षिणपंथी फ्रेकॉर्प्स को विद्रोह दबाने का आदेश दिया। 
रोजा लक्जमबर्ग व कार्ल लीब्नेख्त गिरफ्तार कर लिए गये। क्रूर यातनाओं के बाद बिना मुकदमा चलाये दोनों की हत्या कर दी गयी। चार माह बाद रोजा लक्जमबर्ग का शव बरामद हुआ। सैंकड़ों अन्य जर्मन कम्युनिस्टों की हत्यायें भी इसी तरह की गयी। इस प्रकार गद्दार सामाजिक जनवादियों ने जर्मनी की क्रांति को खून में डुबो दिया। 
रोजा लक्जमबर्ग एक जांबाज सर्वहारा योद्धा थीं। उनकी हत्या पर रूसी क्रांति के नेता लेनिन ने लिखा ‘‘आज बर्लिन में पूंजीपति और सामाजिक जनवादी जश्न मना रहे हैं। वे कार्ल लीब्नेख्त व रोजा लक्जमबर्ग को कत्ल करने में सफल हो गये हैं। एबर्ट और शीडमान, जिन्होंने सालों-साल मजदूरों का शिकार करने के लिए उन्हें कसाई खाने पहुंचाया, ने अब सर्वहारा नेताओं के कातिलों की भूमिका अपना ली है। जर्मनी का उदाहरण दिखाता है कि जनवाद केवल पूंजीवादी लूट और बर्बर हिंसा का चक्रव्यूह है। कसाइयों का नाश हो।’’
रोजा एक महान सर्वहारा नेता थीं। यह सही है कि कुछ मौकों पर उन्होंने कुछ गलतियां की लेकिन उनकी क्रांतिकारिता के समक्ष उनकी गलतियां बहुत छोटी थीं। उनका मूल्यांकन करते हुए रूसी क्रांति के नेता लेनिन ने उन्हें गलतियों के बावजूद उच्च कोटि की सर्वहारा योद्धा कहा तथा उनके अंध  आलोचकों की निंदा की। लेनिन ने लिखा- 
‘‘बाज कभी-कभी मुर्गियों  से नीची उड़ान भर सकते हैं। लेकिन मुर्गियां कभी भी बाज के बराबर ऊंचाई तक नहीं उठ सकती है। ....अपनी गलतियों के बावजूद वह हमारे लिए बाज थीं और रहेंगी। न केवल दुनियाभर के कम्युनिस्ट उनकी याद को जिंदा रखेंगे बल्कि उनकी जीवनी और उनका पूरा काम पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों की कई पीढ़ियों को प्रशिक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण सामग्री का काम करेंगे।’’                               

अन्द्रेई झ्दानोव: मजदूर राज के रक्षक
अन्द्रेई अलेक्सान्द्र झ्दानोव को पूंजीवादी साहित्य में कट्टर स्तालिन समर्थक के रूप में वर्णित किया जाता है। पूंजीपति वर्ग के विचारक साम्राज्यवादी स्तालिन की तरह ही उन पर भी अत्याचारों का फर्जी आरोप लगाते हैं। क्रांतिकारी मजदूर (जो मजदूर राज की स्थापना चाहते हैं) झ्दानोव को स्तालिन के सहयोगी और मजदूर राज के एक सशक्त रक्षक के रूप में याद करते हैं। 
अन्द्रेई झ्दानोव का जन्म 26 फरवरी (पुराने रूसी कैलेण्डर के अनुसार 14 फरवरी) 1896 को रूस के मारिउपॉल नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता एक सरकारी स्कूल में अध्यापक का काम करते थे। जब अन्द्रेई छोटे थे तब 1909 में उनके पिता की मृत्यु हो गयी। मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि वाले झ्दानोव ने अपनी तरूणाई में ही मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी विचारघारा को अपनाया।
झ्दानोव रूस की सामाजिक जनवादी मजदूर पार्टी (बोल्शेविक) से उस काल में (1915) में जुड़े जब प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ चुका था और बोल्शेविक जारशाही कानूनों के अनुसार देशद्रोह के काम में (विश्वयुद्ध और उसमें जारशाही के नेतृत्व में रूसी जनता की भागीदारी का सक्रिय विरोघ करने के काम में) संलिप्त थे। इस उत्साही- ऊर्जावान नौजवान ने क्रांतिकारी गतिविघियों में बढ़ चढ़कर भाग लिया। उन्होंने अक्टूबर 1917 की क्रांति में भाग लिया जिसके परिणाम स्वरूप रूस की सत्ता की  बागडोर रूसी मजदूर वर्ग के हाथों में आ गयी। दुनिया के इतिहास में यह अभूतपूर्व घटना थी। पूंजीवाद में शोषित-उत्पीड़ित मजदूर वर्ग ने अपनी पार्टी-बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में अब अपने भाग्य का फैसला स्वयं करना सीख लिया। यह क्रांति बोल्शेविक पार्टी द्वारा सही मजदूर विचारघारा को उन्नत करने, रूस के समाज की वैज्ञानिक व्याख्या करने एवं मजदूर वर्ग को लौह अनुशासन में तपा कुशल नेतृत्व प्रदान करने की बदौलत संपन्न हुयी। बोल्शेविक पार्टी और रूसी मजदूर वर्ग ने इस क्रांति के लिए असीम त्याग किया और बड़ी संख्या में कुर्बानियां दीं। इस क्रांति से पूर्व फरवरी 1917 में जब पहले जारशाही को समाप्त किया गया तो सत्ता पर पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिघियों ने कब्जा कर लिया जो मजदूरों-किसानों की आंखों में घूल झोंककर अपने सारे वायदे भूलकर जनता के दमन पर उतारू हो गए। ऐसे में बोल्शेविक पार्टी ने अपनी पैनी नजर के साथ मजदूरों-किसानों का नेतृत्व किया और जनता ने महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति संपन्न की।
झ्दानेव ने इस क्रांति में शिरकत करते हुए अपनी क्रांतिकारिता को निखारा। अक्टूबर 1917 की क्रांति दुनिया के पूंजीवादी शासकों की रातों की नींद उड़ाने वाली क्रांति थी। दुनिया के एक बड़े भू-भाग पर मजदूरों का शासन स्थापित हो जाने से दुनिया का पूंजीपति वर्ग हैरान परेशान हो गया कि कहीं उनके अपने देशों में भी मजदूर वर्ग बगावत न कर दे। अतः दुनिया के पूंजीपतियों ने रूस की मजदूर सरकार को घेरने के चौतरफा प्रयास शुरू कर दिए। उधर रूस की जारशाही और पूंजीपति वर्ग अपनी सत्ता खो कर बौखलाए हुए थे। देशी-विदेशी ताकतों ने रूस पर हमला बोल दिया।
रूस की बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में मजदूर-किसान जनता ने दुश्मनों से डटकर मोर्चा लिया। क्रांतिकारी समाजवादी सेना को लाल सेना के नाम से जाना जाता था, जो मजदूरों किसानों की सेना थी। झ्दानोव क्रांति की रक्षा में जूझ रही लाल सेना में एक कमिसार की भूमिका में युद्धरत रहे। बोल्शेविक पार्टी और लाल सेना के नेतृत्व में रूस की मजदूर-किसान जनता ने विदेशी और देशी दोनों शत्रुओं से क्रांति और मजदूर राज की रक्षा की।
1924 में झ्दानोव नोवगोरोद में पार्टी प्रमुख बनाए गए। 1928 में पार्टी द्वारा उन्हें वोल्गा क्षेत्र में कृषि के सामूहिकीकरण की देखरेख के लिए भेजा गया। मजदूर राज में किसानों को अलग-अलग छोटी जोतों में खेती करने के बजाय अपने खेतों को मिलाकर सामूहिक खेत बनाने के फायदों और महत्व को समझाया जाता था और सरकार इस प्रक्रिया को तरह-तरह से प्रोत्साहित करती थी। इस प्रक्रिया में जहां किसानों की निजी संपत्ति की भावनाएं बाधा बनती थीं वहीं वे सामूहिक खेती के लाभों से प्रभावित होते हुए, एक बेहतर भविष्य के निर्माण की प्रक्रिया का अंग बनते जाते थे।
1934 में झदानोव लेनिनग्राद में पार्टी सचिव बने। इसके बाद से मजदूर राज की रक्षा में झ्दानोव की भूमिका उत्तरोत्तर महत्वपूर्ण होती गयी। उन्होंने कला और संस्कृति के क्षेत्र में पूंजीवादी विचारों के खिलाफ संघर्ष किया। विदेशी घुसपैठियों और जासूसों का सख्ती से सफाया किया। न्याय व्यवस्था और खुफिया विभाग में महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाने के साथ-साथ द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान लेनिनग्राद की रक्षा में कमान संभाली। उन्होंने समाजवादी लेखकों को भी संगठित किया और समाजवाद के नाम पर पूंजीवादी लेखन करने वाले लेखकों को बेनकाब किया। 
झ्दानोव 1935 से बोल्शेविक पार्टी की पोलित ब्यूरो (राजनीतिक ब्यूरो, जो रोज ब रोज के मामलों में पार्टी को नेतृत्व प्रदान करता है) के उम्मीदवार सदस्य बने। 1939 से वे पार्टी की पोलित ब्यूरो के पूर्ण सदस्य रहे।
जून 1940 में उन्हें एस्तोनिया भेजा गया जहां उनकी देखरेख में एस्तोनियाई सोवियत समाजवादी गणतंत्र की स्थापना हुयी।
द्वितीय विश्वयुद्ध, जो सोवियत संघ के नागरिकों के लिए महान देशभक्तिपूर्ण युद्ध था, में झ्दानोव लेनिनग्राद की रक्षा के इन्चार्ज (प्रमुख) रहे। 4 सितम्बर 1944 को फिनलैण्ड और सोवियत संघ के मध्य हुए युद्ध विराम समझौते के बाद वे फिनलैण्ड में सहयोगी नियंत्रण आयोग (Allied  Control Commission) के प्रमुख के रूप में 1947 की पेरिस शांति संधि तक रहे। 
1946 में उन्हें सोवियत संघ की सांस्कृतिक नीति का प्रमुख बनाया गया। उन्होंने अन्ना अख्मातोवा और मिखाइल जोश्चेन्को सरीखे लेखेकों की कृतियों को सेन्सर किया (प्रतिबंघित किया)। फरवरी 1948 में उन्होंने संगीत के क्षेत्र में शुद्धिकरण अभियान चलाया, जिसे रूपवाद (Formalism) के खिलाफ संघर्ष के रूप में जाना जाता है। 
इस प्रकार उन्होंने मजदूर राज के एक चुनौतीपूर्ण दौर में पाश्चात्य पूंजीवादी विचारों एवं संस्कृति की छिपी घुसपैठ के खिलाफ एक सचेत प्रहरी की भूमिका अदा की। इस संबंघ में यह गौरतलब है कि जहां साम्राज्यवादी पुरजोर प्रयास कर रहे थे कि समाजवादी सोवियत संघ में साम दाम दण्ड भेद किसी भी तरह घुसपैठ की जा सके, सोवियत राजनीति, सेना, प्रशासन, बुद्धिजीवियों को खरीदकर अपना जासूस या अपना गुप्त प्रतिनिघि बनाया जा सके वहीं दूसरी तरफ समाजवादी समाज में दशकों तक छोटे पैमाने का उत्पादन और निजी संपत्ति रहते हैं और इनकी वजह से पूंजीवादी मूल्य-मान्यताओं-विचारों की जमीन समाजवाद में भी बची रहती है। जैसा कि बाद के सोवियत इतिहास ने साबित किया कि यह पूंजीवादी पुनर्स्थापना का आघार बना। ऐसे में झ्दानोव व स्तालिन के शुद्धिकरण प्रयासों को (जिन्हें पूंजीवादी प्रचारक अपने कुत्सा प्रचार का शिकार बनाते हैं) मजदूर राज के सचेत प्रहरी के रूप देखना महत्वपूर्ण है।
इसी क्रम में उन्होंने द्मीत्री शोस्ताकोविच, प्रोकोफीव आदि को मजदूर वर्ग के सोवियत दृष्टिकोण से फिसलने के लिए फटकार लगाई थी। 
न्याय के प्रमुख के रूप में उन्होंने मजदूर राज के पक्ष में यथोचित सख्त न्याय करते हुए जासूसों और भेदियों को सजाएं दीं। 
1946 में उन्होंने ‘लेनिनग्राद’ एवं ‘ज्वेदा’ नामक पत्रिकाओं में मजदूर विरोघी विचारघारा के प्रसार का वाहक बनने पर कार्यवाही की।
झ्दानोव 1944 से 1948 तक बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति के विचारधारा मामलों के प्रभारी सचिव रहे। 1947 में उनकी कॉमिन्फार्म के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका रही। कामिन्फॅार्म (कम्युनिस्ट इन्फार्मेशन ब्यूरो-साम्यवादी सूचना ब्यूरो) दुनिया भर के कम्यूनिस्टों के मध्य सूचनाओं के आदान प्रदान एवं विचार विमर्श का मंच था।
झ्दानेव की मृत्यु 31 अगस्त 1948 को हुयी और इस तरह सोवियत संघ ने असमय ही मजदूर राज के एक सख्त और कुशल प्रहरी को खो दिया।

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