Saturday, October 31, 2015

बढ़ते विरोध के साथ बढ़ रही है संघियों की बौखलाहट

     लगातार बढ़ते विरोध ने नरेन्द्र मोदी की संघी सरकार को मजबूर कर दिया है कि वह संत का अपना ओढ़ा हुआ बाना उतार फेंक कर अपने असली रूप में आ जाये। वह ‘विकास’ और ‘सबका साथ-सबका विकास’ के फर्जी नारे को त्यागकर हिन्दू साम्प्रदायिक फासीवाद के अपने असली एजेण्डे पर आ जाये। 
      कलबुर्गी की हत्या और दादरी काण्ड के बाद जब तमाम साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटाने शुरु किये तो मोदी के बड़बोले वित्त मंत्री और हारे हुए सांसद अरुण जेटली ने इसे ‘कागजी विद्रोह’ और ‘गढ़ा हुआ विरोध’ घोषित कर उन्हें ही कटघरे में खड़ा करना शुरु कर दिया। सभी संघियों ने इसे लपक लिया तथा साहित्यकारों को कांग्रेस और वाम पार्टियों का दरबारी घोषित कर दिया। खासकर फेसबुक और ट्वीटर इत्यादि पर तो संघी समर्थकों नेसरी मर्यादाएं तोड़ दीं, हालांकि संघी मर्यादा के लिए कभी नहीं जाने जाते।
      परन्तु संघियों द्वारा साहित्यकारों पर यह पलटवार कारगर साबित नहीं हुआ। उलटे उसने समाज के अन्य प्रबुद्ध हिस्सों को भी झकझोरा तथा उन्हें विरोध के लिए प्रेरित किया। विरोध करने वालों में फिल्मकार, अन्य तरह के कलाकार तथा बुद्धीजीवी, इतिहासकार और अंत में वैज्ञानिक भी शामिल हो गये। जैसे-जैसे विरोध करने वाले प्रबुद्ध लोगों की संख्या बढ़ती गई है वैसे-वैसे संघियों की बौखलाहट भी बढ़ती गई है। वे अपने वही तर्क और आरोप और भी ऊंची आवाज में दुहरा रहे हैं तथा, जैसा कि संघियों की आदत है, कुतर्क कर रहे हैं। 
      देश के प्रबुद्ध हिस्से की इस आवाज से अभी तक पूंजीपति अपनी दूरी बनाये हुए थे। एक तो वे अभी भी मोदी के छुट्टे पूंजीवाद से उम्मीद लगाए हुए हैं, दूसरे वे व्यक्तिगत तौर पर इस विवाद से दूर रहना चाहते थे। लेकिन अब देश के सबसे चर्चित पूंजीपतियों में से एक, इन्फोसिस के नरायण मूर्ति ने अपना मुंह खोल दिया है और उससे जो कुछ भी निकला है वह संघियों को जरा भी रास नहीं आयेगा। उन्होंने खुलेआम कहा कि देश में अल्पसंख्यक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं और यह देश के पूंजीवादी विकास के लिए अच्छा नहीं है। नरायण मूर्ति की इस आवाज में रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने भी अपना सुर मिलाया है। 
    आने वाले दिनों में हो सकता है कि अन्य पूंजीपति वर्ग भी अपना विरोध का स्वर प्रकट करें। या यह भी हो सकता है कि वे अपने तात्कालिक और दूरगामी हितों को देखते हुए चुप लगाये रखें और मोदी एण्ड कंपनी को बढ़ावा देते रहें। आखिर इन्होंने ही तो गुजरात नरसंहार के अभियुक्तों मोदी-शाह को आगे बढ़ाया और दिल्ली तक पहुँचाया। 
    मोदी ने अभी तक एक रणकौशल के तहत अपने बनेले चेहरे को छिपा रखा था तथा खून-खराबे का जिम्मा छुटभैयों को सौंप रखा था। पर बिहार चुनाव में संभावित हार का खतरा सामने आते ही उन्होंने अपना असली चेहरा सामने कर दिया और सीधे-सीधे मुसलमान विरोध पर उतर आये। उदार पूंजीवादी लोग हैरान हैं कि देश का प्रधानमंत्री ऐसा कैसे कर सकता है। पर वे हैरान तभी हो सकते हैं जब सचेत तौर पर मोदी के अतीत को भूल जायें। गुजरात नरसंहार मोदी-शाह के लिए आकस्मिक मामला नहीं था। वह उनका डी.एन.ए. है। 
   अपने चैतरफा विरोध के बावजूद संघ मंडली आक्रामक है। अपना विरोध होता देख उन्होंने यह रणकौशल अपना रखा है। यह रणकौशल आगे भी जारी रहेगा। इसमें वह सरकारी मशीनरी का भरपूर इस्तेमाल कर रही है। यदि खूनी संघ मंडली को पीछे ढकेलना है तो इसके खिलाफ प्रतिरोध को और तीव्र करना होगा। इसे आक्रामक के बदले रक्षात्मक मुद्रा में ढकेलना होगा। भारतीय समाज में अभी भी इतनी शक्तियां मौजूद हैं कि इसे पीछे ढकेल सकें। उन सबको इसके लिए एकजुट करना होगा या कम से कम एक साथ हमला करने के लिए संयोजित करना होगा।  

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