याकूब मेनन की मौत की सजा के सिलसिले में देश में एक बार फिर मौत की सजा के आचित्य पर बहस शुरु हो गयी है। जहां दक्षिणपंथी अपने चरित्र के अनुरूप मौत की सजा के पक्ष में चीख-चीख कर मुंह से झाग निकाल रहे हैं वहीं पूंजीवादी उदारवादी हलकों और वामपंथियों की ओर से इसे खत्म करने की मांग की जा रही है।
दक्षिणपथिंयों की बातों का सार यही है कि अपराधी को अपने किये की सजा मिलनी चाहिए। इसी से दूसरों को भी सीख मिलेगी और लोग अपराध से डरेंगे। इस तर्क में अंतर्निहित है कि अपराध के लिए व्यक्ति जिम्मेदार होता है।
जो लोग मौत की सजा के विरोध में हैं वे ज्यादातर तकनीकी या फिर मानवता के आधार पर इसका विरोध करते हैं। उनका कहना है कि अक्सर ही सजा देने में गलती होती है। ऐसे में किसी बेकसूर की जान ले लेना निहायत गलत है। साथ ही यह दलील भी दी जाती है कि किसी की जान लेना अपने आप में गलत है। इसकी किसी को भी इजाजत नहीं दी जानी चाहिए, सरकार को भी नहीं।
भारतीय संदर्भ में यह भी कहा जा रहा है कि यहां फांसी की सजा पाने वाले ज्यादातर आर्थिक आधार पर कमजोर और जातिगत व धार्मिक आधार पर उत्पीडि़त हिस्सों से आते हैं। इसमें राज्य का पूर्वाग्रह भी काम करता है और उसकी स्थिति भी।
मौत की सजा के विरोधी यह भी कहते हैं कि दुनिया भर में 140 देशों ने मौत की सजा अपने यहां खत्म कर दी है। इसलिए भारत में भी इसे समाप्त होना चाहिए। यह समाज के ज्यादा सभ्य होने की निशानी है और भारत को भी ज्यादा सभ्य बन जाना चाहिए।
मौत की सजा के विरोधियों की उपरोक्त बातों में सच्चाई है। पर इस सम्बंध में यह मूल बात नहीं है। इससे नरपिशाचों और आदमखोरों का मुकाबला नहीं किया जा सकता।
इस सम्बंध में मूल बात यह है कि अपराध के लिए प्रथमतः व्यक्ति जिम्मेदार नहीं होता बल्कि वह समाज जिम्मेदार होता है जो अपराधी पैदा करता है। इसलिए अपराध के लिए यदि सजा मिलती है तो पहले समाज को ही मिलनी चाहिए।
यह एकदम सहज सी बात है कि कोई व्यक्ति अपराधी के रूप में पैदा नहीं होता। वह समाज में अपराधी बनता है या समाज उसे अपराधी बनाता है। इस सहज-सीधी बात को पूंजीपति वर्ग तब समझता था जब वह पैदा हो रहा था और सामंती व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष कर रहा था। तब उसने सामंती व्यवस्था के न्याय का विरोध किया था जिसमें आंख के बदले आंख और मौत के बदले मौत का प्रावधान था।
लेकिन जब एक बार पूंजीवादी व्यवस्था स्थापित हो गयी तो पूंजीपति वर्ग वह सब भूल गया और वह भी अपराध के लिए व्यक्ति को दोषी मानने लगा और उसे सजा देने लगा। यह यहां तक हुआ कि वह व्यक्तियों में अपराध के जीन भी खोजने लगा।
अन्याय-अत्याचार और भंयकर शोषण पर आधारित पूंजीवाद में अपराध बड़े पैमाने पर फलता-फूलता है और अंत में तो वह संगठित उद्योग का भी रूप धारण कर लेता है। अब वह इक्का-दुक्का व्यक्तियों का मामला नहीं रह जाता। इस संगठित उद्योग में सरकारें, पुलिस-प्रशासन और यहां तक कि न्याय व्यवस्था भी शामिल हो जाती है। इसके बावजूद सजा व्यक्तिओं को मिलती रहती है। इसका स्वाभाविक परिणाम यह होता है सजा केवल कमजोरों को ही मिलती है। बलवान आसानी से बच निकलते हैं।
जहां तक व्यवस्था को चुनौती देने वालों का मामला है, जिन्हें व्यवस्था सबसे खतरनाक अपराधी मानती है, वे हमेशा या तो उत्पीडि़त-शोषित वर्गों-तबकों से आते हैं या उनके प्रतिनिधि होते हैं। इनसे व्यवस्था जरा भी मुलामियत से पेश नहीं आती।
इस पतित पूंजीवादी व्यवस्था में अपराध समाप्त नहीं किया जा सकता चाहे व्यक्तियों को कितनी ही कड़ी सजाएं दी जायें। सबसे ज्यादा मौत की सजा देने वाले देश इसके प्रमाण हैं। पूंजीवादी समाज में अपराध केवल उसी हद तक कम हो सकते हैं जिस हद तक ‘कल्याणकारी राज्य’ मजबूत हो। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में विकसित पूंजीवादी देशों में भी ‘कल्याणकारी राज्य’ को कमजोर किया गया है। उसी अनुपात में उन देशों में अपराध भी बढ़े हैं।
यदि अपराध को समाप्त करना है तो इस पतित पूंजीवादी व्यवस्था को समाप्त करना होगा जो अपने शोषण व अन्याय-अत्याचार वाले चरित्र के कारण ही बड़े पैमाने के अपराध और अपराधी पैदा करती है। नये समाजवादी समाज में भी तब तक कुछ अपराध होते रहेंगे जब तक पुराने पूंजीवादी के अवशेष बचे रहेंगे। जब एक बार समाज कम्युनिज्म के चरण में पहुंच जायेगा तब अपराध समाप्त हो जायेंगे।
समाजवादी समाज में अपराध से निपटने का तरीका इसकी जड़ों को समाप्त करने का और अपराधी को सुधार कर समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाने को होगा। ‘अंतोन मकारेंको’ का उपन्यास ‘जीवन की ओर’ इसका अच्छा उदाहरण है।
पूंजीवादी समाज में हो रहे अपराधों को इसी दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए और इसी दृष्टिकोण से पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा दी जा रही मौत की सजाओं को विरोध किया जाना चाहिए।
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