यमन से भारतीय प्रवासियों की वापसी की समस्या ने यहां सभी का ध्यान यमन की ओर खींचा हालांकि पिछले चार साल से ही यमन संकटग्रस्त है। इसका एक अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले सालों में यमन पर अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा किये गये ड्रोन हमले में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गये हैं ।
युद्ध संकट पिछले सप्ताह भर से तब गहरा गया है जब सऊदी अरब ने कुवैत, बहरीन, कतर और संयुक्त अरब अमीरात के साथ मिलकर और अमेरिकी साम्राज्यवादियों तथा जियनवादी शासकों के पूर्व सहयोग और समर्थन से यमन पर हमला कर दिया। इस हमले के लिए तर्क दिया गया कि वे हौती विद्रोहियों से राष्ट्रपति मंसूर अल हादी की सरकार की रक्षा करना चाहते हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस हमले के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद इत्यादि से अनुमति लेने का दिखावा भी नहीं किया गया। अमेरिकी साम्राज्यवादी और उनके पिट्ठू हमेशा ऐसा ही करते हैं।
मसले को तब आसानी से समझा जा सकता है जब यह कल्पना की जाये कि रुसी साम्राज्यवादियों ने रुस समर्थक उक्राइनी राष्ट्रपति को बचाने के लिए सीधे-सीधे उक्रेन पर हमला कर दिया होता । रूसी साम्राज्यवादियों ने उक्रेन पर सीधा हमला करने के बदले नयी सरकार विरोधी लोगों की चोरी-छिपे ही मदद की जिसके लिए पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने रुस पर कई प्रतिबंध लगा दिये और पश्चिमी साम्राज्यवादी प्रचारतंत्र धुंआधार पुतिन के खिलाफ प्रचार कर रहा है।
यमन में मामला ठीक उलटा है। यहां पर यमन पर हमला करने वाले हैं अमेरिकी साम्राज्यवादियों के खाड़ी पिट्ठू शासक। हमला किया जा रहा है हौती विद्रोहियों के खिलाफ जिन्हें इरानी शासकों का समर्थन हासिल है और जिसमें पीछे से रुसी साम्राज्यवादी भी मदद कर रहे हैं। यानी यहां भी साम्राज्यवादियों के बीच कलह घटनाओं के पीछे मौजूद है - अंदरूनी संकट के साथ-साथ।
हौती विद्रोही करीब दशक भर से यमन में सक्रिय हैं। ‘खुदा का समर्थक’ (हौती) यह विद्रोह यमन के उत्तरी हिस्से के उन कबीलाई लोगों का है जो इस्लाम की शिया शाखा की जैदी उपशाखा को मानते हैं। इससे इनके साथ इरान के शिया शासकों का कुछ मजहबी गठजोड़ भी बनता है।
जब 2011 में अरब विद्रोह फूटा तो यमन की जनता की सड़कों पर उतर आयी। इस विद्रोह में हौती भी शामिल थे। जब एक हमले में तत्कालीन राष्ट्रपति अली अब्दुल्लाह सालेह घायल हुए तो उन्होंने इलाज के लिए सऊदी अरब की शरण ली या सऊदी शासकों ने सत्ता परिवर्तन कराने के लिए उन्हें अपने यहां खींच लिया। काफी उठा-पठक और मोल-तोल के बाद मंसूर अल-हादी को सऊदी-अमेरिकी शासकों ने यमन का राष्ट्रपति बनवा दिया।
इस बीच अरब विद्रोह को साम्राज्यवादी और खाड़ी कुचलने या पथ भ्रष्ट करने में कामयाब हो गये थे। लीबिया और सीरिया को उन्होंने तबाह ही कर दिया। लीबिया ‘असफल राज्य’ बन गया तो सीरिया भीषण गृह युद्ध में फंस गया। यमन भी इससे अछूता नहीं रहा।
शुरू में मंसूर अल-हादी और हौती विद्रोहियों के बीच एक समझौता हुआ पर जल्दी ही यह समझौता खटाई में पड़ गया। इसमें प्रमुख भूमिका सऊदी शासकों व अन्य खाड़ी शेखों की थी जिन्हें लगता था कि इरानी शासक इराक, सीरिया और लेबनान के बाद यमन में हावी हो रहे हैं। उन्हें इरान की यह बढ़ती ताकत स्वीकार नहीं थी। दूसरी ओर इरान से परमाणु समझौता करने के लिए प्रयासरत अमेरिकी साम्राज्यवादी भी इरान को कमजोर देखना चाहते हैं जिससे समझौते में ज्यादा कड़ी शर्तें थोपी जा सकें। स्वभावतः ही इसमें रुसी साम्राज्यवादी अपना हित इरानी शासकों का पीछे से समर्थन करने में देखते हैं। इरान के मसले से अलग एक महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग पर होने के चलते यमन का अपना भू-रणनीतिक महत्व है।
एक बार फिर एक उदाहरण सामने आया है जिसमें आंतरिक संकट से ग्रस्त किसी देश पर साम्राज्यवादी और उसके पिट्ठू हमला कर अपना हित साधना चाहते हैं जबकि उस आंतरिक संकट के पैदा होने में या उसके सही समाधान की ओर न बढ़ने में उन्हीं का ही प्रमुख हाथ था। सोमालिया, अफगानिस्तान, इराक, लीबिया और सीरिया इत्यादि की श्रेणी में अब एक और देश शामिल हो गया।
जहां तक भारत की संघी मोदी सरकार का सवाल है, उसका रुख भी कम घृणित नहीं है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों और इस्राइली जियनवादी शासकों की बगलगीर हुई यह सरकार यमन पर इनके और इनके सहयोगियों के नापाक हमले पर मुंह खोलने को तैयार नहीं हैं। लानत है इस पर !
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