Wednesday, December 3, 2014

भोपाल गैस त्रासदी के तीन दशक

       भोपाल गैस त्रासदी को आज पूरे तीस साल हो गये। भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड के प्लांट में 2-3 दिसंबर 1984 को रात को मिथाइल आइसो साइनाइड गैस के रिसाव से हजारों लोगों की मौत हो गयी और लाखों लोग घायल/बीमार हो गये। सरकारी आकड़ों के हिसाब से इस हादसे में कुल 3787 लोग मरे जबकि अन्य अनुमानों के हिसाब से यह संख्या पहले दो हफतों में सोलह हजार थी जबकि बाद में 25 हजार और लोग मरे। मौतों का सिलसिला अभी जारी है। इसमें घायलों/बीमारों की संख्या साढ़े पांच लाख से ज्यादा बतायी जाती है। इस हादसे के जहर का परिणाम यह है कि तीसरी पीढ़ी में विकलांग बच्चे पैदा हो रहे हैं।  
     इस हादसे का सबसे घृणित और गंभीर पहलू भारत सरकार और समूचे पूंजीपति वर्ग का रहा है। हादसे के बाद यूनियन कार्बाइड का चेयरमैन वारेन एण्डरसन भारत आया था और उसे गिरफतार भी कर लिया गया था। पर उसे भारत सरकार के निर्देश पर रिहा कर दिया गया और देश से बाहर जाने दिया गया। वह फिर वापस नहीं लाया जा सका। अभी दो महीने पहले उसकी मृत्यु हो गयी। 
     इस हादसे की जिम्मेदारी के लिए यूनियन कार्बाइड के भोपाल प्लांट के कुछ अधिकारियों और कर्मचारियों पर मुकदमा चला। उनमें से कुछ को थोड़ी सजाएं भी हुईं। पर ऊपरी अदालतों में अपील के बाद मुकदमा जारी है और ये सारे लोग बिना कोई सजा काटे अपनी स्वाभाविक मौत मर जायेंगे। 
     जहां तक मृतकों और बीमारों को मुआवजे का सवाल है भारत सरकार ने अपने अधिकार को इस्तेमाल करते हुए सारा मामला बस 47 करोड़ डालर में निपटा दिया। स्वयं अमेरिकी कानूनों के हिसाब से इसका दस गुना मुआवजा मिला होता। मुआवजे के बटवांरे में भी खूब धांधली हुयी। फर्जी दावेदार अच्छी-खासी रकम हड़प गये। 
     क्या इस हादसे के बाद भारत सरकार ने कोई सबक लिया ? क्या कोई ऐसा इंतजाम किया गया जिससे भविष्य में ऐसी दुर्घटनाएं न हों ? क्या मुआवजे और जिम्मेदारी सम्बंधी कानूनों में कोई परिवर्तन किया गया ? नहीं।
     यही नहीं, इस समय वर्तमान मोदी सरकार विद्यमान कानूनों में भी परिवर्तन कर और ज्यादा हादसों की ओर कदम बढ़ा रही है। अभी परमाणु संयंत्रों से संबंधित कानून में परिवर्तन कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को जिम्मदारी से बरी करने की कवायद जारी है। बरका ओबामा को गणतंत्र दिवस पर यह परिवर्तन शायद भेट में दिया जायेगा।  
      भारत और सारी दुनिया में पिछले दिनों औद्योगिक और खनन हादसों में वृद्धि हुई है। आये दिन एक से एक हादसों की खबरें आ रही हैं। लेकिन पूंजीपति वर्ग और सरकारों का रुख इस दिशा में और ज्यादा ढिलाई का है। ज्यादा दिन नहीं हुए जब भारत फैक्ट्री एक्ट में परिवर्तन कर हादसों के लिए मालिकों और सर्वाच्च प्रबन्धकों को जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया गया। 
     यह सब उदारीकरण के दौर में बढ़ती मुनाफे की हवस का परिणाम है। जिसमें मजदूरों और गरीब आबादी की जान की कोई कीमत नहीं समझी जाती। भारत में तो हालात और बुरे हैं जहां मालिकों/प्रबंधकों तथा पुलिस/प्रशासन की पहली प्रतिक्रिया मौतों/घायलों की संख्या कम से कम दिखाने की होती है भले ही इसके लिए लाशों को गायब करना पड़े। 
     इस नरभक्षी पूंजीवाद के खिलाफ जुझारू संगठनबद्ध संघर्ष ही इस मामले में भी कोई राहत हासिल कर सकता है। पूंजीपति वर्ग और उसकी व्यवस्था की प्रवृत्ति तो लाशों का ढेर लगाने की ही है।  

No comments:

Post a Comment