Thursday, August 13, 2015

नूरा-कुश्ती में असली लात घूसे

       संसद का तीन सप्ताह का मानसून सत्र बिना किसी काम-काज के समाप्त हो गया। वजह थी कांग्रेस पार्टी एवं अन्य विपक्षी दलों द्वारा भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सरकार को घेरना और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का इस्तीफा मांगना। इस सत्र की समाप्ति पर प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सभी सांसदों से कहा कि वे देश भर में खासकर कांग्रेसी और वामपंथी संसदीय क्षेत्रों में जाकर बताएं कि कांग्रेस पार्टी एक परिवार की खातिर देश का विकास नहीं होने दे रही है। 
       संसद के न चलने को लेकर पूंजीवादी प्रचारतंत्र से लेकर पूंजीपति वर्ग तक नाराज है। पूंजीपतियों ने तो बाद के दिनों में बाकायदा एक ऑनलाइन अभियान ही चला दिया था इसके लिए। 
       मध्यम वर्गीय हलकों से लेकर पूंजीपति वर्ग तक संसद को काम करते देखना चाहते हैं। मध्यम वर्ग यह चाहता है इसके बावजूद कि उसे नेताओं और पार्टियों में कोई भरोसा नहीं है, वह उन्हें चोर-उच्चकों का गिरोह मानता है।         
      जहां तक पूंजीपति वर्ग का सवाल है वह उन कानूनों को पास होते देखना चाहता है जिसका मोदी सरकार ने वायदा कर रखा है। भूमि अधिग्रहण कानून और श्रम कानूनों में परिवर्तन इनमें प्रमुख हैं। इसके अलावा जीएसटी इत्यादि विधेयक भी हैं। मोदी जिस विकास को अपने सांसदों द्वारा प्रचारित करने की बात कर रहे हैं उसका संबंध इन्हीं कानूनों से है। 
       मध्यम वर्ग और पूंजीपति वर्ग से इतर संसद का चलना या न चलना देश की मजदूर-मेहनतकश आबादी से क्या संबंध रखता है?  यदि संसद चले तो उन्हें इससे क्या फायदा होगा? 
     पहली नजर में यह हर मजदूर और छोटे-मझोले किसान की समझ में आने वाली बात है कि यदि संसद चलती है तो उसकी गरदन कसने वाले कानून पास हो जाएंगे। विपक्षी या तो इसमें सरकार का साथ देंगे या फिर नाम के लिए विरोध कर सरकार को इसे करने देंगे। यानी संसद का सुचारू रूप से चलना उसके हित में नहीं है। 
पर पूंजीपति वर्ग की राजनीतिक व्यवस्था को संचालित करने वाली संसद यूं ही तो हमेशा नहीं स्थगित होती रहेगी। उसे अपना जरूरी काम तो निपटाना ही होगा। यह वैसे ही किया जाएगा जैसे पहले किया जाता रहा है। पिछले कई सालों से लगातार यह होता रहा है कि लंबे हंगामे के बाद कुछ दिनों के भीतर सारे काम निपटा दिए जाते रहे हैं। इस पर पक्ष-विपक्ष की मौन सहमति रही है क्योंकि उन्हें अपनी व्यवस्था चलानी है। 
      इस बार यह नहीं हो सका तो इसीलिए कि कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी मोदी और भाजपा की वह छवि तोड़ना चाहते थे जो उन्होंने डेढ़-दो साल से गढ़ रखी थी और जिसका उन्हें मौका मिल गया था। इस तरह के मौके को गंवा देना पूंजीवादी राजनीति में आत्मघाती होता है। उस स्थिति में तो यह और आत्मघाती होता जिसमें मोदी और भाजपा बाकियों को लंबे समय के लिए सत्ता से दूर कर देना चाहते हैं। 
     यानी पूंजीवादी पार्टियों के अपने व्यक्तिगत हित इन तीन हफ्तों में व्यवस्था के और इसीलिए उनके सामूहिक हितों पर भारी पड़े। इसीलिए पूंजीपति वर्ग ने उन्हें प्रकारांतर से फटकार भी लगाई। पर पूंजीवादी व्यवस्था में यह आम तौर पर होता है कि व्यक्तिगत हित सामूहिक हितों से टकरा जाते हैं। पूंजीपति वर्ग का शास्त्रीय सिद्धान्त तो यहां तक कहता है कि पूंजीवादी व्यवस्था में सामूहिक हित व्यक्तिगत हितों को आगे बढ़ाने के माध्यम से ही सधते हैं। पूंजीपति स्वयं अपने व्यावसायिक मामले में इसी पर चलते हैं। वे एक-दूसरे का गला काटने में कभी नहीं चूकते। पर वे अपने सेवकों यानी पूंजीवादी नेताओं से ऐसी उम्मीद नहीं करते। उनसे तो वे उम्मीद करते हैं कि वे सब मिल-जुलकर पूंजीपति वर्ग की सेवा करेंगे। 
        मजदूर वर्ग को पूंजीपति वर्ग के इन सेवकों से न केवल कोई उम्मीद नहीं है बल्कि वह अच्छी तरह जानता है कि आपसी लड़ाई-झगड़े से फुर्सत पाते ही वे उसके और ज्यादा शोषण-उत्पीड़न पर विचार करना शुरु कर देंगे। वे इसके लिए नए-नए तरीके खोजने और उसे कानूनी जामा पहनाने में मशगूल हो जाएंगे।
       इसीलिए मजदूर वर्ग संसद के न चलने से न केवल चिंतित नहीं होता बल्कि वह पूंजीवादी व्यवस्था के इस संचालिका पर लानत भेजता है। 

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