19 मई को विधान सभा चुनावों के परिणाम आते ही भाजपा के बड़बोले अध्यक्ष, जो कभी गुजरात से तड़ीपार कर दिये गये थे, अमित शाह ने घोषणा कर दी की कि भाजपा ने कांग्रेस मुक्त भारत की ओर दो कदम बढ़ा दिये हैं। उसका स्पष्ट ईशारा आसाम में कांग्रेस पार्टी की पराजय थी।
अमित शाह ने यह नहीं बताया कि आसाम में भाजपा की जीत घोर साम्प्रदायीकरण पर आधारित है। अमित शाह, नरेन्द्र मोदी सहित सभी भाजपा नेताओं ने खुले आम बांग्लादेश से मुस्लिम घुसपैठ का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि बांग्लादेश से आने वाले हिन्दू शरणार्थी हैं, जिन्हें शरण देने के लिए भारत प्रतिबद्ध है जबकि वहां से आने वाले मुसलमान घुसपैठिये हैं जिन्हें भाजपा सरकार निकाल बाहर करेगी। इसके द्वारा भाजपा ने आसाम में पहले से आप्रवसन की समस्या को और ज्यादा साम्प्रदायिक रूप दिया। हां, जो अपने को हिन्दू साम्प्रदायिक भाजपा के मामले में धोखे में रखना चाहते हैं उनके लिए भाजपा ने विकास का नारा भी दिया। ऊपरी तौर पर विकास का नारा और जमीनी स्तर पर घोर साम्प्रदायिक धुव्रीकरण नरेन्द्र मोदी-अमित शाह का पेटेन्टेड फार्मूला है। यह कई जगह भाजपा को जीत दिला चुका है।
कांग्रेस मुक्त भारत की बात यदि एक ओर भाजपा की हेकड़ी को दिखाता है तो दूसरी ओर यह हाल-फिलहाल कांग्रेस की दुर्गति को भी दिखाता है। यह अलग बात है कि कांग्रेस अभी भी छः राज्यों में शासन कर रही है और ज्यादातर भाजपाई शासन वाले राज्यों में मुख्य विपक्षी पार्टी है तथा भाजपा और उसके मतों में फर्क बहुत कम है। यह पूंजीवादी राजनीति की ही करामात है कि दो पतित पूंजीवादी पार्टियां सत्तापक्ष और विपक्ष बनी हुई हैं।
इन चुनावों ने सरकारी वामपंथियों की दुगर्ति को उजागार किया। केरल में इनकी यथा-प्रथा जीत से (एक बार कांग्रेस, एक बार ‘वाम’) इनकी थोड़ी सांस भले ही वापस आ गई हो पर पश्चिम बंगाल में इनकी हालत इनकी दूरगामी गति को दिखाती है। जहां कभी ममता बनर्जी ने इनके शासन को उखाड़ने के लिए कांग्रेस से अलग होकर पार्टी बनायी थी और अंततः सफल हुई थीं। वहीं इन सरकारी वामपंथियों में इतना दम नहीं बचा है कि फिर अपने को खड़ा करें। उन्होंने चुनावी तिकड़म के तहत कांग्रेस की बैसाखी पकड़ ली। परिणाम यह निकाला कि बैसाखी तो खड़ी रह गयी पर ये धड़ाम से गिर पड़े। इनका रहा-सहा दम भी निकल गया। ज्यादा गौरतलब बात यह है कि इनके तिकड़मी महासचिव येचुरी का कहना है कि पश्चिम बंगाल में कांग्रेस-‘वाम’ गठजोड़ इनकी दूरगामी रणनीति का हिस्सा है। यानी उनकी यह चुनावी जोड़-तोड़ सारे देश के पैमाने पर और जोर-शोर से चलेगी भले ही पश्चिम बंगाल चुनाव में पश्चिम बंगाल चुनाव ने इसका दिवालियापन जगजाहिर कर दिया हो। पतित सरकारी वामपंथी पतित कांग्रेसियों की तरह ही इससे ज्यादा नही सीख सकते। व्यवहार तो वे और भी घृणित करेंगे।
कुल मिलाकर इन प्रदेश चुनावों में पूंजीवादी रातनीति की तीन-तिकड़म और पतन को ही एक बार फिर रेखांकित किया जहां महाभ्रष्ट जयललिता किसी विकल्प के अभाव में एक बार फिर चुनाव जीत जाती है। यदि विकल्प करूणानिधि और जयललिता में ही हो तो सिक्का किधर भी उछाला जा सकता है।
पतित पूंजीवादी राजनीति का खेल जारी है पर स्पष्ट ही हाल-फिलहाल ही।
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