संघी स्वयं सेवकों मोदी-शाह की जोड़ी को बिहार में नितीश-लालू की जोड़ी ने धोबिया पाट दे मारा। ये दोनों चारों खाने चित्त हैं और इनके साथ भाजपा के उन सारे बड़बोलों की बोलती बंद हो गई है जो पिछले डेढ़ साल से बेहद उद्धत ढंग और हिकारत से अपने हर विरोधी को लतिया रहे थे। इसमें उन्होंने देश के जाने-माने बुद्धीजीवियों और कलाकारों को भी नहीं बख्शा था।
बिहार विधान सभा का चुनाव मोदी-शाह की जोड़ी के लिए बेहद अहम था। इसमें सफलता के बाद वे उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी सफलता की ओर बढ़ सकते थे। इसके जरिये वे राज्य सभा में भी बहुमत हासिल करने की ओर बढ़ सकते थे जिसके बिना अंबानी-अदानी की सेवा करने की उनकी मंशा परवान नहीं चढ़ पा रही है। इसी कारण उन्होंने यह चुनाव जीतने के लिए जमीन-आसमान एक कर दिया।
जहां अमित शाह ने बिहार में महीनों से डेरा ही डाल दिया था वहीं मोदी ने भी ताबड़तोड़ रैलियां कर डालीं। ज्यादातर केन्द्रीय मंत्री इस चुनाव में झोंक दिये गये। पता नहीं कितने हेलीकाॅप्टर इनके चुनाव प्रचार में लगाये गये। रुपये-पैसों का तो कोई हिसाब-किताब ही नहीं था।
व्यक्तिगत प्रयासों के साथ इन्होेंने अपनी चुनावी रणनीति में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। जातिगत समीकरण बैठाने के लिए उन्होंने राम विलास पासवान और कुशवाहा को साथ लिया तो जीतन मांझी को नितीश से तोड़कर अपने साथ मिलाया। अपने हिसाब से उन्होंने पिछड़ों, दलितों और महादलितों को साथ ले लिया था, सवर्ण तो पहले से उनके साथ थे।
लेकिन इस जातिगत समीकरण को बैठाने के बावजूद वे जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थे। इसीलिए उन्होंने शुरु से ही धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की। नरेन्द्र मोदी ने गाय और ‘बीफ’ (गोमांस)पर ध्रुवीकरण करने की कोशिश की। नरेन्द्र मोदी ने गाय और ‘बीफ’ का मुद्दा उछाला। अंत में तो बेशरमी की हद पार करते हुए उन्होंने मुसलमानों को धर्म के आधार पर आरक्षण का मुद्दा छेड़ दिया।
मोदी-शाह का यह जाना-माना हथकण्डा था। इसे वे लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश में पूरी तरह दक्षता से इस्तेमाल कर चुके थे। उत्तर प्रदेश में एक ओर जहां उन्होंने कुछ पिछड़ी और दलित जातियों को साथ लेने के लिए गठबंधन से लेकर अन्य तरह के हथकण्डे अपनाए वहीं धर्म के नाम पर गोलबंदी के लिए सारी हदें पार कर दीं। इस सबसे उन्हें आशातीत सफलता भी मिली।
पर बिहार में वे यह अपनी उम्मीद के अनुसार सफल नहीं हो पाये इसका सीधा सा कारण था कि बिहार में उनके प्रमुख विरोधी एक गठबंधन में एक हो गये। लोकसभा चुनावों मं उत्तर-प्रदेश और बिहार दोनों में भाजपा की अप्रत्याशित जीत का प्रमुख कारण विरोधी खेमे का बिखराव था। इस बार नितीश-लालू-कांग्रेस गठबंधन ने जितनी सीटें जीती हैं वे उतनी ही हैं जितनी तब बनती जब वे लोकसभा चुनाव के दौरान मिलकर लड़े होते। बिहार में मोदी-शाह की इस अप्रत्याशित हार का कारण बिलकुल वही है जो लोकसभा चुनावों के दौरान उनकी जीत का था। फरक केवल इतना था कि विरोधी तब बंटे हुए थे, अब एक हैं।
इस तरह बात यह नहीं है कि नितीश कुमार के ‘सुशासन’ को इस बार बिहार की जनता ने स्वीकार कर लिया जबकि लोकसभा चुनावों में नकार दिया था। इस बार भी मतों के प्रतिशत में शायद ही कोई परिवर्तन हुआ हो। फरक गठबंधन के होने या न होने का था।
हेकड़ीबाज मोदी-शाह के गालों पर बिहार चुनावों में दनादन थप्पड़ पड़े हैं तो केवल इसी कारण कि वे अपनी लोकप्रियता के प्रति कुछ ज्यादा ही आश्वस्त हो गये थे। अन्यथा तो सच्चाई यह है कि भाजपा अभी भी बिहार में सबसे ज्यादा मत हासिल करने वाली पार्टी है। यानी भाजपा की व्यक्तिगत लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आई है। यानी इन परिणामों से यह मान लेना कि यह भाजपा के पराभव को दर्शाता है, गलत है।
दूसरे यह कि यदि कोई यह सोचता है कि मोदी-शाह की भाजपा बिहार चुनाव परिणाम से सबक सीखकर अपन रास्ता बदलेगी और हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद को छोड़कर एक सामान्य दक्षिणपंथी पार्टी बनने की ओर बढ़ेगी तो यह खुशफहमी होगी। हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद भाजपा के डी.एन.ए. में है। इससे भी ज्यादा यह मोदी-शाह के डी.एन.ए. में है। इसी के बल पर ये पिछले लोकसभा चुनावों में बहुमत हासिल करने में कामयाब रहे थे।
इसीलिए मोदी-शाह की भाजपा हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद के एजेण्डे को नहीं छोड़ने वाली। आने वाले चुनावों में मोदी-शाह फिर यही करेंगे। उनके पास यही तुरुप का इक्का है। ‘विकास’ की सारी बातें भोले-भाले लोगों के लिए हैं या उन लोगों के लिए जो स्वयं को धोखे में रखना चाहते हैं।
हां, यह हो सकता है कि इस चुनाव परिणाम के बाद भाजपा में मोदी-शाह की जोड़ी के एकक्षत्र अधिपत्य के प्रति विरोध के स्वर बुलंद हों और ऐसे दो-चार और झटकों के बाद इनमें से एक या दोनों की बलि चढ़ा दी जाये। तब भाजपा शायद वाजपेई टाइप भाजपा की ओर लौट आये जिससे नितीश कुमार जैसे ‘धर्मनिरपेक्ष’ ‘विकास पुरुषों’ को कोई परेशानी नहीं थी।
इन चुनावों में हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद के विरोधी खुश हो सकते हैं पर उन्हें लालू-नितीश-राहुल के प्रति कोई भी नरमी नहीं बरतनी चाहिए। भारतीय पूंजीपति वर्ग के ये सेवक भी मजदूर-मेहनतकश जनता के लिए कोई कम खतरनाक दुश्मन नहीं हैं। स्वयं हिन्दू साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर भी ये बेहद अवसरवादी रुख अपना सकते हैं जैसा कि इनका इतिहास बताता है।
बिहार में मोदी-शाह के चारों खाने चित्त पड़ने के बावजूद न तो देश में हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद का खतरा कम हुआ है और न लालू-नितीश-राहुल के जीतने से प्रगतिशील ताकतों को कोई बढ़ावा मिला है। यह सड़े-गले पूंजीवाद के भीतर चलने वाली उठा-पठक में से एक है। इसे इसी रूप में लेते हुए मजदूर वर्ग की क्रांतिकारी गोलबंदी पर सारा ध्यान केन्द्रित करने की जरूरत है। हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद को असल चुनौती लालू, नितीश, राहुल और केजरीवाल से नहीं बल्कि मजदूर वर्ग से और उसकी क्रांतिकारी पार्टी से ही मिलेगी।
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