Friday, March 6, 2015

नारी मुक्ति का रास्ता लिजलिजी भावुकता और घृणित नैतिक आक्रोश नहीं है

      भारत के पूंजीपति वर्ग की एक खासियत यह भी है कि वह स्वयं सामंती पाखंड से लदा-फदा है और इसे समाज में प्रसारित करने का कोई भी मौका नहीं चूकता। वह समस्याओं को उनकी जड़ से हल करने के बदले उन पर पर्दा या लीपा-पोती करने में विश्वास करता है। 
      बी.बी.सी. के लिए लेस्ली उडविन द्वारा बनाई गयी ‘इंडियाज डाॅटर’ इसी का एक नमूना है। इस डाक्यूमेन्ट्री फिल्म में एक साक्षात्कार 16 दिसंबर के एक बलात्कारी का भी है जो बलात्कार और हत्या के लिए लड़कियों को जिम्मेदार ठहराता है। 
       इस बात पर संसद में पक्ष और विपक्ष ने खूब बवाल मचाया और नैतिक आक्रोश व्यक्त किया कि जेल में बंद एक बलात्कारी को अपने घृणित विचार प्रसारित करने का इससे मौका मिला। साक्षात्कार के लिए अनुमति पर भी प्रयाप्त आरोप-प्रत्यारोप लग रहे हैं। 
       इस संबंध में पहला तथ्य तो यही है कि संसद में बवाल से पहले बलात्कारी और लड़की दोनों के परिवार वालों ने उडविन के साथ फिल्म देखी थी और उसे एक गंभीर-संवेदनशील फिल्म करार दिया था। लेकिन जब बवाल मचा तो न केवल उडविन को रातों-रात भारत छोड़ना पड़ा बल्कि अब लड़की के परिवार वाले भी फिल्म पर नकारात्मक बयान दे रहे हैं। 
       मसले के सारतत्व की बात करें तो बलात्कारी ने जो घृणित विचार व्यक्त किये हैं वे वास्तव में संघ परिवार के विचार हैं। खुल कर बोलने का मौका मिले तो हर संघी वही बात करेगा। इसी आशय के दूसरे शब्दों में बयान आये दिन संघ के संत-महंतों और यहां तक कि भाजपा सांसदों की ओर से आते रहते हैं। 
     इसी आशय के बयान हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतें देती रहती हैं। अक्सर ही विद्यालयों के मुखिया भी ने केवल इस तरह के बयान देते हैं बल्कि वे लड़कियों पर दस तरह की पाबंदी भी लगाने का प्रयास करते हैं। 
       विपक्षी सांसदों के बारे में भी इससे अलग बात नहीं की जा सकती। सरकारी वामपंथियों की बात छोड़ दें तो सारे ही स्त्रियों के मामले में पुरानी मध्यकालीन सामंती मानसिकता से लैस हैं।
    इस यथार्थ को देखते हुए पूंजीवादी पार्टियों और उनके नेताओं का एक बलात्कारी के बयान पर नैतिक आक्रोश व्यक्त करना स्वयं एक घृणित हरकत बन जाता है। इस नैतिक आक्रोश के पीछे उनकी घृणित राक्षसी सूरत छिपी होती है, बल्कि यह नैतिक आक्रोश उसे छिपाने का ही एक तरीका है। जितना घृणित चेहरा, उतना ही नैतिक आक्रोश ! गृहमंत्री का तमतमाया चेहरा इसकी सबसे ज्वलंत अभिव्यक्ति है।
      यहां मसला एक बलात्कारी की अभिव्यक्ति की आजादी का नहीं है हालांकि सत्य और न्याय का तकाजा है कि उसकी बात भी सुनी जाय। यदि इस देश में हजारों के हत्यारे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठकर देश को गांधीवादी पाठ पढ़ा सकते हैं तो एक बलात्कारी हत्यारे की बात भी सामने आनी चाहिए। यह बहुत छोटी बात है।
     असल महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बलात्कारी हत्यारे की बात केवल एक सुधर सकने वाले जघन्य अपराधी की बात नहीं है। वह जो कह रहा है वह एक ऐसी मानसिकता है जो भारतीय समाज में गहरे तक पैठी हुई है और आज भी भारतीय पुरुषों की बड़ी आबादी उससे ग्रस्त है। गंभीर बात यह है कि देश के पूंजीवादी संचालकों की भी यही मानसिकता है। 
     इस घृणित मानसिकता को, इस सोच को बाहर आना ही चाहिए। इसे ढंका-मुंदा नहीं जाना चाहिए। रंग-रोगन चढ़ाकर इस घृणित मानसिकता को ढंक देने से वह खत्म नहीं होगी। इस पर खुल कर चर्चा होनी चाहिए और उसकी चीड़-फाड़ की जानी चाहिए। बलात्कार की शिकार लड़की और उसके परिवारी जनों के प्रति एक लिजलिजी भावुकता पैदा कर मसले के सारतत्व से नहीं बचा जाना चाहिए। ‘यह लड़की का दोबारा बलात्कार है’ जैसे बयानों से अभी भी हर साल हो रहे लाखों बलात्कार नहीं रुक सकते। 
    ‘इंडियाज डाॅटर’ डाक्यूमेन्ट्री फिल्म को प्रतिबंधित करना और इस पूरे मसले को भावनात्मक मुद्दा बनाना संघियों की या मध्य युगीन मानसिकता के पुरुष वर्चस्ववादियों की चाल हो सकती है। वे इसमें कामयाब भी हो सकते हैं। पर समाज की प्रगतिशील और क्रांतिकारी शक्तिओं को इस पूंजीवादी प्रवाह में बहने के बदले सारे मसले पर संजीदगी से बात करनी चाहिए। नारी पराधीनता की आर्थिक-सामाजिक जड़ों से लेकर सांस्कृतिक जड़ों तक को खंगाल कर उन्हें उखाड़ फेंकने की रणनीति-रणकौशल पर केन्द्रित करना चाहिए। नारी मुक्ति लिजलिजी भावुकता का मसला नहीं बल्कि क्रांति का ठोस कार्यभार है और उसे इसी रूप में लिया जाना चाहिए। 

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