पिछले सात सालों से जारी विश्व आर्थिक संकट ने आखिरकार ग्रीस में अपना रंग दिखाया और रविवार को हुए संसदीय चुनाव में उन पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों को धूल चटा दी जो किफायत कदमों के नाम पर संकट का सारा बोझ मजदूर-मेहनतकश जनता पर डाल रही थीं। इन पूंजीवादी पार्टियों को पछाड़कर सीरिजा (‘उग्र वाम का गठबंधन’) लगभग आधी सीटें पाने में कामयाब हो गई। इसे करीब सैंतीस प्रतिशत वोट मिले जबकि ग्रीस की कम्युनस्टि पार्टी को साढ़े पांच प्रतिशत।
ग्रीस वह देश है जहां विश्व आर्थिक संकट को सबसे गहरा असर पड़ा है। संकट के समय में इसके सकल घरेलू उत्पाद में पच्चीस प्रतिशत की गिरावट हुई है। यहां बेरोजगारी की दर पच्चीस प्रतिशत से ऊपर है जबकि नौजवान आबादी का करीब आधा बेरोजगार है। हालात इतने बुरे हो गये हैं कि कई पीढि़यों के लोग साथ रहकर किसी तरह गाड़ी खींचने का प्रयास कर रहे हैं।
ग्रीक की यह हालत एक ओर स्थानीय पूंजीपति वर्ग की लुटेरू नीतियों के कारण है तो दूसरी ओर अमरीकी, फ्रांसीसी और जर्मन साम्राज्यवादियों के कारण। बाकी देशों की तरह ग्रीस में भी संकट से पहले बड़े पैमाने की सट्टेबाज पूंजी लगी हुई थी। संकट गहराने पर यह पूंजी फंस गई। यह ग्रीस के बैंकों और वित्तीय संस्थानों के दिवालिया होने के कगार पर पहुंचने के रूप में हुआ। स्वभावतः ही इसका मतलब अमरीकी, फ्रांसीसी व जर्मन साम्राज्यवादियों की पूंजी का डूबना था क्योंकि ग्रीस के वित्तीय संस्थानों में इन्हीं की सट्टेबाज पूंजी लगी हुई थी।
अपने सामने यह खतरा देख इन साम्राज्यवादियों ने एक चाल चली। इन्होंने ग्रीस के वित्तीय संस्थानों को बचाने के नाम पर ग्रीस सरकार को भारी मात्रा में ऋण दिया। यह ऋण अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोबीय केन्द्रीय बैंक की ओर से दिया गया। ग्रीस सरकार से यह मांग की गई कि वह ऋण की यह राशि संकटग्रस्त वित्तीय संस्थानों को सहायता स्वरूप दे और जनता से इसे वसूल कर ऋण अदा करे। स्पष्टतः ही यह मजदूर वर्ग और अन्य मेहनतकश जनता की जेबों से पैसा निकालकर उन सट्टेबाज वित्तीय अधिपतियों को देना था जिनके कुकर्मों से सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था संकट में पड़ी। सरकारी चैनल के जरिये इस लूट को किफायत कदमों का नाम दिया गया। इन्हीं कदमों की वजह से ग्रीस की अर्थव्यवस्था धराशाई हो गई और मजदूर-मेहनतकश जनता की जिन्दगी रसातल में चली गई।
साम्राज्यवादियों द्वारा मजदूर-मेहनतकश जनता पर इस हमले की प्रतिक्रिया होनी ही थी। प्रतिरोध का स्वर उठना ही था। कई बड़ी हड़तालों से होते हुए यह 2011 में बड़े पैमाने के विरोध प्रदर्शन के रूप में फूट पड़ा। इसी के साथ इसकी अभिव्यक्ति चुनावी राजनीति में भी हुई।
ग्रीस में पिछले दो दशकों से न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी और पासोक शासन कर रही थीं। ये उदारीकरण की समर्थक दक्षिणपंथी पार्टियां हैं हालांकि पासोक स्वयं को सामाजिक जनवादी पार्टी कहती रही है। अब तेजी से एक नयी पार्टी का उभार हुआ। यह पार्टी थी सीरिजा।
सीरिजा का गठन 2009 में हुआ था। इसे गठित करने की पहल छोटे-छोटे वामपंथी संगठनों ने की थ्ज्ञी। जो कभी स्वयं को माओवादी, ट्राट्स्की पंथी इत्यादि कहा करते थे। इसे उग्र वामपंथियों का गठबंधन कहा गया। सीरिजा ने शुरु से ही किफायती कदमों का विरोध अपना प्रमुख एजेण्डा बनाया।
2012 के चुनावों में सीरिजा का तेजी से उभार हुआ और वह 26 प्रतिशत वोट पाकर दूसरे नम्बर की पार्टी बन गई। न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी इससे दो प्रतिशत ही आगे थी। यह तब जब साम्राज्यवादियों ने इसके खिलाफ माहौल बनाने के लिए पूरी ताकत लगा दी थी।
अब यही सीरिजा करीब सैंतीस प्रतिशत वोट पाकर पहले नंबर की पार्टी बन चुकी है। इसे करीब आधी सीटें मिली हैं जबकि ग्रीस की कम्युनिस्ट पार्टी को पन्द्रह सीटें। यानी इन दोनों को मिलाकर सीटों का बहुमत इनके पास है।
अब ग्रीस का भविष्य क्या होगा? वह किधर जायेगा? क्या ग्रीस संकटग्रस्ट यूरोप और भविष्य को रास्ता दिखायेगा?
इस संघर्ष में पहली बात तो यही कि अपने को ‘उग्र वामपंथी’ कही जाने वाली सीरिजा पहले ही काफी पालतू बन चुकी है। इसके नेता अब यूरोपीय संघ से बाहर आने या ऋण से मुकरने की बात नहीं करते। वे केवल फिर से सौदेबाजी की बात करते हैं। इसका मतलब यह है कि थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ साम्राज्यवादीलूट जारी रहेगी। ग्रीस की मजदूर-मेहनतकश जनता की तबाही जारी रहेगी। ग्रीस की अर्थव्यवस्था रसातल में पड़ी रहेगी। ऐसे में लोगों का सिरीजा से तेजी मोहभंग होगा। इस मोहभंग के फलस्वरूप मजदूर वर्ग क्रांतिकरी दिशा में जाकर बाकी जनता को अपने पीछे गोलबंद कर सकता है या फिर गोल्डन डान जैसी धुर दक्षिणपंथी पार्टियां तेजी से मजबूत हो सकती हैं। इसके फलस्वरूप फासीवादी तानाशाही खतरा सामने आ सकता है।
ग्रीस में मजदूर वर्ग की वास्तविक क्रांतिकारी शक्तियों को पहले विकल्प के लिए पूरा जोर लगा देना होगा। यदि ऐसा होता है तो समूचा यूरोप एक नयी दिशा में चल पड़ेगा। इसके उलट सभी देशों में कार्यरत दक्षिणपंथी फासीवादी ताकतें साम्राज्यवादी सट्टेबाज पूंजी के साथ मिलकर पंूजी की नंगी तानाशाही कायम करने की ओर जा सकती हैं।
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