लगता है संघियों ने सारे हिंदुस्तान को शाकाहारी बनाने की ठान ली है। उन्हें यह लगता है कि यह उनकी हिंदुत्व की परियोजना के लिए जरूरी है। उन्होंने अपने खाकी निक्करधारियों के लिए यह प्रचारित कर रखा है कि हिंदुओँ के स्वर्ण युग में सारे लोग घास-फूस खाकर ही जीवित रहते थे।
संघी अपनी सरकारों का इस्तेमाल कर न केवल गाय के मांस को सारे देश में प्रतिबंधित कर रहे हैं बल्कि अन्य बड़े जानवरों मसलन भैंसों के भी। अब तो हद हो रही है जब वे किसी भी तरह के मांस की निषेधाज्ञा लागू करने की ओर बढ़ रहे हैं।
बीते दिनों महाराष्ट्र सरकार ने जैन समुदाय के त्यौहार का हवाला देते हुए कुछ दिनों के लिए किसी भी तरह के मांस बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। अब राजस्थान, गुजरात और जम्मू कश्मीर की सरकारों ने इसे दुहराया है। यह इतना भौंडा प्रयास है कि संघियों के सहयोगी और कई मामलों में उनसे भी उद्दंड शिवसेना ने भी महाराष्ट्र सरकार के मांस प्रतिबंध पर अपना विरोध व्यक्त कर दिया।
यह अजीबो-गरीब है कि जिस देश में नब्बे प्रतिशत से ज्यादा लोग मांसाहारी हों वहां लोगों को शाकाहारी बनाने की मुहिम चलाई जाए और इसके लिए सरकारी डंडा चलाया जाए। पर यदि संघी इस तरह की हरकतें नहीं करेंगे तो वे अपने प्रतिगामी, पुरातनपंथी चरित्र के अनुरूप व्यवहार नहीं करेंगे।
मनुष्य अपने जैविक स्वभाव से ही मांसाहारी जीव है। उसकी शारीरिक संरचना मांसाहारी की है। अपने प्यारे भारतवर्ष के अतीत में यानी संघियों के सबसे प्रिय वैदिक काल में सारे लोग मांसाहारी थे- गौ मांस भक्षण समेत। वैदिक साहित्य में गोमांस भक्षण के अनगिनत हवाले मिलते हैं। सबसे प्रसिद्ध हवाला “शतपथ ब्राह्मण” में है जिसमें ऋषि याज्ञवल्क्य (ब्रह्म सिद्धांत के प्रतिपादक) पूरी दृढ़ता से कहते हैं कि जब तक गाय का मांस उन्हें स्वादिष्ट लगता है और उनके शरीर को पुष्ट करता है, वे गाय का मांस खाते रहेंगे। भारत में शाकाहार की शुरुआत बौद्ध और जैन धर्म के उद्भव से हुई जिसे बाद में प्रतिक्रिया स्वरूप ब्राह्मण धर्म यानी बाद के हिंदू धर्म ने अपना लिया (यहां यह याद रखना होगा कि बौद्ध धर्म जीव हत्या का विरोधी था, मांस खाने का नहीं।
जब ब्राह्मणों ने प्रतिक्रिया स्वरूप मांसाहार पर प्रतिबंध लगाया भी तो यह हिंदुओं के बहुत थोड़े से हिस्से तक सीमित था। आबादी का बहुलांश यानी शूद्र और अन्त्यज तो मांस खाते ही थे। इन्हें सामाजिक तौर पर हीन मानने का एक कारण यह भी था। क्षत्रियों को उनके लड़ाई के पेशे के कारण मांस खाने की इजाजत ब्राह्मणों ने ही दे रखी थी। बच गए केवल वैश्य और ब्राह्मण। ब्राह्मण तो इस विरोध के प्रस्तोता थे ही जबकि वैश्यों में बौद्ध और जैन धर्म का काफी प्रभाव था।
लेकिन यह तो प्राचीन और मध्य काल की बात है। आज तो ब्राह्मण और वैश्य भी पर्याप्त मत्रा में मांसाहार के शौकीन हैं। ज्यादातर लोग अब शाकाहार को केवल एक सनक मानते हैं।
पर संघी इस सनक को ही भारतीय समाज की संस्कृति बना देना चाहते हैं। यह उन्हें अपनी मध्यकालीन सामंती ब्राह्मणी संस्कृति में जाने के लिए जरूरी लगता है यह संघी परियोजना उसी मध्य युगीन ब्राह्मणी मानसिकता से निकलती है जिससे संघियों की अन्य परियोजनाएं।
शाकाहार या मांसाहार व्यक्ति का अपना निजी मामला है। किसी को भी अपना भोजन चुनने की आजादी है। पर फासीवादी संघी हर आजादी की तरह इसे भी छीन लेना चाहते हैं।
संघियों की फासीवादी परियोजना का हिस्सा होने के कारण इसका समग्रता में भंडाफोड़ करने और इसका दृढ़ता से विरोध करने की जरूरत है।
संघी अपनी सरकारों का इस्तेमाल कर न केवल गाय के मांस को सारे देश में प्रतिबंधित कर रहे हैं बल्कि अन्य बड़े जानवरों मसलन भैंसों के भी। अब तो हद हो रही है जब वे किसी भी तरह के मांस की निषेधाज्ञा लागू करने की ओर बढ़ रहे हैं।
बीते दिनों महाराष्ट्र सरकार ने जैन समुदाय के त्यौहार का हवाला देते हुए कुछ दिनों के लिए किसी भी तरह के मांस बिक्री पर प्रतिबंध लगा दिया। अब राजस्थान, गुजरात और जम्मू कश्मीर की सरकारों ने इसे दुहराया है। यह इतना भौंडा प्रयास है कि संघियों के सहयोगी और कई मामलों में उनसे भी उद्दंड शिवसेना ने भी महाराष्ट्र सरकार के मांस प्रतिबंध पर अपना विरोध व्यक्त कर दिया।
यह अजीबो-गरीब है कि जिस देश में नब्बे प्रतिशत से ज्यादा लोग मांसाहारी हों वहां लोगों को शाकाहारी बनाने की मुहिम चलाई जाए और इसके लिए सरकारी डंडा चलाया जाए। पर यदि संघी इस तरह की हरकतें नहीं करेंगे तो वे अपने प्रतिगामी, पुरातनपंथी चरित्र के अनुरूप व्यवहार नहीं करेंगे।
मनुष्य अपने जैविक स्वभाव से ही मांसाहारी जीव है। उसकी शारीरिक संरचना मांसाहारी की है। अपने प्यारे भारतवर्ष के अतीत में यानी संघियों के सबसे प्रिय वैदिक काल में सारे लोग मांसाहारी थे- गौ मांस भक्षण समेत। वैदिक साहित्य में गोमांस भक्षण के अनगिनत हवाले मिलते हैं। सबसे प्रसिद्ध हवाला “शतपथ ब्राह्मण” में है जिसमें ऋषि याज्ञवल्क्य (ब्रह्म सिद्धांत के प्रतिपादक) पूरी दृढ़ता से कहते हैं कि जब तक गाय का मांस उन्हें स्वादिष्ट लगता है और उनके शरीर को पुष्ट करता है, वे गाय का मांस खाते रहेंगे। भारत में शाकाहार की शुरुआत बौद्ध और जैन धर्म के उद्भव से हुई जिसे बाद में प्रतिक्रिया स्वरूप ब्राह्मण धर्म यानी बाद के हिंदू धर्म ने अपना लिया (यहां यह याद रखना होगा कि बौद्ध धर्म जीव हत्या का विरोधी था, मांस खाने का नहीं।
जब ब्राह्मणों ने प्रतिक्रिया स्वरूप मांसाहार पर प्रतिबंध लगाया भी तो यह हिंदुओं के बहुत थोड़े से हिस्से तक सीमित था। आबादी का बहुलांश यानी शूद्र और अन्त्यज तो मांस खाते ही थे। इन्हें सामाजिक तौर पर हीन मानने का एक कारण यह भी था। क्षत्रियों को उनके लड़ाई के पेशे के कारण मांस खाने की इजाजत ब्राह्मणों ने ही दे रखी थी। बच गए केवल वैश्य और ब्राह्मण। ब्राह्मण तो इस विरोध के प्रस्तोता थे ही जबकि वैश्यों में बौद्ध और जैन धर्म का काफी प्रभाव था।
लेकिन यह तो प्राचीन और मध्य काल की बात है। आज तो ब्राह्मण और वैश्य भी पर्याप्त मत्रा में मांसाहार के शौकीन हैं। ज्यादातर लोग अब शाकाहार को केवल एक सनक मानते हैं।
पर संघी इस सनक को ही भारतीय समाज की संस्कृति बना देना चाहते हैं। यह उन्हें अपनी मध्यकालीन सामंती ब्राह्मणी संस्कृति में जाने के लिए जरूरी लगता है यह संघी परियोजना उसी मध्य युगीन ब्राह्मणी मानसिकता से निकलती है जिससे संघियों की अन्य परियोजनाएं।
शाकाहार या मांसाहार व्यक्ति का अपना निजी मामला है। किसी को भी अपना भोजन चुनने की आजादी है। पर फासीवादी संघी हर आजादी की तरह इसे भी छीन लेना चाहते हैं।
संघियों की फासीवादी परियोजना का हिस्सा होने के कारण इसका समग्रता में भंडाफोड़ करने और इसका दृढ़ता से विरोध करने की जरूरत है।
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