आखिरकार देश का कृषि संकट दूर देहात के वीरानों और झोंपड़ियों के अंधेरों से निकलकर चमचमाती-गुलजार दिल्ली के केन्द्र में आ गया। लेकिन वह जिस तरह आया वह सनसनीखेज खबरों के तिजारती पूंजीवादी प्रचारतंत्र के लिए एक नया मसाला बन गया।
आज जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी की किसान रैली में राजस्थान के दौसा के किसान द्वारा फांसी लगाकर आत्महत्या ने उन लाखों किसानों की आत्महत्या को चर्चा का विषय बना दिया जो पिछले बीस सालों में इस तरह हताशा में अपनी जान लेते रहे हैं। अभी तक ये आत्महत्यायें कुछ किसनों, वामपंथी लोगों और थोड़े से जनपक्षधर बुद्धिजीवियों की ही चिन्ता का विषय रही हैं।
लेकिन इस सनसनीखेज चर्चा में उस कृषि संकट पर कोई भी गम्भीर चर्चा सिरे से गायब है जो लाखों किसानों को आत्महत्या की ओर धकेल चुकी है। इसका सीधा सा कारण यह है कि यह संकट न केवल पूंजीवादी पार्टियों बल्कि समूची पूंजीवादी व्यवस्था को ही कठघरे में खड़ा करता है।
भारत की कृषि के हालात आजादी के बाद से ही कभी भी अच्छे नहीं रहे पर उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में तो स्थिति भयावह हो उठी। शुरुआत कांग्रेस पार्टी की सरकार द्वारा आजादी के पहले के उस वायदे से मुकरने से हुई जिसमें किसानों को जमीन देने की बात कही गई थी। बाद में भू-स्वामियों को केन्द्र में रखकर हरित क्रांति की नीति अपनाई गयी जो खेती के क्रमशः पूंजीवादीकरण के जरिये खाद्यान्न संकट का तो कुछ समाधान करती थी पर गरीब किसानों से लेकर मध्यम किसानों तक की समस्याओं को और विकराल बना देती थी। यह हरित क्रांति भी सदी के अंतिम दशकों में अपनी गति खो चुकी थी।
रही-सही कसर उदारीकरण-वैश्वीकरण की नयी आर्थिक नीति ने पूरी कर दी। ठीक जिस समय कृषि को बड़े पैमाने पर सहायता की जरूरत थी उसी समय भारत के पूंजीपति वर्ग ने तय किया कि कृषि को न केवल उसके हाल पर छोड़ देना चाहिए बल्कि उद्योग के मुकाबले उसे पहले से बुरी स्थिति में डाल दिया जाना चाहिये। कृषि का पहले से ज्यादा दोहन किया जाना चाहिए। खेती पर सब्सिडी में कमी करने से लेकर बाहर से कृषि उत्पादों के आयात तक इसके कई आयाम हैं। पूंजीवादी नेताओं ने खुलेआम यह मंशा जाहिर की कि वे देश की अस्सी-नब्बे प्रतिशत आबादी को शहर में देखना चाहते हैं।
पूंजीवादी व्यवस्था में किसानों की तबाही और किसानों का उजड़ना एक सामान्य प्रक्रिया है। लेकिन भारत के कृषि संकट में यह विशेष इसलिए हो जाती है कि यहां तबाह हो रहे किसानों के पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है। उद्योग और सेवा क्षेत्र में, खासकर उद्योगों में रोजगार वृद्धि दर बहुत कमजोर है। ऐसे में तबाह होते किसानों के पास यह विकल्प नहीं है कि वे शहर जाकर मजदूर बन जायें।
किसानों की तबाही की तीव्रता और जीवन में विकल्पहीनता किसानों को आत्महत्या की ओर धकेल रही है। इसमें यह हमेशा ध्यान रखना होगा कि न केवल पूंजीपति वर्ग बल्कि देहाती धनिक वर्ग भी इस तबाही से फायदा उठा रहा है। जनता परिवार और अकाली दल की तरह की पार्टियां इन्हीं देहाती धनिकों की पार्टियां हैं। इसीलिए कांग्रेस-भाजपा की तरह इन्हें भी किसानों की तबाही और आत्महत्याओं से कोई परेशानी नहीं है। बल्कि वे चाहते यही हैं।
पहले की तरह आज भी यह बात सही है कि छोटे-मझोले किसानों को इस संकट से निजात केवल पूंजीवाद के खात्मे से ही मिल सकती है। यह केवल मजदूर वर्ग के नेतृत्व में पूंजीवाद विरोधी क्रांति से ही संभव है।
छोटे-मझोले किसानों का रास्त जीवन से हताश होकर आत्महत्या का नहीं बल्कि मजदूर वर्ग के नेतृत्व में इस पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष का है। अब जब मामला दिल्ली तक पहुंच ही गया है तो वक्त आ गया है कि अपनी पुरजोर आवाज से इसे दहलाया जाये।
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