दिल्ली की बहुरुपिया सरकार ने दिल्ली में वायु प्रदूषण की समस्या को हल करने के लिए अपने चरित्र के अनुरूप ही एक नुस्खा लागू करने का फैसला किया है। आगे आने वाली जनवरी से सम और विषम संख्या वाली कारें रजिस्ट्रेशन नंबर में अंतिम संख्या सम या विषम एक-एक दिन छोड़कर चलेंगी। सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को विषम और तथा बाकी दिन सम। केजरीवाल एण्ड कंपनी के अनुसार इससे दिल्ली की जहरीली हो चुकी हवा कुछ बेहतर होगी।
केजरीवाल एण्ड कंपनी के इस कदम से इन्होंने कम से कम यह तो स्वीकार किया कि दिल्ली में वायु प्रदूषण के लिए मुख्यतः जिम्मेदार कारों के मालिक हैं जो मध्यम और उच्च मध्यम वर्ग के लोग हैं। यह अलग बात है कि वायु प्रदूषण से परेशानी भी इन्हीें को है। यदि ये प्रभावित नहीं होते तो दिल्ली में वायु प्रदूषण कोई मुद्दा नहीं बनता। दिल्ली की आधी आबादी जिन मलिन बस्तियों में रहती है उनकी गंदगी और वहां का प्रदूषण इनके लिए मुद्दा नहीं बनता।
दिल्ली जैसे बड़े शहरों मे कारों की धका-पेल और उनके कारण पैदा होने वाली भांति-भांति की समस्याएं एक अन्य कोण से इसी बात को रेखांकित करती हैं जिसे चेन्नई का डूबना रेखांकित करता है। वह है शहरों का बेतरतीब विकास और पूंजीवादी लूट-पाट।
दिल्ली जैसे बड़े शहरों में लोग रहते कहीं और हैं और काम करने कहीं और जाते हैं। यही हाल विद्यालयों का भी है। बच्चे रहते कहीं और हैं और पढ़ने कहीं और जाते हैं। इसका परिणाम यह निकलता है लोग रोजाना लम्बी-लम्बी यात्राएं करते हैं। इससे न केवल समय और ऊर्जा नष्ट होती है बल्कि प्रदूषण जैसी समस्याएं भी पैदा होती हैं क्योंकि आवागमन के लिए किसी न किसी वाहन का इस्तेमाल होगा ही।
यदि ये वाहन सार्वजनिक वाहन होते तब भी तब भी गनीमत होती क्योंकि इन वाहनों की कम संख्या से ज्यादा लोग आवागमन कर सकते हैं। एक बस से पचास से ज्यादा लोग यात्रा कर सकते है। पर पूंजीवादी उपभोक्ता संस्कृति के कारण, जिसे पूंजीपति हर तरीके से बढ़ावा देते हैं, हर व्यक्ति जो कार खरीद सकता है, कार खरीद लेता है। नतीजा यह निकलता है कि कारें सारे शहर पर बोझ बन जाती हैं। तेज रफतार से यात्रा करने के ख्वाहिशमन्द कार मालिक पाते हैं कि बैलगाड़ी की चाल से यात्रा कर रहे हैं। दिल्ली जैसे शहरों में कारों की औसत रफतार दस किमी प्रति घंटा है। ऊपर से यह कि इनकी भारी मौजूदगी हवा को जहरीली बना देती है। इस तरह सुविधा वाली चीज असुविधा का कारण ही नहीं, सकारात्मक तौर पर हानिकारक बन जाती है।
इसका समाधान बहुरुपियों के सम-विषम के नुस्खे में नहीं है। इससे इन बहरुपियों के समर्थक वर्गों को जो कष्ट होगा, इसी कारण यह नुस्खा उन्हें छोड़ देना होगा। तब वे कोई अन्य नुस्खा ढूंढेगे या ढूंढने का दिखावा करेंगे जैसा कि हजारों पर्यावरणविद या पर्यावरण का ध्ंाधा करने वाले इस समय पेरिस मे कर रहे हैं।
इस समस्या का वास्तविक समाधान पूरे समाज सहित शहरों की योजनाबद्धता में है। काम और रिहाइश की जगह एक होगा, सार्वजनिक यातायात साधनों का इस्तेमाल, शहरों का योजनाबद्ध विकास, शहरों और देहातों के अतीव विलगाव का खात्मा इस समस्या के समाधान के वास्तविक रास्ते हैं। पर पूंजीवादी व्यवस्था में इस सबकी गुंजाइश नहीं है। इसमें तो वही होगा जो इस समय चेन्नई या दिल्ली में हो रहा है।
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