अंततः भाजपा ने दिल्ली प्रदेश विधान सभा के चुनाव कराने का साहस जुटा लिया। लोकसभा में अपनी जीत के बाद उसे यह साहस बटोरने में पांच महीने से ज्यादा लगे। इस बीच वह मोदी की लोकप्रियता की बात करते नहीं थक रही थी।
लोकसभा में दिल्ली की सातों सीटें जीतने के बाद भी भाजपा विधान सभा चुनाव में अपनी जीत के प्रति आश्वस्त नहीं थी। यही नहीं, उसे परिणाम अपने और ज्यादा खिलाफ जाने का भय सता रहा था। इसीलिए वह चुनाव न करवाकर जोड़-तोड़ के जरिये सरकार बनाने के प्रयास में जुट गयी थी। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के तो कुछ विधायकों को उसने तोड़ भी लिया था। ये दोनों पार्टियां अपने विधायकों की हर तरह से रखवाली कर रहीं थीं।
अब महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों में मिली जीत के बाद भाजपा का आत्मविश्वास वापस लौटा है। इसके पहले विभिन्न उपचुनावों में तो इसकी मिट्टी पलीद होती ही दीख रही थी। मोदी की हवा दुर्गन्ध में तब्दील में होती जा रही थी। अब जान में जान आयी है और भाजपा मोदी के बल पर दिल्ली में जीत हासिल करने की हसरत पाल रही है।
लेकिन वह इस जीत के लिए कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ना चाहती। इसीलिए वह दिल्ली में कई इलाकों में-बवाना, समयपुर-बादली, मंगोलपुरी, त्रिलोकपुरी इत्यादि में साम्प्रदायिक तनाव फैलाने की पुरजोर कोशिश कर रही है। त्रिलोकपुरी में तो वह कामयाब भी हो चुकी है। भाजपा मोदी के विकास के नारे की सफलता के प्रति आश्वस्त नहीं है। इसीलिए वह अपने चिर-परिचित ब्रहमास्त्र को भी अपना रही है। यह इस बात का संकेत है कि भाजपा कभी भी अपना ‘सभ्य’ चेहरा छोड़कर अपने वास्तविक मूल बनैले चेहरे की ओर लौट सकती है। मोदी-अमित शाह-योगी आदित्यनाथ इसकी असलियत हैं।
मोदी को हर तरह से प्रचारित करने में लगे हुए पूंजीपति वर्ग के प्रचार माध्यमों के प्रचार के बावजूद पिछले पांच महीनों की भाजपा की जोड़-तोड़ और खरीद-परोख्त की कोशिशों ने मोदी के चेहरे पर काफी कालिख पोती है। केवल उद्दंड संघी ही इससे इंकार कर सकते हैं। काले धन के मुददे के साथ इस मुददे को मिलाकर देखें तो यह मोदी के अपने और भाजपा के संबंध में हर बड़बोले दावे की पोल खोल देता है। भाजपा राजनीतिक कुकर्मों में कांग्रेस से चार कदम आगे है।
बीते पांच महीेनों ने कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की भी कम फजीहत नहीं की है। ये दोनों पार्टियां अपने विधायकों की भाजपा से उसी तरह हिफाजत करने में लगी हुयीं थीं जैसे गड़रिये अपनी भेड़ों की करते हैं। भेड़ों के विपरीत इन पार्टियों के विधायक बेहद चालाक और धूर्त थे जो ऊंचे से ऊंचे दाम में खुद को बेचना चाहते थे। उन्हें इस बात का भी भय था कि पता नहीं अगली बार जीतें या न जीतें।
आम आदमी पार्टी ने तो अपनी और ज्यादी पोल खोलते हुए एक बार फिर कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाने की कोशिश की लेकिन कांग्रेसियों ने उसे ठेंगा दिखा दिया। कांग्रेसियों को लगता है कि उनका अब से ज्यादा बुरा हाल नहीं हो सकता।
कुल मिलाकर दिल्ली प्रदेश की राजनीति ने एक बार फिर भारत की पूंजीवादी राजनीति की सड़ान्ध को तीक्ष्णता से उजागार किया। विधान सभा चुनाव होने तक यह और भी बड़े पैमाने पर देखने को मिलेगा।
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