Friday, November 7, 2014

अमेरिकी चुनाव : ओबामा की दुर्गति

   स.रा.अमेरिका में हुए मध्यावधि चुनाव में राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी की मिट्टी पलीद हो गयी। हाउस आॅफ रिप्रजंटेटिव (प्रतिनिधि सभा) और ज्यादा बहुमत के साथ रिपब्लिक पार्टी के साथ बनी रही तो सीनेट इन चुनावों के बाद उसके हाथ में चली गयी। सीनेट में रिपब्लिक पार्टी का बहुमत हो गया।
      चुनावों में बराक ओबामा की डेमोक्रेटिक पार्टी की इस हार के बाद अगले दो साल के अपने राष्ट्रपति काल में उनके लिए कार्य करना कठिन हो जायेगा क्योंकि अमेरिकी संविधान के अनुसार उन्हें हर महत्वपूर्ण निर्णय पर इन दोनों सदनों की अनुमति लेनी पड़ेगी जो मुश्किल साबित होगी। वे जार्ज बुश की तरह ही अगले दो साल के लिए ‘लेम डक’ राष्ट्रपति हो जायेंगे। 
      लेकिन अमेरिकी चुनावों का वास्तविक निहितार्थ इसमें नहीं है। इसका वास्तविक निहितार्थ दो बातों में है। 
      पहला तो यह है कि इन चुनावों में कुल 37 प्रतिशत लोगों ने ही वोट डाले। वोटों का यह प्रतिशत स्वयं अमेरिकी मानकों के हिसाब से भी बहुत कम है। गौरतलब है कि लगभग दो तिहाई आबादी ने वोट नहीं डाले। जो अमेरिका सारी दुनिया में जनतंत्र का ढोल पीटता है उसके अपने ही नागरिक उस जनतंत्र में यकीन नहीं करते क्योंकि यदि वे ऐसा करते तो वोट डालने जरूर जाते। चुनावी प्रक्रिया उन्हें अपने जीवन की समस्याओं के सन्दर्भ में निरर्थक नजर आती है, इसलिए वे उसके प्रति अन्यमनस्क बने रहते हैं। 
     दूसरी बात यह है कि इन चुनावों ने दिखाया है कि अमेरिका की राजनीति का दक्षिण की ओर फिसलन अभी जारी है। यह रेानाल्ड रीगन के जमाने में शुरु हुआ था ओर बिल क्लिंटन व बराक ओबामा जैसे डेमोक्रेटिक राष्ट्रपतियों के काल में भी जारी रहा। वे न केवल रिपब्लिकन पार्टी की नीतियों पर चलते रहे बल्कि उसे आगे भी बढ़ाया। यह कुछ एैसा है जैसे अपने भारत में कांग्रेस पार्टी भी गुजरात में खुलकर भाजपा की हिन्दु साम्प्रदायिकता का विरोध नहीं करती। 
      संयुक्त राज्य अमेरिका के बारे में कहा जाता है कि वहां दो पार्टियों के रूप में वस्तुतः एक ही पूंजीवादी पार्टी के दो धड़े हैं-एक दक्षिणपंथी तो दूसरा धुर दक्षिणपंथी। पिछले तीन दशकों के दौरान ये दोनों और दक्षिणपंथ की ओर खिसकती गयीं हैं और उनके बीच का फर्क कम होता गया है। बराक ओबामा जार्ज बुश का ही दूसरा चेहरा हैं।
       अमेरिका की राजनीति में तब तक कोई परिवर्तन नहीं आयेगा जब तक वहां  एक मजबूत मजदूर पार्टी का उदय न हो। उसके लिए ‘आक्यूपाइ’ टाइप के आंदोलनों से आगे बढ़े हुए आन्दोलनों तथा क्रांतिकारी कार्यकर्ताओं द्वारा मजदूर वर्ग की सघन लामबंदी की आवश्यक्ता है।  

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