Tuesday, February 3, 2015

अब खाद्य सुरक्षा पर हमला

वन, पर्यावरण, भूमि अधिग्रहण इत्यादि कानूनों पर अपनी कैंची चलाने के बाद संघी मोदी सरकार ने खाद्य सुरक्षा कानून पर हमला बोलने का फैसला किया है। इसके लिए उसने वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे शान्ता कुमार की उच्च स्तरीय कमेटी से संस्तुति करवा ली है।
कांग्रेस पार्टी ने 2009 के चुनावों में सबको खाद्य सुरक्षा देने का वादा किया था। वास्तव में तो उसका इरादा था नहीं, इसीलिए वह इसे टालती रही और 2014 के चुनावों के ठीक पहले इस संबंध में कानून लेकर आयी जिससे उसे चुनावों में फायदा हो सके।
इस कानून में इसकी धूर्तता छिपी न रह सकी। उसने सबको खाद्य सुरक्षा देने के बदले इसे 67 प्रतिशत आबादी तक सीमित कर दिया। इसमें भी प्रति परिवार केवल 35 किलो अनाज प्रतिमाह देने का प्रावधान किया गया-चावल तीन रुपया किलो और गेहूं दो रुपया किलो। इसके अलावा पहले की सारी खाद्य योजनाओं को इस योजना में समाहित कर लिया गया। इस सारी धांधली का यह परिणाम हुआ कि खाद्य सुरक्षा कानून आने के बाद भी सरकार के इस मद में खर्च पर केवल एक चैथाई की वृद्धि की संभावना पैदा हुयी। मजे की बात यह है कि कई प्रदेश सरकारें पहले से ही सार्विक योजनाएं चला रही हैं। 
भाजपा ने संसद में इस खाद्य सुरक्षा कानून का समर्थन किया। उसके नेता मुरली मनोहर जोशी ने तो यहां तक कहा कि हर साल पूंजीपतियों को चार-पांच लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी दी जा रही है पर भूखी जनता को खाना नहीं मिल रहा है। 
      लेकिन कांग्रेस की तरह भाजपा का वह रुख भी केवल चुनावों तक के लिए था। असल में भाजपा इस तरह कि किसी कानून की विरोधी थी। अब ठीक इसी के अनुरूप शान्ता कुमार कमेटी ने अपनी सस्तुति दी है। 
      इस कमेटी की संस्तुति के अनुसार खाद्य सुरक्षा कानून के तहत आने वाली आबादी 67 प्रतिशत के बदले 40 प्रतिशत होनी चाहिए। अनाज का दाम न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधा रखा जाना चाहिए। इसी के साथ सरकार की ओर से खाद्य का भंडारन करने वाली संस्था एफ.सी.आई. को बंद कर दिया जाना चाहिए। 
      ये संस्तुतियां वस्तुतः सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पूरी तरह से समाप्त कर देने की दिशा में कदम है। भाजपा सरकार का असली उद्देश्य यही है जिससे देशी आढ़तिये और खाद्य व्यापारी तथा इसमें आयात-निर्यात करने वाले पूंजीपति और साथ ही विदेशी एग्रो-बिजनेस कंपनियां मनचाहा मुनाफा कमा सकें। वे भूखे मरते लोगों की भूख का सौदा कर सकें। 
      देश का पूंजीपति वर्ग जिसमें देहाती पूंजीपति वर्ग भी शामिल है, पहले से ही इस खाद्य सुरक्षा कानून का ही नहीं, समूची सार्वजनिक वितरण प्रणाली का विरोधी रहा है। नयी आर्थिक नीति लागू किये जाने के समय से ही इस प्रणाली को समाप्त करने की मांग उठती रही है। इस मांग के बावजूद भी यदि यह प्रणाली अभी लागू है तो केवल इसीलिए कि भूखी जनता के विद्रोही हो जाने का खतरा है। 
     मोदी द्वारा पूंजीपति वर्ग से जो वायदे किये गये थे उसमें से एक खाद्य से भी संबंधित था। अब मोदी सरकार इस वायदे को पूरा करने की ओर बढ़ रही है। उसे गुमान है कि वह भूखे लोगों को साम्प्रदायिक उन्माद में ढकेलकर भूख से उनका ध्यान हटा सकती है। 
    पर फ्रांस के मेरी अंतोनी से लेकर रूस के जार निकोलाई द्वितीय तक का इतिहास यह बताता है कि भूख एक बहुत कठोर सत्य है। इसे आसानी से भुलावे में नहीं डाला जा सकता। यह भूख चरम पर पहुंच जाने पर शासकों का सिर कलम कर ही शान्त होती है। 

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