पेरिस में पर्यावरण सम्मेलन के समय ही चेन्नई में भारी बारिश और भीषण बाढ़ ने सभी का ध्यान खींचा है। प्रधानमंत्री चेन्नई के लिए राहत पैकेज की घोषणा कर रहे हैं और वहां का दौरा कर रहे हैं तो पेरिस सम्मेलन में कुछ लोग मांग कर रहे हैं कि पश्चिमी देशों को इसके लिए मुआवजा देना चाहिए क्योंकि चेन्नई में इतनी भारी बारिश पश्चिमी देशों द्वारा पर्यावरण को पहुंचाये गये नुकसान के कारण हो रही है।
गौरतलब है कि अभी कुछ दिन पहले नवंबर के दूसरे सप्ताह में भी ऐसा कुछ हुआ था। तब करीब बीस सेमी वर्षा होने के कारण चेन्नई डूब गया था। तब भी बात उठी थी कि यह पर्यावरण को हुए नुकसान के कारण है। यदि इस बात को ध्यान में रखा जाय कि देश में करीब दस प्रदेश सूखे से गुजर रहे हैं तो पर्यावरणवादियों की यह बात और ज्यादा मजबूत नजर आने लगती है।
पर्यावरणवादियों के इन दावों को साबित करने के लिए पुख्ता वैज्ञानिक आधार भले न हो (मौसम में बहुत ज्यादा विविधता होती है इस कारण) पर इतना तय है कि चेन्नई का डूबना मानवीय कारणों से है। चेन्नई ही नहीं किसी भी बड़े शहर का भारी बारिश में डूबना प्राकृतिक नहीं बल्कि मानव निर्मित आपदा होती है। इसका एक प्रमाण तो यह है कि नवंबर के दूसरे सप्ताह में चेन्नई के पास के कब्जे पोन्नेरी में 17 सेमी ज्यादा बारिश हुई थी यानी लगभग दोगुनी। लेकिन पोन्नेरी चेन्नई की तरह नहीं डूबा क्योंकि वह चेन्नई की तरह महानगर नहीं बल्कि कस्बा था।
खास चेन्नई की बात करें तो अभी दो दशक पहले तक वहां करीब साढ़े छः सौ जलाशय थे जिनमें से अब महज 30 बचे हैं। इन जलाशयों में झील, तालाब और टैंक शामिल थे। जलाशय बारिश के पानी को अपने में समेटते हैं और बाकी जगह जल भराव को रोकते हैं। अब इन्हें पाट-पूट कर भवन और सड़कें बना दी गई हैं। सभी बड़े शहरों में जल निकासी के प्राकृतिक रास्ते गायब हो गये हैं (खासकर नाले) और जो नालियां बनाई गई हैं वे बेहद अप्रयाप्त हैं। अक्सर तो वे बन्द ही पाई जाती हैं।
महानगरों और बड़े शहरों का यह हाल मुख्यतः दो चीजों का परिणाम है। एक तो इन शहरों का बेतरतीब ढंग से बढ़ते चले जाना और दूसरा इनमें इससे भी ज्यादा बेतरतीब ढंग से निर्माण कार्य। इस सभी शहरों में ‘मास्टर प्लान’ नाम का ही होता है।
ये बड़े शहर आम दिनों में तो जैसे-तैसे चलते रहते हैं पर जब विशेष स्थिति जैसे महामारी या भारी बारिश इत्यादि आती है तो ये एकदम चरमराकर बैठ जाते हैं। उस समय तो खूब हो-हल्ला मचता है पर आपदा गुजर जाने पर सब कुछ ‘सामान्य’ यानी ‘बिजनेस एज युजुअल’ हो जाता है।
बड़े शहरों का यह हाल हमारी पूंजीवादी व्यवस्था का अद्भुत उत्पाद है। इसमें एक ओर गावों से शहरों को पलायन और दूसरी ओर है पूंजीपतियों के मुनाफे से संचालित निर्माण कार्य। शहर और देहात का विलगाव अपने चरम पर पहंुच कर और पूंजीपतियों के मुनाफे की हवस के साथ मिलकर इस तरह के डूब जैसे परिणाम पैदा करता है।
चेन्नई में भारी बारिश को भले पर्यावरण विनाश से जोड़ा जाये पर इसके डूबने को उपरोक्त से जोड़ने से अभी के अपराधी साफ बच निकलते हैं। पर्यावरण नुकसान के मत्थे मढ़कर ये दोषमुक्त हो जाते हैं। भारत के लूट-पाट मचाने वाले पूंजीपति साम्राज्यवादियों को दोषी ठहरा कर अपना पाप छिपा सकते हैं। पेरिस में मुआवजे की मांग इसी की ओर संकते है।
शहरों का यह हाल यदि वर्तमान पूूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम है तो कहने की बात नहीं कि इसमें कोई भी परिवर्तन पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष का ही हिस्सा बन जाता है। यह संघर्ष ही इसमें कोई बेहतरी ला सकता है।
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