पश्चिमी साम्राज्यवादियों से थोड़ी भी तारीफ पाकर इतराने वाला भारत का शासक पूंजीपति वर्ग और उसके लगुए-भगुए इस समय सकते में हैं। वे कैलाश सत्यार्थी और उनके बचपन बचाओ आंदोलन को नोबेल पुरस्कार मिलने की खुशी मनाने की बात तो क्या उसकी चर्चा भी नहीं कर रहे हैं। उनकी यह खामोशी चीख-चीख कर बोल रही है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब भारत के शासक और उसके मुरीद उपभोक्तावादी मध्यम वर्गीय लोग इस बात पर अपनी पीठ थपथपा रहे थे कि भारत का मंगल यान अपने मिशन पर पहुंचने में सफल हो गया और वह भी पहले ही प्रयास में (बस वह यह नहीं बता रहे थे कि यह भारत की प्रसिद्ध ‘‘जुगाड़ तकनीक’’ से हुआ था)। अब यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार देकर उन्हें उनकी हैसियत दिखा दी है। मानो वह कह रहे हैं कि पहले अपने यहां बाल मजदूरी तो समाप्त कर लो फिर मंगल ग्रह के बारेे में सोचना ।
किसी को भी लग सकता है कि बाल मजदूरी का शांति से कोई संबंध नहीं है, इसीलिए कैलाश सत्यार्थी को नोबेल का शांति पुरस्कार दिए जाने का कोई तुक नहीं है। लेकिन नोबेल शांति पुरस्कार को दिए जाने का कोई तुक होता तो वह अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को क्यों मिलता ? और यदि गलतफहमी में दे भी दिया गया तो वह छीन क्यों नहीं लिया जाता जब वह सबसे ज्यादा हमलावर राष्ट्रपति साबित हो चुके हैं ? युद्ध के पैसे से स्थापित और आज भी हथियारों का कारोबार करने वाली नोबेल इंडस्ट्रीज का नाम धारक नोबेल शांति पुरस्कार यूरोपीय साम्राज्यवादियों की राजनीति का एक अस्त्र है जिसका इस्तेमाल वे करते रहते हैं। एक जमाने में वह सोवियत खेमे के खिलाफ इसका खूब इस्तेमाल करते थे, अब वे पिछड़े पूंजीवादी देशों के खिलाफ या फिर प्रतिद्वंदी अमेरिकी साम्राज्यवादियों या चीनी पूंजीवादी शासकों के खिलाफ करते रहते हैं।
भारत के पूंजीवादी शासक इस समय अपने पूंजीवादी विकास की खुद ही खूब डींग हांक रहे हैं। यह पुरस्कार देकर यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने इनके पूंजीवादी विकास के चरित्र को रेखांकित किया है। इसमें उनकी मंशा अच्छी कतई नहीं है। उन्हें भारत के बच्चों या बाल मजदूरों की जरा भी चिंता नहीं है। वे तो उनके बहाने भारतीय शासकों को उनकी औकात बता रहे हैं।
इसी तरह पाकिस्तान की मलाला युसुफजाई को पुरस्कार देकर वे बता रहे हैं कि तुम कितनी जहालत में हो । हां, वे इस बात को कतई उजागर नहीं होने दे सकते हैं कि इस जहालत के जितने जिम्मेदार पाकिस्तानी शासक हैं उतने ही साम्रज्यवादी भी। यह अमेरिकी साम्राज्यवादी ही थे जिन्होंने अफगानिस्तान की सोवियत परस्त सुधारवादी कम्युनिस्टों की सरकार को उखाड़ने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों को पाला-पोसा जिसकी अंतिम कड़ी तालिबान हैं। सोवियत परस्त सुधारवादी कम्युनिस्टों का एक गुनाह यह था कि वे लड़कियों -औरतों को सामंती मध्ययुगीनता से बाहर लाकर उनकी शिक्षा-दीक्षा करने का प्रबंध कर रहे थे। अब अपनी ही करतूत से उपजे तालिबान के खिलाफ वे मलाला जैसी भोली-भाली लड़की को अपना मुहरा बना रहे हैं तथा अपने एजेंट के रूप में ढाल रहे हैं।
यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने कैलाश सत्यार्थी और मलाला युसुफजाई को एक साथ पुरस्कार देकर तथा साफ-साफ यह कहकर एक हिंदु और एक मुसलमान को साथ-साथ पुरस्कार मिल रहा है यह जताने की कोशिश की कि भारत और पाकिस्तान के लोग हिंदु मुसलमान के नाम पर आपस में लड़ते रहते हैं पर हम इससे उपर हैं। यह भी सीमा पर एक-दूसरे के खिलाफ गाहे-बगाहे गोलाबारी करने और इसका जमकर प्रचार करने वाले भारत-पाकिस्तान शासकों को चपत थी। किसी पुरस्कार के जरिए जितनी राजनीति की जा सकती है, उतनी नोबेल कमेटी ने की और भारत-पाकिस्तान के शासकों को इस लायक भी नहीं छोड़ा कि वे विरोध कर सकें। वे बस चुप्पी लगा सकते थे और लगा गए। जी-हुजूरी करने वाले आखिर अपने आकाओं को कह भी क्या सकते हैं
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब भारत के शासक और उसके मुरीद उपभोक्तावादी मध्यम वर्गीय लोग इस बात पर अपनी पीठ थपथपा रहे थे कि भारत का मंगल यान अपने मिशन पर पहुंचने में सफल हो गया और वह भी पहले ही प्रयास में (बस वह यह नहीं बता रहे थे कि यह भारत की प्रसिद्ध ‘‘जुगाड़ तकनीक’’ से हुआ था)। अब यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने कैलाश सत्यार्थी को शांति का नोबेल पुरस्कार देकर उन्हें उनकी हैसियत दिखा दी है। मानो वह कह रहे हैं कि पहले अपने यहां बाल मजदूरी तो समाप्त कर लो फिर मंगल ग्रह के बारेे में सोचना ।
किसी को भी लग सकता है कि बाल मजदूरी का शांति से कोई संबंध नहीं है, इसीलिए कैलाश सत्यार्थी को नोबेल का शांति पुरस्कार दिए जाने का कोई तुक नहीं है। लेकिन नोबेल शांति पुरस्कार को दिए जाने का कोई तुक होता तो वह अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को क्यों मिलता ? और यदि गलतफहमी में दे भी दिया गया तो वह छीन क्यों नहीं लिया जाता जब वह सबसे ज्यादा हमलावर राष्ट्रपति साबित हो चुके हैं ? युद्ध के पैसे से स्थापित और आज भी हथियारों का कारोबार करने वाली नोबेल इंडस्ट्रीज का नाम धारक नोबेल शांति पुरस्कार यूरोपीय साम्राज्यवादियों की राजनीति का एक अस्त्र है जिसका इस्तेमाल वे करते रहते हैं। एक जमाने में वह सोवियत खेमे के खिलाफ इसका खूब इस्तेमाल करते थे, अब वे पिछड़े पूंजीवादी देशों के खिलाफ या फिर प्रतिद्वंदी अमेरिकी साम्राज्यवादियों या चीनी पूंजीवादी शासकों के खिलाफ करते रहते हैं।
भारत के पूंजीवादी शासक इस समय अपने पूंजीवादी विकास की खुद ही खूब डींग हांक रहे हैं। यह पुरस्कार देकर यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने इनके पूंजीवादी विकास के चरित्र को रेखांकित किया है। इसमें उनकी मंशा अच्छी कतई नहीं है। उन्हें भारत के बच्चों या बाल मजदूरों की जरा भी चिंता नहीं है। वे तो उनके बहाने भारतीय शासकों को उनकी औकात बता रहे हैं।
इसी तरह पाकिस्तान की मलाला युसुफजाई को पुरस्कार देकर वे बता रहे हैं कि तुम कितनी जहालत में हो । हां, वे इस बात को कतई उजागर नहीं होने दे सकते हैं कि इस जहालत के जितने जिम्मेदार पाकिस्तानी शासक हैं उतने ही साम्रज्यवादी भी। यह अमेरिकी साम्राज्यवादी ही थे जिन्होंने अफगानिस्तान की सोवियत परस्त सुधारवादी कम्युनिस्टों की सरकार को उखाड़ने के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों को पाला-पोसा जिसकी अंतिम कड़ी तालिबान हैं। सोवियत परस्त सुधारवादी कम्युनिस्टों का एक गुनाह यह था कि वे लड़कियों -औरतों को सामंती मध्ययुगीनता से बाहर लाकर उनकी शिक्षा-दीक्षा करने का प्रबंध कर रहे थे। अब अपनी ही करतूत से उपजे तालिबान के खिलाफ वे मलाला जैसी भोली-भाली लड़की को अपना मुहरा बना रहे हैं तथा अपने एजेंट के रूप में ढाल रहे हैं।
यूरोपीय साम्राज्यवादियों ने कैलाश सत्यार्थी और मलाला युसुफजाई को एक साथ पुरस्कार देकर तथा साफ-साफ यह कहकर एक हिंदु और एक मुसलमान को साथ-साथ पुरस्कार मिल रहा है यह जताने की कोशिश की कि भारत और पाकिस्तान के लोग हिंदु मुसलमान के नाम पर आपस में लड़ते रहते हैं पर हम इससे उपर हैं। यह भी सीमा पर एक-दूसरे के खिलाफ गाहे-बगाहे गोलाबारी करने और इसका जमकर प्रचार करने वाले भारत-पाकिस्तान शासकों को चपत थी। किसी पुरस्कार के जरिए जितनी राजनीति की जा सकती है, उतनी नोबेल कमेटी ने की और भारत-पाकिस्तान के शासकों को इस लायक भी नहीं छोड़ा कि वे विरोध कर सकें। वे बस चुप्पी लगा सकते थे और लगा गए। जी-हुजूरी करने वाले आखिर अपने आकाओं को कह भी क्या सकते हैं
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