Thursday, July 30, 2015

दो शव यात्राएं और एक शोक संदेश !

       अवुल फ़कीर जैनुलब्दीन अब्दुल कलाम और याकूब अब्दुल रज्जाक मेनन आज जमीन में समा गये। श्रद्धालुओं की भाषा में मिट्टी से आये थे और आज फिर मिट्टी में मिल गये। पर इसके सिवा दोनों में कोई समानता नहीं थी। 
       पहला व्यक्ति भारतीय राज्य और भारत के पूंजीपति वर्ग का बहुत सम्मानित व्यक्ति था। वह इनके द्वारा प्यार से ‘मिसाइल मैन’ के नाम से पुकारा जाता था। वह जनसंहारक हथियारों को पैदा करने वाले संस्थानों का मुखिया रहा और अंततः भारतीय राज्य का मुखिया बन गया। उसने पूरा जीवन जिया और चौरासी साल की उम्र में इस दुनिया से रुखसत हुआ। उसकी मौत पर राष्ट्रीय शोक घोषित हुआ और राजकीय सम्मान के साथ वह जमींदोज किया गया।
       दूसरा व्यक्ति भारतीय राज्य सत्ता और भारत के पूंजीपति वर्ग के लिए बेहद घृणित व्यक्ति था। उसे आतंकवादी कहा जाता था। वह पेशे से शाकाहारी यानी लेखा-जोखा रखने वाला व्यक्ति था जिस पर जनसंहार की कार्रवाई के षडयंत्र में लिप्त होने का आरोप लगा। वह 21 साल जेल में रहा। उसने अपना आधा जीवन भी आजादी से नहीं जिया और बावन साल की उम्र में ही अपने त्रिपनवे जन्म दिन पर दुनिया से रुखसत कर दिया गया। उसकी मौत राष्ट्रीय घृणा दिवस बन गयी और राज्य के न चाहने के बावजूद अपने चाहने वालों के हाथों वह दफन हुआ। 
      दोनों ही शवयात्राओं में भारी भीड़ थी। पहले में राज्य प्रायोजित और दूसरे में स्वयं स्फूर्त। दोनों ही जगह सुरक्षा के भारी इंतजाम थे-पहले में भीड़ बेकाबू हो सकती थी, दूसरे में विद्रोही।
      दोनों ही मरहूम देश की उस कौम से आते थे जिससे भारतीय राज्य लगातार अपनी देश भक्ति साबित करने को कहता है। वह कौम जिसके सदस्य चाह के भी अपने मन की बात नहीं कह सकते। इस उत्पीडि़त कौम का एक सदस्य भारतीय राज्य का हिस्सा बनकर वह नमूना बन गया जिसके माध्यम से वह पूरी कौम को ललकारता है कि तुम भी ऐसे ही पालतू बनो। दूसरा भारतीय राज्य से टकराकर वह नमूना बन गया जिसके माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि टकराने का अंजाम मौत होगा। यह अजीब है कि एक पूरी कौम को पालतू बनने और मौत को गले लगाने के बीच चुनाव का मौका दिया जाय पर भगवा रंग में रंग चुका भारतीय राज्य ऐसा ही कर रहा है। 
      पूरे देश में चर्चित इन दो शव यात्राओं में भारतीय राज्य की ओर से केवल एक ही शोक संदेश था। और वह था अपने आदमी के लिए। दूसरे के लिए शोक संदेश का सवाल ही नहीं था। वहां केवल अनकहा संदेश था-दूसरे दर्जे का नागरिक बनने के लिए तैयार रहो। 
      हिटलर के नाजीवाद ने बर्बरता की सारी हदें पर कर दी थीं। हिटलर के ये नये अनुयाई उनसे पीछे नहीं रहना चाहते। इसीलिए वे एक संदेहास्पद गुनहगार को ठीक उसके जन्म दिन पर फांसी चढ़ाते हैं। वे परिजनों से उसकी यादें भी छीन लेना चाहते हैं या फिर यह कि उसकी यादें उनके लिए दुःस्वन बन जायें।
       आज देश में बहुत से लोग होंगे जो इस बर्बरता के सामने अपने खोल में सिमट रहे होंगे। बहुत सारे लोग होंगे जो अपनी जुबान पर खुद ताला लगा रहे होंगे। बहुत सारे लोग होंगे जो केवल अपनी चमड़ी की चिन्ता कर रहे होंगे। इन सारे लोगों को उस प्रसिद्ध कविता की अंतिम लाइनों को याद रखना होगा जो जर्मनी के ऐसे ही लोगों को संबोधित कर लिखी गयी थी:
और अंत में वे मेरे लिए आये
पर मेरे लिए बोलने वाला कोई नहीं बचा था 
        आज जरूरत है कि समय रहते आवाज बुलंद की जाये। जरूरत है कि बर्बर कातिलों की बर्बरता का डट कर मुकाबला किया जाय।

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