Tuesday, February 3, 2015

दिल्ली चुनाव : तमाशा मेरे आगे

दिल्ली विधान सभा के चुनाव इस समय बेहद चर्चा और मनोरंजन का विषय बने हुए हैं। टी.वी. पर तो यह इस समय सबसे बड़ा और मनोरंजक रियलिटी शो है।
एक मायने में यह दो बेहद धूर्त पूंजीवादी पार्टियों के लिए अस्तित्व का मामला है। भाजपा यदि इन चुनावों में हारती है तो यह मोदी के विजय अभियान के थमने का द्योतक होगा और भविष्य में यह इसके पराभव का शुरुआती बिन्दु साबित हो सकता है। यदि आम आदमी पार्टी हारती है तो यह इस नयी पार्टी की शिशुवत अकाल मृत्यु या फिर बाल अपंगता का मामला बन सकता है। इसीलिए दोनों ही पार्टियां इस समय कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही हैं और समूची ताकत लगााने के साथ-साथ साम,दाम, दंड भेद सभी का इस्तेमाल कर रही हैं।
पिछले साल भर ने दिखाया है कि इन दोनों पार्टियों और इनके दोनों प्रमुख नेताओं का न तो कोई दीन-ईमान है और न ही इन्हें कोई शर्म हया है। झूठ-फरेब, तीन-तिकड़म सभी में ये दोनों एक-दूसरे को मात कर रही हैं। दोनों ही ईमानदारी की कसम खाते हुए बेईमानी की सारी हदें पार कर रहीे हैं। दोनों ही चुनावों पर पानी की तरह पैसा बहा रही हैं और सवाल उठने पर धूर्त पूंजीवादी लटकों-झटकों से खुद को बचा रही हैं। 
हाल-फिलहाल आम आदमी पार्टी दिल्ली की गरीब आबादी को यह सब्जबाग दिखाने में कामयाब हो रही हैं कि वह उनकी बिजली-पानी और आवास की समस्या समाप्त कर देगी। भाजपा और कांग्रेस से पहले के बुरे अनुभवों के कारण गरीब आबादी एक बार इन नये मदारियों को आजमाना चाहती है। इसीलिए इस पार्टी की कुछ बढ़त दीख रही है जिससे भाजपा और मोदी-शाह परेशान हैं। कहने की बात नहीं कि इन नये मदारियों का पिछले डेढ़ महीनों का शासन ही यह बताने के लिए पर्याप्त है कि ये भी गरीब आबादी को बिना पलक झपकाये धोखा देंगे।
रही कांग्रेस की बात तो वह इन चुनावों में कहीं नहीं है। वह पन्द्रह साल तक शासन कर इस कदर बेनकाब हो चुकी है कि उसके कुकर्मों की याद भुलाने में थोड़ा समय लगेगा।
पूंजीवादी लोकतंत्र की विशेषता ही यह होती है कि इसमें समय-समय पर जनता को यह तय करने का मौका मिलता है कि कौन उस पर चाबुक चलाये। एक से दुःखी और मोह भंग शिकार जनता फिर दूसरे को चुनती है तथा फिर कुछ समय बाद पहले को या फिर किसी तीसरे को। दिल्ली विधान सभा चुनावों में भाजपा पहली है, कांग्रेस दूसरी और आम आदमी पार्टी तीसरी। यह तीसरी नयी है और भारत के पतित पूंजीपति वर्ग की नयी रक्षा पंक्ति, उसके शासन का एक नया विकल्प जो उसने पिछले चार सालों में खड़ा किया है। अन्ना हजारे जैसा जमूरा अपनी कुटिया में बिसुर रहा है पर पूंजीपति वर्ग अपने लक्ष्य में कामयाब हो चुका है।
भारत का मजदूर वर्ग इस खेल को समझ रहा है पर इस खेल को समाप्त कर देने से अभी दूर है। वक्त दिखायेगा कि यह दूरी बहुत ज्यादा नहीं थी। 

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