Tuesday, March 24, 2015

शासक वर्गों द्वारा शहीदों को हथियाने की कोशिश

     इस बार शहीद दिवस पर संघी नरेन्द्र मोदी से लेकर स्वघोषित स्वराजी अरविन्द केजरीवाल तक सबने भगत सिंह की समाज में लोकप्रियता को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की। उन्होंने शहीद भगत सिंह को हथियाना चाहा। 
     जहां मोदी भगत सिंह के पैत्रिक गांव-फिरोजपुर के हुसैनीवाला- में पहुंच कर ''जो बोले सो निहाल'' का नारा लगाने लगे वहीं केजरीवाल दिल्ली विधानसभा परिसर में भगत सिंह, सुखेदव, राजगुरु के फोटो पर फूल-माला चढ़ाते नजर आये। उन्होंने घोषणा कर दी कि विधानसभा में विधायकों के पैसे से इनकी प्रतिमायें लगाई जायेंगी तथा बच्चों को विद्यालयों में इनके विचारों से परिचित कराया जायेगा।
     इस बार टीवी चैनलों ने भी भगत सिंह पर कार्यक्रम पेश किये। इन कार्यक्रमों में शत्रुघ्न सिन्हा से लेकर इरफान हबीब तक नजर आये।
      इन सभी सरकारी और गैर सरकारी कार्यक्रमों की एक विशेषता थी। इनमें हर तरीके से कोशिश की गई कि भगत सिंह के असली विचारों पर पर्दा पड़ जाये। और यह तब जब भगत सिंह के असली विचारों का समाज में इतना प्रसार हो गया है कि उन्हें छिपाना मुश्किल है। 
      1960 के दशक तक एक समय था जब भगत सिंह और उनके साथियों को महज देशभक्त क्रांतिकारियों के रूप में पेश किया जाता था। संघी तो महात्मा गांधी से अपनी नफरत के कारण भगत सिंह को महात्मा गांधी के मुकाबले खड़ा कर भुनाते भी थे। उस जमाने तक की सोच को मनोज कुमार की मसाला फिल्म ‘शहीद’ बखूबी प्रदर्शित करती है। 
     लेकिन जब कुछ वामपंथी इतिहासकारों ने ब्रिटिश कालीन सरकारी फाइलों को निरीक्षण कर उनमें दबे पड़े भगत सिंह के विचारों को उजागर करना शुरु किया तथा अन्य स्रोतों को भी खंगाला जाने लगा तब यह स्पष्ट हो गया कि भगत सिंह की सोच एक देशभक्त क्रांतिकारी से बहुत आगे बढ़कर एक ऐसे नास्तिक क्रांतिकारी की थी जो आतंकवाद का रास्ता छोड़कर मजदूरों-किसानों के बीच जाने तथा क्रांति के द्वारा समाजवाद और कम्युनिज्म स्थापित करने की बात करने लगा था। अब क्रांति का निशाना केवल विदेशी अंग्रेज ही नहीं बल्कि देशी सम्पत्तिशाली वर्ग यानी राजे-रजवाड़े, जमींदार और पूंजीपति भी थे। भगत सिंह ने तब स्पष्ट कहा कि उनके प्रेरणा स्रोत मार्क्स और लेनिन के विचार हैं। उन्हीं के प्रयास से उनके क्रांतिकारियों के दल ने हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसियेशन का नाम बदल कर हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन रख दिया। 
      भगत सिंह के इन विचारों का सुधारवादी कम्युनिस्टों से लेकर क्रांतिकारी संगठनों तक सबने प्रचार किया और धीरे-धीरे इन विचारों का इतना प्रसार हो गया कि इन्हें नकारना मुश्किल हो गया। इसलिए नयी शताब्दी में बनी मुंबइया मसाला फिल्म ‘दि लीजेण्ड आॅफ भगत सिंह’ में इन विचारों को जगह मिली। 
     हमेशा की तरह आज भी भगत सिंह और उनके साथी शासक वर्गों के न चाहने के बावजूद भारतीय जन मानस में लोकप्रिय हैं। पिछले समयों में जन की बदहाली बढ़ने के साथ यह लोकप्रियता बढ़ी ही है। 
    ऐसे में शासक वर्गों के लिए जरूरी हो जाता है कि मजदूर-मेहनतकश जनता, खासकर युवकों के इस क्रांतिकारी प्रेरणा स्रोत के बारे में भ्रम फैलायें। उसके क्रांतिकारी विचारों पर पर्दा डालें। एक बार फिर उन्हें महज देशभक्त के रूप में स्थापित करें। भगत सिंह और उनके साथियों को वर्तमान पतित पूंजीवादी व्यवस्था की रक्षा में लगा दें। 
    कहने की बात नहीं की शासक वर्गों की यह चाल कामयाब नहीं होगी। पर उनके प्रयासों को सिरे से नेस्तनाबूत करने के लिए तथा भगत सिंह और उनके साथियों के क्रांतिकारी विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए क्रांतिकारी संगठनों को भी अपने प्रयास तेज करने होंगे। 

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