24 अगस्त का सोमवार दुनिया भर के शेयर बाजारों के लिए एक और काला सोमवार साबित हुआ। इस दिन दुनिया भर के शेयर बाजार लुढ़क गये, कुछ ज्यादा तो कुछ बहुत ज्यादा।
सबसे ज्यादा गिरावट चीन के शेयर बाजार में देखी गई। चीन का शंघाई कम्पोजिट सूचकांक करीब साढ़े आठ प्रतिशत गिर गया। (अगले दिन भी चीन के बाजार में साढ़े सात प्रतिशत की बड़ी गिरावट रही)। जापान समेत यूरोप के शेयर बाजार औसतन चार-पांच प्रतिशत गिरे। सबसे अंत में खुलने वाला अमेरिकी बाजार भी करीब तीन प्रतिशत लुढ़का। भारत का सेनसेक्स भी सोलह सौ से ज्यादा प्वाइंट लुढ़क गया यानी करीब छः प्रतिशत।
दुनिया के शेयर बाजारों में उथल-पुथल का यह आलम था कि लगभग सारी ही सरकारें बाजार को थामने के लिए हर तरह का प्रयास करती दिखीं। अमेरिकी सरकार से लेकर भारत सरकार तक के प्रवक्ता सामने आये और उन्होंने बताया कि अर्थव्यवस्था की बुनियाद मजबूत है, घबराने की कोई बात नहीं है। सबने यह जताने का प्रयास किया कि मसला केवल चीन की अर्थव्यवस्था में दिक्कत का है, बाकी सब ठीक है।
लेकिन चीन की अर्थव्यवस्था यदि भूटान की तरह होती तो चिंता की कोई बात नहीं होती। यहां तो आलम यह है कि चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिकी अर्थव्यवस्था की आधी है और पिछले सालों में वैश्विक वृद्धि दर में चीन का योगदान एक तिहाई का रहा है। कुछ लोग तो इसे क्रय शक्ति समतुल्यता पर चीन से भी बड़ी अर्थव्यवस्था मानते हैं।
चीन की यह बड़ी अर्थव्यवस्था पिछले महीनों में तेजी से नीचे गई है। चालू विश्व आर्थिक संकट के आठ सालों में भी ज्यादातर दस प्रतिशत से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था अब छः प्रतिशत से भी नीचे जाती दीख रही है। यहां रीयल स्टेट से लेकर फैक्टरियों तक में निवेश का भारी-भरकम बुलबुला अब फूटने की के कगार पर खड़ा है। ऐसा होने से बचाने के चीनी सरकार के ही प्रयास अब तक असफल साबित हुए हैं।
पर बाकी देशों के क्या हालात हैं? क्या वहां अर्थव्यवस्था के बुनियादी तत्व वाकई मजबूत हैं, जैसा कि सरकारें दावा कर रही हैं। ऐसा बिल्कुल भी नहीं हैं। विकसित देशों में कोई भी अर्थव्यवस्था 2007 की स्थिति तक नहीं पहुंच पाई है। ज्यादातर में वह इससे बहुत नीचे है। कर्जों का अंबार पहले की तरह लदा हुआ है जबकि बेरोजगारी जरा भी कम होने का नाम नहीं ले रही है। सारे ही बाजारों में मांग का संकट बना हुआ है। इसका एक सबसे बड़ा प्रमाण तो यह है कि सभी देशों में ब्याज दरें शून्य के आस-पास बनी हुई हैं। कई महीनों से लगातार बात करने के बावजूद अमेरिकी सरकार की हिम्मत अपने यहां ब्याज दरें बढ़ाने की नहीं पड़ रही है। इस तरह सरकारों की बातें बस लुढ़कते-पुढ़कते बाजार को आश्वस्त करने के लिए ही हैं।
ऐसा नहीं है कि यह सब अप्रत्याशित है। पिछले कई महीनों से सारी ही वैश्विक संस्थानों की रिपोर्टें दबी जुबान से इस ओर इशारा करती रहीं हैं। वे ढके-मुंदे स्वर में जिन आशंकाओं को जाहिर करती रही हैं अब वे सच हो रही हैं।
शेयर बाजार के इस उथल-पुथल में अपना योगदान करते हुए ग्रीस के प्रधानमंत्री अलेक्सी सिप्रास ने इस्तीफा दे दिया क्योंकि उनकी पार्टी के करीब एक तिहाई सांसद वित्त सट्टेबाजों के सामने उनके समर्पण को लेकर विद्रोही हो गये थे। उन्होंने आगामी चुनावों के लिए पाॅपुलर युनिटी नामक नयी पार्टी बना ली है। ग्रीस के इस घटनाक्रम ने यूरोपीय अर्थव्यवस्था के संकट में और इजाफा कर दिया है।
कुल मिलाकर वैश्विक अर्थव्यवस्था के हालात संगीन नजर आ रहे हैं। चालू विश्व आर्थिक संकट के नवें वर्ष में फिर इसके दूसरे वर्ष जैसे गंभीर हालात पैदा हो रहे हैं। सितंबर-अक्टूबर 2008 में दुनिया भर के वित्त बाजारों की सांसें थमने लगीं थीं। तब सरकारों ने अपनी सारी ताकत झोंक कर इस उखड़ती सांस को बचा लिया था। अब गले तक कर्ज में डूबी और शून्य ब्याज दरों वाली सरकारें क्या करेंगी?
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