पच्चीस साल के लगातार टूट-फूट और बिखराव के बाद जनता दल के विभिन्न धड़ों के नेताओं ने फैसला किया है कि अब समय आ गया है कि वे एक हो जाएं और मिल-जुलकर मोदी व भाजपा का मुकाबला करें। वे इसे सामाजिक न्याय की लड़ाई को आगे बढ़ाने की मुहिम कह रहे हैं तो विरोधी असितत्व बचाने की कोशिश।
समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (एकीकृत), जनता दल (सेक्यूलरद), इंडियन नेशनल लोकदल तथा समाजवादी जनता पार्टी का एक साथ आना भारत की पूंजीवादी राजनीति में उस धारा की प्रासांगिकता का मामला है जो आजादी से पहले कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी तथा आजादी के बाद प्रसोपा और संसोपा के रूप में मौजूद थी। अपने को समाजवादी कहने वाली यह धारा आजादी के बाद से ही कांग्रेस विरोध और जन संघ (बाद में भाजपा) के साथ मोर्चे को भारत की पूंजीवादी राजनीति में अपनी मुख्य रणनीति मानती थी। आज भाजपा का विरोध करने वाली यह धारा अतीत में इसे आगे बढ़ाने व वैधानिकता प्रदान करने में प्रमुख भूमिका अदा कर रही थी।
असल में यह धारा देहातों की प्रभुत्वशाली खेतिहर जातियों के धनिकों के हितों को अभिव्यक्त करती थी। जाटों सहित पिछड़ी दबंग जातियों के धनी किसान, कुलक और फार्मर इसके प्रमुख सामाजिक आधार थे। इसका सामाजिक न्याय का नारा मुख्यतः इऩ्हीं के लिए था जो इन्हें भारत की पूंजीवादी राजनीति और नौकरशाही में इनकी आर्थिक-सामाजिक हैसियत के अनुरूप जगह दिलाता था। गौरतलब है कि वी पी सिंह ने 1989 में जो मंडल आयोग की सिफारिशें लागू कीं वह नौकरशाही में इस हिस्से को जगह दिलाने से संबंधित थीं। सवर्ण राजा वी पी सिंह तब जनता दल की सरकार के प्रधानमंत्री थे और उसके बाद उन्होंने सामाजिक न्याय को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया।
इस धारा का कांग्रेस विरोध का भीतरी आशय भी यही था क्योंकि आजादी के बाद से कांग्रेस सवर्ण दलित व मुसलमान गठबंधन पर टिकी थी। इसमें पिछड़ी दबंग जातियों को स्थान नहीं हासिल था। यदि जनसंघ और भाजपा इस धारा के साथ गठबंधन बनाता था तो इसलिए कि इस सवर्ण प्रधानता वाली पार्टी को कांग्रेस का दलित-मुसलमान गठबंधन सिरे से अस्वीकार्य था। वह पूर्ण सवर्ण प्रभुत्व का पक्षधर थी, यह अलग बात है कि मोदी की भाजपा एकदम भिन्न राह से दिल्ली में सत्तानशीन हुई। उसे पिछड़ों और दलितों को अपने साथ लेना पड़ा।
इस धारा में समाजवाद वास्तव में छोटी संपत्ति वालों का समाजवाद था। इसका मतलब था कि भारत की एकाधिकारी पूंजी के प्रभुत्व से इसे कुछ राहत मिले। ठोस रूप में कहें तो बड़े औद्योगिक पूंजीपतियों के मुकाबले खेतिहर पूंजीपतियों को राज्य की कुछ सुरक्षा मिले जो हरित क्रांति के दौरान मिली भी।
इस धारा पर हमेशा ही जातिवादी राजनीति करने के आरोप लगते रहे हैं। पर यह इस धारा के अस्तित्व से जुड़ा हुआ मामला है। इस धारा का मतलब था देहातों की दबंग पिछड़ी खेतिहर जातियों का उत्थान। यह उत्थान एक ओर सवर्ण प्रभुत्व के खिलाफ गोलबंदी पर टिका था तो दूसरी ओर दलितों की अपनी गोलबंदी के खिलाफ भी था जो इसके लिए श्रमशक्ति का प्रमुख स्रोत थे। उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के रूप में यह ध्रुवीकरण खासतौर पर मुखर हुआ। ऐसे में इस धारा की राजनीति अपने चरित्र में ही जातिवादी थी। यह इस धारा की विकृति नहीं बल्कि भारतीय समाज के बदलते यथार्थ की अभिव्यक्ति थी।
अब जबकि भारत का पूंजीवादी समाज काफी आगे बढ़ गया है तथा पूंजीपति वर्ग उदारीकृत-वैश्वीकृत पूंजीवाद की राह पर है तब इस धारा का इस तरह गोलबंद होना भारत की पूंजीवादी राजनीति में क्या भूमिका अदा करेगा
इस संबंध में पहली बात तो यह है कि इसका सामाजिक न्याय का नारा अब बेहद खोखला हो चुका है। दबंग पिछड़ी खेतिहर जातियों को अब सामाजिक न्याय की जरूरत नहीं है। वे खुद उत्पीड़क बन गई हैं। बाकी असली उत्पीड़ित जातियों को वे आगे नहीं आने देंगीं और उनके हित इस नई पार्टी में अभिव्यक्त होंगे। भाजपा ने इस तथ्य का पिछले चुनावों में खूब फायदा उठाया है।
लेकिन इसी के साथ यह भी सत्य है कि उदारीकृत-वैश्वीकृत पूंजीवाद के इस दौर में देहाती धनिकों पर दबाव बढ़ा है। राज्य की उनकी सुरक्षा से पीछे हटा है। ऐसे में इन धनिकों के हितों के लिए सौदेबाजी करने वाली एक देशव्यापी पार्टी की संभावना बनती है। यदि यह नई पार्टी टिकी तो उसकी यही भूमिका बनेगी।
पर अभी यह नहीं कहा जा सकता है कि यह नई पार्टी वास्तव में अस्तित्व में आ जाएगी और टिक जाएगी। इतने सारे भूतपूर्व व वर्तमान प्रधानमंत्रियों का एक ही पार्टी में बने रहना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है।
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