वैश्विक अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर दो खबरें इस समय गंभीर दिशा की ओर संकेत कर रही हैं। इन दोनों खबरों के स्त्रोत अधिकारिक हैं।
पहली खबर के जनक भारत के रिजर्व बैंक के वर्तमान गवर्नर रघुराम राजन जी हैं। एक अर्थशास्त्री के तौर पर इनकी शोहरत में यह भी शामिल है कि इन्होंने 2008 के विश्व आर्थिक संकट की भविष्यवाणी तभी कर दी थी जब बाकी लोग जश्न में डूबे हुये थे।
राजन साहब ने अभी कुछ दिन पहले लंदन स्कूल आॅफ इकाॅनोमिक्स में एक व्याख्यान के दौरान यह कहा कि इस समय दुनिया के तमाम देशों के केन्द्रीय बैंक अपने यहां अर्थव्यवस्था में वृद्धि बढ़ाने के लिए कुछ उसी तरह का व्यवहार कर रहे हैं जैसे 1930 के दशक में संकटग्रस्त देशों की सरकारों ने किया था यानी दूसरों की कीमत पर केवल अपने बारे में सोचना और जिसका परिणाम महामंदी के रूप में आया था। हालांकि राजन साहब ने यह नहीं कहा कि हम एक बार फिर महामंदी की ओर बढ़ रहे हैं और इस मामले में रिजर्व बैंक की ओर से स्पष्टीकरण भी आया कि रघुराम राजन का यह आशय नहीं था, तब भी राजन साहब का इशारा स्पष्ट था और इसीलिए यह खबरों की सुर्खिंया भी बना।
यह पहला मौका नहीं था जब राजन साहब ने ऐसी बातें कहीं हों। इसके पहले भी वे इससे मिलती-जुलती बातें कह चुके हैं और एक अर्थशास्त्री के तौर पर यह उनकी सुविचारित राय है। इस सुविचारित राय का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि वे देश के एक बेहद जिम्मेदार पद पर हैं और कुछ भी कह देने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं। उनके बयान से शेयर बाजार ऊपर-नीचे चढ़ता-उतरता है।
राजन साहब इस तथ्य की गंभीरता की तरफ इशारा कर रहे थे कि 2007 से शुरु हुए विश्व आर्थिक संकट से निपटने के लिए सारे देशों ने अपने यहां मुद्रा का जबर्दस्त प्रसार किया है, ब्याज दरें (रेपो रेट) घटाकर लगभग शून्य के आस-पास रखी हुयी हैं और बड़े पैमाने का कर्ज हर जगह बोझ बना हुआ है। ऐसे में किसी भी नये झटके को झेलने की क्षमता सरकारों और केन्द्रीय बैंकों के पास नहीं है और सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था महामंदी की ओर जा सकती है। अब 2007-08 की तरह का हस्तक्षेप अर्थव्यवस्थाओं को नहीं बचा सकता क्योंकि सरकारों के पास इस तरह की क्षमता ही नहीं बची है। कोई भी छोटा-मोटा प्रेरक भूचाल को शुरु कर सकता है।
वैश्विक अर्थव्यवस्था की ऐसी सामान्य स्थिति में ग्रीस से आने वाली खबर इस आशंका को बढ़ा देती है कि कहीं ग्रीस ही वह प्रेरक न हो।
ग्रीस के ढाई सौ अरब डालर के विदेशी कर्जों की किश्तों को चुकाने के लिए नया कर्ज हासिल करने हेतु ग्रीस सरकार और सूदखोर तिकड़ी ( यूरोपीय संघ, यूरोपीय केन्द्रीय बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष) के बीच कोई समझौता नहीं हो सका है जबकि एक जुलाई से नये कर्ज चाहिए। ग्रीस की नयी सीरिजा सरकार ने, जो कुछ महीने पहले इसी वादे के बल पर सत्ता में आयी थी कि वह ग्रीस की जनता को तिकड़ी द्वारा और नहीं निचोड़े जाने देगी, नये किफायती कदमों को मानने से इंकार कर दिया है। इन किफायती कदमों का मतलब होता ग्रीस की जनता पर एक और बोझ जबकि उसकी हालत पहले ही बहुत खराब है। जीवन स्तर में पिछले छः-सात सालों में पहले ही एक तिहाई की गिरावट हो चुकी है, सकल घरेलु उत्पाद एक चैथाई गिर चुका है, बेरोजगारी की आम दर पच्चीस प्रतिशत तथा युवाओं में पचास प्रतिशत है। इस भयानक स्तर की परवाह न कर दुनिया भर के वित्तीय सट्टेबाजों का मुनाफा बढ़ाने की खातिर तिकड़ी नये किफायती कदम थोपना चाहती है।
प्रधानमंत्री अलेक्स सिप्रास ने पांच जुलाई को किफायत कदमों और बेल आउट पर जनमत संग्रह की घोषणा की है। तिकड़ी के साथ कोई भी समझौता तब तक के लिए टाल दिया गया है, हालांकि पिछले दरवाजे से बातचीत जारी है और तिकड़ी के अधिकारी यह उम्मीद कर रहे हैं कि कोई न कोई समझौता हो जायगा और ग्रीस 30 जून की आधी रात को अपने विदेशी कर्जों पर डिफाॅल्ट नहीं करेगा जो ग्रीस सरकार को नये कर्ज न मिलने की अवस्था में निश्चित है।
इस बीच ग्रीस सरकार ने ग्रीस के बैंकों को सप्ताह भर के लिए बन्द कर दिया है क्योंकि आशंका की इस घड़ी में हर कोई बैंक से अपना पैसा निकालने के लिए दौड़ पड़ा था। और इससे इन बैंकों के दिवालिया होने का खतरा पैदा हो गया था।
ग्रीस संकट की वर्तमान स्थिति का प्रभाव दुनिया भर के शेयर बाजारों पर पड़ रहा है और यह गंभीर आशंका व्यक्त की जा रही है कि कहीं ग्रीस इस समय 2008 का लेहमान ब्रदर्स न साबित हो। सितंबर 2008 में अमेरिकी निवेशक बैंक लेहमान ब्रदर्स के दिवालिया होने ने ही 2007 की जुलाई से चल रहे वित्तीय संकट को सारी दुनिया की वित्तीय व्यवस्था के विध्वंस के किनारे तक पहुंचा दिया था। केवल दुनिया की सारी सरकारों के समवेत प्रयास से ही उस विध्वंस को टाला जा सका था।
स्थिति वाकई बहुत गंभीर है और स्थिति बद से बदतर हो सकती है। आसमान छू रहे दुनिया के शेयर बाजार धड़ाम से गिर सकते हैं और पहले से संकटग्रस्त चल रहे उत्पादन-वितरण को रसातल में ढकेल सकते हैं।
स्वभावतः इसका सबसे ज्यादा असर मजदूर-मेहनकश जनता पर ही होगा। उसकी बदहाली तेजी से बढ़ेगी। ग्रीस जैसे हालात अन्य देशों में भी पैदा होंगे।
लेकिन इस गंभीर और क्रूर यथार्थ का दूसरा पहलू यह होगा कि 2011-12 से भी ज्यादा बड़े पैमाने के विरोध और विद्रोह का ज्वार उठेगा। शासक, पूंजीपति वर्ग और उसकी पूंजीवादी व्यवस्था को और भी बड़े पैमाने की चुनौतियों का सामना पड़ेगा। तब पूंजीवाद विरोध घर-घर का नारा बनने लगेगा।
आने वाला समय क्रांतिकारियों के लिए वाकई बड़े स्तर की चुनौतियों और संभावनाओं से भरा हुआ है।
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