एक ओर वित्तमंत्री प्रवचन दे रहे हैं कि न्यायपालिका ईट-दर-ईट विधायिका को और इसलिए लोकतंत्र को खंडित कर रही है, दूसरी देश में सूखे की भयावाह स्थिति में कुछ करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को केन्द्र सरकार को निर्देशित करना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद केन्द्र सरकार ने बताया है कि वह सूखाग्रस्त प्रदेश के सचिवों की एक सप्ताह के भीतर बैठक बुलायेगी।
इसमें कोई शक नहीं कि प्रदेश सचिवों की इस बैठक के बाद भी सूखाग्रस्त क्षेत्रों के लिए सरकार कुछ नहीं करेगी। यदि वह कुछ करने का दिखावा करेगी तो उसी तरह जैसे सूखाग्रस्त क्षेत्रों में किसानों को कुछ सौ रुपयों का मुआवजा मिल रहा है।
सूखे और किसानों के प्रति सरकारों का नजरिया कोई अबूझ पहेली नहीं है। यह नेताओं, मंत्रियों और अफसरों की असंवेदनशीलता का मामला नहीं है, जैसा कि कुछ लोग सोचते हैं। जो सरकार पूंजीपति वर्ग पर हर साल प्रोत्साहन के नाम पर पांच लाख करोड़ रुपये लुटा रही हो, जो पूंजीपतियों को छूट दे रही हो कि वे सरकारी बैंकों का लाखों करोड़ हजम कर जायें, वह किसानों के प्रति यह नजरिया किसी असंवेदनशीलता के कारण अपना नहीं रही है। जो सरकार महाराष्ट्र में सारा पानी गन्ना क्षेत्र की ओर बहा रही है, वह किसी असवेंदनशीलता की वजह से ऐसा नहीं कर रही है। यह सारा कुछ एक नीति के तहत हो रहा है।
पिछले दशकों में सरकारों की स्पष्ट नीति छोटे-मझोले किसानों को बरबादी की ओर ढकेलने की रही है। यह देहाती और खेतिहर पूंजीपतियों के फायदे की बात तो है ही, यह सबसे बढ़कर देश के बड़े पूंजीपति वर्ग के फायदे की बात है। छोटे-मझोले किसानों की बरबादी से इनके मुनाफे में भारी बढ़ोत्तरी हो रही है क्योंकि उनकी सम्पत्ति इन्हें स्थानान्तरित हो जा रही है।
इसीलिए सूखे की समस्या से निपटने का तरीका सरकारों की संवेदना को जागृत करने का प्रयास करना नहीं है। यह तरीका है ऐसी सरकार के खिलाफ व्यापक संघर्ष छेड़ना जो छोटे-मझोले किसानों की बरबादी की नीति पर चल रही है। इन किसानों की इन समस्याओं के बारे में भी यही सही है।
मजदूर वर्ग को आगे बढ़कर इन संघर्षों में न केवल भागेदारी करनी चाहिए बल्कि छोटे-मझोले किसानों को नेतृत्व भी प्रदान करना चाहिए। यह नेतृत्व ही किसानों के संघर्ष को सही दिशा दे पायेगा।
No comments:
Post a Comment