भूमि अधिग्रहण को लेकर भारी विरोध का सामना करने के बावजूद ‘अच्छे दिनों’ वाली सरकार मोदी सरकार पीछे हटने को तैयार नहीं है। वह पूंजीपति वर्ग को उसे दिल्ली की गद्दी पर बैठाने के लिए मुंह मांगी कीमत चुकाने के लिए कटिबद्ध है।
भूमि अधिग्रहण के लिए 2013 में बने लचर कानून को और ढीला करके तथा पूंजीपतियों और बिल्डरों के अनुकूल बना कर सरकार दुनिया भर के पूंजीपतियों को यह संदेश देना चाहती है कि अब देश में व्यवसाय करना बहुत आसान हो गया है यानी लूटने की छूट बड़े पैमाने पर मिल गई है।
स्वाभवतः ही किसान विरोधी कदम को विरोध होना था। पर गौर करने की बात यह है कि सभी पूंजीवादी विपक्षी पार्टियां केवल जुबानी जमा खर्च कर संतुष्ट हैं। यहां तक कि 2013 का कानून पास कराने वाली कांग्रेस और सपा, जद (यू) व राजद जैसी किसान पार्टियां भी बयान देकर बैठ गई हैं। इन्होंने किसानों को इसके खिलाफ खड़ा करने के बदले केवल संसद में हंगामा करने तक स्वयं को सीमित कर लिया है।
इस मसले को सड़क पर उठाने का काम गैर सरकारी संगठनों ने किया है। इसके एक कारकून एकता परिषद के राजगोपाल ने साफ कहा है कि वे इस कारण यह विरोध कर रहे हैं कि किसान हिंसक विरोध का रास्ता न पकड़ें या हिंसक लोगों के साथ न जायें।
पूंजीपतियों के इन सेफ्टी वाॅल्व ने आगे बढ़ कर मोर्चा संभाला है और मौके पर अपनी रोटी सेंकने के लिए बेरोजगार अन्ना हजारे और उनके गुरुद्रोही शिष्य केजरीवाल भी सक्रिय हो गये हैं। इन्होंने अपनी सक्रियता से गैर सरकारी संगठनों के मंच पर कब्जा कर लिया। विरोध स्वरूप भाकपा-माकपा के नेता मंच से उठकर चले गये। भाकपा-माकपा के ये नेता गैर सरकारी संगठनों से नैन-मटक्का करने में व्यस्त हैं। अभी हाल के दिल्ली चुनाव में इन्होंने आप को समर्थन दिया था।
भाकपा-माकपा के करोड़ों की संख्या वाले किसान संगठन इन पार्टियों की तरह की हताश-निराश हैं। इनके नेता संघर्षों का रास्ता छोड़कर जोड़-तोड़ में व्यस्त हैं।
ऐसे में इस तरह के किसान विरोधी कदम का पुरजोर विरोध करने की जिम्मेदारी क्रांतिकारी संगठनों के ऊपर आ जाती है। मजदूर वर्ग गरीब और छोटे व मझोले किसानों के साथ उनके संघर्ष में दृढ़ता पूर्वक खड़ा है।
No comments:
Post a Comment