Friday, July 15, 2016

समान नागरिक संहिता : संघियों की कुटिल चाल

समान नागरिक संहिता भाजपा और उसके संघ परिवार का पुराना एजेण्डा रहा है। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण तथा जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में संविधान की धारा-370 के साथ यह एक ऐसा मुद्दा रहा है जिसे भाजपा अक्सर ही चुनावों के पूर्व उठाती रही है। एक बार फिर 2017 में होने वाले प्रदेश चुनावों के मद्दे नजर भाजपा ने इस मुद्दे को उठाने का फैसला किया है।
इस बार भाजपा ने इस मुद्दे को उठाने के लिए अपनी केन्द्र की सरकार का सहारा लिया है। वैसे भी विपक्षी पार्टियां भाजपा पर ताने कसती रहती हैं कि भाजपा सत्ता में आते ही अपने मूल मुद्दे छोड़ देती है। भाजपा के हिन्दू साम्प्रदायिक समर्थक भी भाजपा सरकार के इस व्यवहार से मायूस होते हैं। इस बार तो भाजपा के पास यह बहाना भी नहीं है कि उसके पास अपना खुद का बहुमत नहीं है।

सो भाजपा ने इस दिशा में कदम बढ़ाये हैं। उसकी केन्द्र सरकार ने विधि आयोग (ला कमीशन) को निर्देश दिया है कि वह समान नागरिक संहिता पर एक विस्तृत रिपोर्ट तैयार करे। केन्द्र सरकार के प्रवक्ताओं का कहना है कि इस दिशा में कदम उठाकर वे महज संविधान की धारा-44 और सर्वोच्च न्यायालय के समय-समय पर जारी निर्देशों के अनुरूप ही काम कर रहे हैं।
भाजपा सरकार का यह कदम पर्याप्त चालाकी भरा है। इसके जरिये भाजपा ने यह मुद्दा एक बार फिर सार्वजनिक चर्चा में ला दिया है। लेकिन उसने अपने हाथ नहीं बांधे हैं। विधि आयोग भांति-भांति की रिपोर्ट तैयार करता रहता है और सरकार की कोई बाध्यता नहीं होती कि वह उसके अनुरूप काम करे। अभी हाल में मुत्यु दंड पर विधि आयोग की रिपोर्ट को सरकार ने सिरे से नकार दिया। 
समान नागरिक संहिता का नासूर भारत के पूंजीवाद समाज में बहुत गहरे पैठा हुआ है और टीसता रहता है। यह साथ ही भारत के पूंजीपति वर्ग के चरित्र को भी उद्घाटित करता है।
कोई भी आधुनिक धर्म-निरपेक्ष व्यक्ति मानकर चलेगा कि एक पूंजीवादी समाज में समान नागरिक संहिता यानी व्यक्तिओं के इहलौकिक मामले राज्य के एक समान कानूनों से चलने चाहिए। उसकी अपनी निजि आस्थाएं केवल व्यक्तिगत मसलों तक सीमित रहनी चाहिए।
पर भारत में ऐसा नहीं है। अंग्रेजों ने तो परिवारिक और सम्पत्ति की विरासत सम्बन्धी मामलों में विभिन्न धार्मिक रीति-रिवाजों और कानूनों को मान्यता दी ही थी, आजाद भारत की पूंजीवादी सरकार ने भी यही किया। उसने भी धर्म को सभी सार्वजनिक क्षेत्रों से निकाल बाहर कर उसे केवल व्यक्तिगत आस्था तक सीमित करने के बदले सार्वजनिक क्षेत्र में बने रहने दिया। यहां धर्म-निरपेक्ष का मतलब सर्व धर्म समभाव किया गया। परिणाम यह निकला कि धर्म राजनीति, समाज, परिवार सब जगह हावी रहा और साम्प्रदायिकता एक बड़ी समस्या के तौर पर बनी रही। 
धर्म के प्रति यह रुख अपनाने के बाद भारत के पूंजीपति वर्ग ने इसमें कुछ कतर-ब्यौंत कर सुधार करने की कोशिश की। 1950 के दशक में हिन्दुओं के परिवारिक और विरासत सम्बंधी कानूनों में बदलाव किये गये। इन बदलावों का तब संघ परिवार समेत सभी हिन्दू साम्प्रदायिकों ने जबर्दस्त विरोध किया था। ये हिन्दू साम्प्रदायिक ताकतें अपनी मध्ययुगीन मानसिकता से इन बदलावों का विरोध कर रही थीं लेकिन बहाना उन्होेंने यह बनाया कि सरकार केवल हिन्दू धर्म को लक्ष्य बना रही है। यानी अपने में सुधार का विरोध करने के लिए उन्होंने दूसरों के पिछड़े बने रहने का हवाला दिया। 
जब हिन्दू साम्प्रदायिकों के विरोध के बावजूद हिन्दुओं के परिवारिक और विरासत सम्बन्धी कानूनों ( इसमें विधवा विवाह, पुनर्विवाह, बाल विवाह, सम्बन्ध विच्छेद, स्त्री को पैत्रिक सम्पत्ति में अधिकार भी आते थे) में परिवर्तन हो गये तब उन्होंने समान नागरिक संहिता को अपने हिन्दू साम्प्रदायिक हथियार के तौर पर ले लिया। समान नागरिक संहिता के धुर विरोधी अब इसके सबसे बड़े हिमायती बन गये।
असल में हिन्दू साम्प्रदायिकों के समान नागरिक संहिता के मुद्दे का उद्देश्य केवल मुसलमानों को धौंस में लेना है, धर्म को सार्वजनिक जीवन से बहिस्कृत करना नहीं। असल में तो ये खुलेआम कहते हैं कि इनका हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धति है जिसे सबको स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वही हिन्दू धर्म को परिभाषित करती है। स्वभावतः सारे ही गैर हिन्दू और नास्तिक लोग इसका विरोध करेंगे।
सारे प्रगतिशील लोग वास्तविक धर्म निरपेक्षता और इसीलिए समान नागरिक संहिता का समर्थन करेंगे। लेकिन ठीक इसी कारण वे भाजपा सरकार और संघ परिवार द्वारा थोपे जाने वाले ‘समान नागरिक संहिता’ का विरोध करेंगे क्यांेकि यह असल में धार्मिक अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न का हथियार है। भारत में एक हिन्दू साम्प्रदायिक गिरोह के हाथ में यह मुद्दा इसके सिवा कुछ हो भी नहीं सकता। विधि आयोग चाहे जो रिपोर्ट दे, भाजपा सरकार के इस कदम की भत्र्सना की ही जानी चाहिए।

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