Thursday, September 17, 2015

नेपाल में नया संविधान

     अंततः बुधवार, 16 सितंबर की रात को नेपाल में नये संविधान को संविधान सभा ने पास कर दिया। यह संविधान 20 सितंबर से लागू हो जायेगा। संविधान पास किये जाने के समय सभी मधेसी पार्टियों ने संविधान सभा का बहिष्कार कर रखा था जबकि राजा समर्थक राष्ट्रीय प्रजातांत्रिक पार्टी ने नये संविधान के विरोध में मतदान किया।
     20 तारीख को नया संविधान लागू होते ही संविधान सभा भंग हो जायेगी तथा वह आगे संसद के अगले चुनाव तक संसद का काम करेगी। महीने भर के भीतर नये राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, संसद अध्यक्ष का फिर चुनाव होगा। और एक सप्ताह के भीतर नयी सरकार गठित होगी।
       इस तरह अब वह प्रक्रिया पूरी हो गई है जो पिछले 9 वर्षों से जारी थी- 2006 के जनांदोलन और राजशाही के समपर्ण के बाद से। इस बीच एक संविधान सभा चार साल चल कर बिना संविधान बनाये भंग हो गई जबकि इस संविधान सभा को भी 20 महीने लग गये।
      अततः नेपाल को नया संविधान मिल गया- जन प्रतिनिधियों द्वारा बनाया गया संविधान। पर यह वास्तव में कितना नया है? इसमें वास्तव में केवल दो ही चीजें नयी हैं: राजशाही का खात्मा और नेपाल को हिन्दू राष्ट्र से धर्म निरपेक्ष घोषित करना। बाकी मामलों में यथास्थिति बनाये रखने में यथास्थितिवादी शक्तियां कामयाब हो गई हैं।
     नेपाल में नया संविधान बनने में 9 साल इसलिए लग गये कि यथास्थितिवादियों और परिवर्तनवादियों में भीषण द्वन्द्व था। पहले की जहां नुमाइंदगी नेपाली कांग्रेस, एमाले और राप्रपा कर रही थीं वहीं दूसरे की माओवादी पार्टियां और मधेसी पार्टियां। जहां माओवादी समाज के आमूल चूल बदलाव के पक्षधर थे वहीं मधेसी क्षेत्रीय पहचान और स्वायत्तता के।
   पिछले 9 सालों में यही हुआ है कि माओवादी लगातार पीछे हटते और समझौते करते गये हैं जबकि यथास्थितिवादी आगे बढ़ते गये हैं। माओवादियों के पीछे हटने के कारण मधेसी भी पीछे हटते गये हैं। हालात वहां पहुंच गये कि जहां पहली संविधान सभा संघीय ढांचे के सवाल पर अटक कर भंग हुई वहीं यह दूसरी संविधान सभा इस दिशा में बिना कोई बदलाव किये और मधेसी पार्टियों के बहिष्कार और विरोध प्रदर्शन के बावजूद संविधान बनाने में सफल हो गई। पिछले तीन साल में यथास्थितिवादी इतनी प्रगति करने में कामयाब रहे।
    नेपाल को पूंजीवादी जनतंत्र के चरण में ले जाने के अलावा माओवादी अन्य हर क्षेत्र में नाकामयाब रहे। उन्होंने क्रांति के दौरान कबजाई जमीनें छोड़ दीं, उन्होंने नेपाली सेना का रूपांतरण छोड़ दिया, उन्होंने दलितों और जनजातियों का विशेष अधिकार छोड़ दिया और अंत में उन्होंने पहचान आधारित संघीय ढांचा छोड़ दिया। इतना सब कुछ छोड़ देने के बाद भी यदि प्रचण्ड नये संविधान के बनने पर खुशी से मुस्कराते हैं तो यह केवल यही दिखाता है कि वे 2005-6 से कितना पीछे चले गये हैं।
     लेकिन नया संविधान बन जाने मात्र से नेपाल की वे समस्याएं हल नहीं हो जायेंगी जिन्होंने क्रांति को जन्म दिया था। यह अभी से स्पष्ट है जब संविधान पास हो जाने के समय ही मधेसी और थारू विरोध प्रदर्शनों में चालीस से ज्यादा लोग मारे गये हैं और सेना को कमान संभालनी पड़ी है। यह भी कम संकेत सूचक नहीं है कि संविधान पास करने वालों ने ठीक उसी समय घोषित किया कि आने वाले समय में संविधान को मांजा जायेगा और इसके लिए मधेसी पार्टियों से बात शुरु की जायेगी। यानी नया संविधान लागू होने के बावजूद पुराना संघर्ष जारी रहेगा।
     पर इस पुराने संघर्ष की सीमायें हैं। यह केवल रगड़-घिस को ही जन्म दे सकता है, किसी क्रांतिकारी बदलाव को नहीं। नेपाल में बदलाव की जो प्रक्रिया 1996 में जनयुद्ध के साथ शुरु हुई थी अब वह अपनी सारी संभावनायें निपटा चुकी है।
    नेपाल में क्रांतिकारी बदलाव की प्रक्रिया अब नये सिरे से ही शुरु हो सकती है। यह प्रक्रिया ही नेपाल को पूंजीवादी जनवाद के पार ले जायेगी-समाजवाद की ओर। पर प्रचण्ड और भट्टाराई की वर्तमान स्थिति को देखते हुए उनसे इस दिशा में बहुत उम्मीद नहीं बंधती और न ही किरन-बादल से। यदि इन्हें क्रांति की नयी प्रक्रिया शुरु करनी है तो पहले खुद का ही क्रांतिकारी रूपांतरण करना पड़ेगा।
     जो भी हो, दुनिया के बाकी देशों की तरह नेपाल में भी क्रांति की नयी प्रक्रिया शुरु होगी- चाहे देर से या चाहे जल्दी। और यह नयी प्रक्रिया ही नेपाल की मजदूर-मेहनतकश जनता को वहां ले जायेगी जहां जाने का सपना जनयुद्ध ने दिखाया था पर जहां तक वह पहुंच नहीं पाया।

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