जयंती नटराजन के कांग्रेस से इस्तीफे के बाद आरोपों प्रत्यारोपों का जो सिलसिला शुरू हुआ वह उतना व्यक्तियों के बदनाम पहलुओं को उजागर नहीं करता जितना पूंजीपति वर्ग और पूंजीवादी पार्टियों के बीच के खेल को उजागर करता है।
जयंती नटराजन को जयराम रमेश के बदले पर्यावरण मंत्री बनाया गया था। कानाफूसी यह थी कि जयराम रमेश पूंजीपतियों की वेदान्ता, पास्को जैसी परियोजनाऐं पर्यावरण के नाम पर लटका रहे हैं। जयंती से उम्मीद थी कि वे पूंजीपति वर्ग की इच्छाएं पूरी करेंगी। पर जयंती के कार्यकाल में भी परियोजनाऐं उसी तरह लटती रहीं। इससे मुक्ति के लिए वीरप्पा मोइली को लाया गया और उन्होंने 15 दिनों के भीतर ही तमाम परियोजनाओं को मंजूरी दे दी।
अब जयंती आरोप लगा रही हैं कि वे राहुल गांधी के कहने पर परियोनाऐं लटका रहीं थीं। राहुल गांधी तब आदिवासी इलाकों में स्वयं को आदिवासियों का दिल्ली में सिपाही बताते घूम रहे थे। इसके उलट कांग्रेस पार्टी कह रही है कि यह जयंती का निजी फैसला था। भाजपा पहले ही ’जयंती टैक्स’ लगाने का आरोप लगा चुकी है।
मंत्रियों द्वारा परियोजनाऐं पास करने के लिए कुछ हाथ की सफाई इतनी बड़ी बात नहीं है और इसके लिए पूंजीपति शिकायत भी नहीं करते। वे अपने खर्च में इसका प्रावधान करके चलते हैं। मसला दूसरा है।
मध्य भारत के आदिवासी इलाकों में पिछले दशक भर में हजारों परियोजनाओं का प्रस्ताव सरकार और पूंजीपति वर्ग से आया है। लेकिन इन परियोजनाओं का विरोध एक ओर पर्यावरणवादियों ने किया तो दूसरी ओर आदिवासी जनता व उनको इस प्रतिरोध संघर्ष में गोलबंद करने में लगे गैर सरकारी संगठनों तथा माओवादियों ने। खासकर इस दूसरे वाले ने ढेरों बड़ी परियोनाओं के रास्ते में बाधाऐं खड़ी कर दी।
इतने बड़े पैमाने पर जन प्रतिरोध को देखते हुए कांगे्रस पार्टी की सरकार सांसत में फंस गयी। एक ओर वह पूंजीपति वर्ग की इच्छा को पूरा करना चाहती थी तो दूसरी ओर वह जन प्रतिरेध का परिणाम अपने खिलाफ जाने से रोकना चाहती थी। इसलिए राहुल गांधी आदिवासी इलाके में जाकर खुद को उनका सिपाही घोषित कर रहे थे।
कांग्रेस पार्टी की इस दोहरी चाल और परियोजनाओं के लगातार लटकाने से नाराज पूंजीपतियों ने फिर मोदी का दामन थाम लिया। मोदी ने उन्हें अपने गुजरात माडल से दिखा दिया था कि वे कांग्रेस की तरह हिचकिचाएंगे नहीं। पूंजीपति वर्ग ने अगले प्रधान मंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया।
पूंजीपति वर्ग के इस रूख से कांग्रेस भयभीत हो गयी। ऐसे में अन्य कदमों के अलावा यह भी किया गया कि जयंती नटराजन को पर्यावरण मंत्रालय से हटाकर सारा ठीकरा उसके सर फोड़ दिया गया। अगले ही दिन राहुल गांधी ने फिक्की की बैठक में यह ठीकरा फोड़कर पूंजीपतियों को लुभाने की कोशिश की।
लेकिन देश का पूंजीपति वर्ग अब कांग्रेस को हटाकर मोदी वाली भाजपा को दिल्ली में सत्तारूढ़ कराने का मन बना चुका था। वह, उसके ही शब्दों में कांग्रेस के ’पालिसी परालिसिस’ से तंग आ चुका था। उसके बाद तो जैसा कि कहते हैं, सब इतिहास है।
अब कांग्रेस पार्टी की लगातार हो रही बुरीगत के बाद उसके नेता हताशा भरी कार्यवाहियां कर रहे हैं और इस तरह भीतर का सारा बजबजाता पीब-मवाद बाहर ला रहे हैं। पहले जो केवल राजनीतिक कयास था अब वे उसका प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं।
रही बात भाजपा की तो वह कांग्रेस की इस दुर्दशा पर खुश है और इस पर गाल बजाती हुयी इस सच्चाई को ढंकने का प्रयास कर रही है कि वह पूंजीपति वर्ग की सेवा में पूरी तरह से उतरी हूयी है और जनता का ध्यान इससे हटाने के लिए रोज अपने लंगूरों- बंदरों को सामने कर रही है।
जयंती नटराजन को जयराम रमेश के बदले पर्यावरण मंत्री बनाया गया था। कानाफूसी यह थी कि जयराम रमेश पूंजीपतियों की वेदान्ता, पास्को जैसी परियोजनाऐं पर्यावरण के नाम पर लटका रहे हैं। जयंती से उम्मीद थी कि वे पूंजीपति वर्ग की इच्छाएं पूरी करेंगी। पर जयंती के कार्यकाल में भी परियोजनाऐं उसी तरह लटती रहीं। इससे मुक्ति के लिए वीरप्पा मोइली को लाया गया और उन्होंने 15 दिनों के भीतर ही तमाम परियोजनाओं को मंजूरी दे दी।
अब जयंती आरोप लगा रही हैं कि वे राहुल गांधी के कहने पर परियोनाऐं लटका रहीं थीं। राहुल गांधी तब आदिवासी इलाकों में स्वयं को आदिवासियों का दिल्ली में सिपाही बताते घूम रहे थे। इसके उलट कांग्रेस पार्टी कह रही है कि यह जयंती का निजी फैसला था। भाजपा पहले ही ’जयंती टैक्स’ लगाने का आरोप लगा चुकी है।
मंत्रियों द्वारा परियोजनाऐं पास करने के लिए कुछ हाथ की सफाई इतनी बड़ी बात नहीं है और इसके लिए पूंजीपति शिकायत भी नहीं करते। वे अपने खर्च में इसका प्रावधान करके चलते हैं। मसला दूसरा है।
मध्य भारत के आदिवासी इलाकों में पिछले दशक भर में हजारों परियोजनाओं का प्रस्ताव सरकार और पूंजीपति वर्ग से आया है। लेकिन इन परियोजनाओं का विरोध एक ओर पर्यावरणवादियों ने किया तो दूसरी ओर आदिवासी जनता व उनको इस प्रतिरोध संघर्ष में गोलबंद करने में लगे गैर सरकारी संगठनों तथा माओवादियों ने। खासकर इस दूसरे वाले ने ढेरों बड़ी परियोनाओं के रास्ते में बाधाऐं खड़ी कर दी।
इतने बड़े पैमाने पर जन प्रतिरोध को देखते हुए कांगे्रस पार्टी की सरकार सांसत में फंस गयी। एक ओर वह पूंजीपति वर्ग की इच्छा को पूरा करना चाहती थी तो दूसरी ओर वह जन प्रतिरेध का परिणाम अपने खिलाफ जाने से रोकना चाहती थी। इसलिए राहुल गांधी आदिवासी इलाके में जाकर खुद को उनका सिपाही घोषित कर रहे थे।
कांग्रेस पार्टी की इस दोहरी चाल और परियोजनाओं के लगातार लटकाने से नाराज पूंजीपतियों ने फिर मोदी का दामन थाम लिया। मोदी ने उन्हें अपने गुजरात माडल से दिखा दिया था कि वे कांग्रेस की तरह हिचकिचाएंगे नहीं। पूंजीपति वर्ग ने अगले प्रधान मंत्री के तौर पर नरेन्द्र मोदी को प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया।
पूंजीपति वर्ग के इस रूख से कांग्रेस भयभीत हो गयी। ऐसे में अन्य कदमों के अलावा यह भी किया गया कि जयंती नटराजन को पर्यावरण मंत्रालय से हटाकर सारा ठीकरा उसके सर फोड़ दिया गया। अगले ही दिन राहुल गांधी ने फिक्की की बैठक में यह ठीकरा फोड़कर पूंजीपतियों को लुभाने की कोशिश की।
लेकिन देश का पूंजीपति वर्ग अब कांग्रेस को हटाकर मोदी वाली भाजपा को दिल्ली में सत्तारूढ़ कराने का मन बना चुका था। वह, उसके ही शब्दों में कांग्रेस के ’पालिसी परालिसिस’ से तंग आ चुका था। उसके बाद तो जैसा कि कहते हैं, सब इतिहास है।
अब कांग्रेस पार्टी की लगातार हो रही बुरीगत के बाद उसके नेता हताशा भरी कार्यवाहियां कर रहे हैं और इस तरह भीतर का सारा बजबजाता पीब-मवाद बाहर ला रहे हैं। पहले जो केवल राजनीतिक कयास था अब वे उसका प्रमाण प्रस्तुत कर रहे हैं।
रही बात भाजपा की तो वह कांग्रेस की इस दुर्दशा पर खुश है और इस पर गाल बजाती हुयी इस सच्चाई को ढंकने का प्रयास कर रही है कि वह पूंजीपति वर्ग की सेवा में पूरी तरह से उतरी हूयी है और जनता का ध्यान इससे हटाने के लिए रोज अपने लंगूरों- बंदरों को सामने कर रही है।
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