आम आदमी पार्टी, जो अपने को नयी राजनीति करने वाली पार्टी कहती रही है और इसी बल पर दिल्ली में सत्ता में आयी है, उसने बहुत जल्दी ही साबित कर दिया कि चाहे कांग्रेस हो या चाहे भाजपा चाहे सपा हो या बसपा, आम आदमी पार्टी इनसे जरा भी भिन्न नहीं है।
पिछले हफ्ते भर से इस पार्टी में जो नाटक चला उसने उन सारे भले लोगों का दिल तोड़ डाला होगा जो इस पार्टी के नेताओं के भाषणों और बयानों पर विश्वास करते थे। इस नाटक ने अवसरवादी मजमेंबाजों का चेहरा बेनकाब कर दिया, वे चेहरे जो आदर्शवाद की फर्जी बातों से ढके हुए थे।
पूंजीपति वर्ग की कृपा से इन मजमेबाजों को पिछले चार सालों में आलीशान सफलता मिली थी। इस अप्रत्याशित सफलता से अरविन्द केजरीवाल नास्तिक से आस्तिक हो गये क्योंकि उन्हें लगा कि ऐसी सफलता तो केवल ईश्वर की कृपा से ही मिल सकती है। दूसरी ओर योगेन्द्र यादव भी चमत्कृत होकर रह गये क्योंकि वे तो पार्टी के लिए पन्द्रह साल की योजना बना रहे थे जबकि पार्टी दो साल में बहुमत से दिल्ली में सत्तारूढ़ हो गयी।
इन अप्रत्याशित, आलीशान सफलताओं से मजमेबाजों के सिर फिरने ही थे, उनकी महत्वकांक्षाएं आसमान की ओर बढ़नी ही थीं। यह महत्वकांक्षी मजमेबाजों की जमात है। अब देश के स्तर पर बड़ी पार्टी बनने की संभावना दीखने पर इन नेताओं में इस बात पर घमासान होना ही था कि कौन इस पार्टी पर कब्जा करे, कौन देश का भावी प्रधानमंत्री बने।
इस घमासान में वह सब कुछ हुआ जो सारी पूंजीवादी पर्टियों में होता है बल्कि उससे ज्यादा ही हुआ। जमकर गुटबाजी की गयी। पूंजीवादी प्रचार माध्यमों में खबरें लगवायी गयीं, अफवाहें फैलायी गयीं। चिट्ठियां लिखी गयीं और लीक की गयीं। संयोजक यानी मुखिया पद से इस्तीफा देने का नाटक किया गया और अंत में केजरीवाल की नेतागीरी को चुनौती देने वालों को सबसे महत्वपूर्ण निकाय से हटा दिया गया पर षड्यंत्र, गुटबाजी और अनुशासन की इस कार्रवाई पर एकता का पर्दा डाला गया। साल भर पहले लगभग ऐसा ही कुछ भाजपा में हुआ था जब मोदी की भाजपा में ताजपोशी हुई थी।
अंततः सारे नाटक का फिलहाल पटाक्षेप इस रूप में हुआ कि केजरीवाल अपने समर्थकों के साथ इस पार्टी पर पकड़ बनाने में मजबूत हुए हैं और उन्हें चुनौती देने वाले प्रशान्त भूषण और योगेन्द्र यादव को मुंह की खानी पड़ी है। पर यह अभी अंत नहीं है। इन दोनों के साथ पार्टी के उच्च स्तर पर भी एक बड़ी संख्या है। ऐसे में कुछ समय बाद इस नाटक का दूसरा अंक देखने को मिल सकता है। आम आदमी पार्टी के महत्वकांक्षी मजमेबाज नया गुल खिलाएंगे।
अवसरवादी मजमेबाजों के इस घमासान का एक राजनीतिक अर्थ भी है। एक मजमेबाज ने स्वयं घोषित किया था कि यह अति वामपंथ और व्यवहारवादी कल्याणवाद के बीच का विवाद है। इसमें किसी हद तक सच्चाई है हालांकि ‘अतिवामपंथ’ में ‘अति’ तो क्या बेहद लचर वामपंथ भी नहीं है।
आम आदमी पार्टी में योगेन्द्र यादव जैसे वे लोग भी हैं जो स्वयं को लोहियावादी समाजवाद की परम्परा में मानते हैं और जिन्हें लगता है कि कांग्रेस के उदारीकरण की नीति अपना लेने तथा जनता दल परिवार के बिखरने के बाद भारत की राजनीति में एक जगह खाली हुई है जिसे आम आदमी पार्टी भर सकती है। दूसरी ओर केजरीवाल जैसे लोग हैं जो साम्राज्यवादी पैसे से गैर सरकारी संगठन चलाते रहे हैं और उदारीकरण के धुर समर्थक हैं। इनमें से ढेरों आरक्षण विरोधी भी रहे हैं। फिलहाल इस घमासान में यह दूसरा पक्ष हावी रहा है। यह दूसरा पक्ष दिल्ली सरकार में सत्तासीन है और पूर्णतया जनवाद विरोधी है भले ही ‘स्वराज’ की कितनी बात करे।
अगर यह दूसरा पक्ष आगे भी आम आदमी पार्टी में ऐसे ही अपनी पकड़ बनाता रहा तो आम आदमी पार्टी व्यवहारवादी कल्याणवाद की वास्तविक पार्टी बन जायेगी यानी नरेन्द्र मोदी की पार्टी का ‘धर्मनिरपेक्ष’ संस्करण।
आने वाले समय में यह पार्टी और भी तेजी से स्वयं अपना चेहरा बेनकाब करेगी। यह दिखायेगी कि पतित पूंजीवाद के इस जमाने में आदर्शवाद बघारने वाले पूंजीवादी तत्व और भी ज्यादा पतित होते हैं।
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