Wednesday, September 17, 2014

यह खुश होने का समय नहीं

       16 सितंबर को आए विधान सभा उपचुनावों के परिणामों से, खासकर उत्तर प्रदेश के परिणामों से, जहां भाजपा की विरोधी पूंजीवादी पार्टियां खुश हैं,वहीं प्रगतिशील ताकतों ने भी राहत महसूस की है कि कम से कम संघ का सांप्रदायिक रथ तेजी से दौड़ता नहीं लग रहा है। पर यह वास्तव में प्रगतिशील ताकतों के खुश होने का समय नहीं है। 
       एकदम शुरु से ही स्पष्ट रहा है कि केंद्र की संघी सरकार छुट्टे-लुटेरे पूंजीवाद को हर तरह से बढ़ावा देने और इससे बदहाल होती जनता को सांप्रदायिक उन्माद में उलझाने की दोहरी नीति पर चलेगी। मोदी के "अच्छे दिनों" का यही वास्तविक चरित्र होगा। 
       मोदी सरकार के चार महीनों से ही स्पष्ट हो गया है कि वह अपनी इस पूर्व-निर्धारित दिशा से जौ भर नहीं टलने वाली। अमित शाह को भाजपा का अध्यक्ष बनाना और फिर योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश में प्रमुखता में लाना इसी का हिस्सा है। 
       कल के चुनाव परिणामों के बाद पूंजीवादी प्रचारतंत्र का एक हिस्सा मोदी और भाजपा को यही नसीहत देता दिखा कि वे 'लव  जिहाद' योगी आदित्यनाथ तथा सांप्रदायिक उन्माद से दूर रहें। उसने यह पुरजोर संदेश देने की कोशिश की कि भाजपा और मोदी विकास के नाम पर चुनाव जीते हैं और उन्हें इसी पर चलना चाहिए।
       पर मोदी और अमित शाह जानते हैं कि उनकी जीत में जितनी भूमिका विकास के नारे की रही है, उससे ज्यादा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की रही है। लोकसभा में उनके बहुमत का आधार उत्तर प्रदेश और बिहार में उन्हें मिली अप्रत्याशित सफलता है। और यह सफलता पूरी तरह सांप्रदायिक उन्माद से हासिल हिंदु मतों के ध्रुवीकरण के जरिए मिली। हिंदु मतों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण इस कदर था कि बसपा सन्न रह गई और उसने इन उपचुनावों में न उतरने का फैसला कर लिया।
      इसलिए यदि मोदी को लोकसभा चुनावों में अपनी जीत के नारों पर जमे रहना है तो इसका मतलब ऊपरी तौर पर विकास का नारा देते हुए वास्तव में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर जमे रहना है। और मोदी वास्तव में यही तो कर रहे हैं। इसीलिए अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जैसे शख्स भाजपा में आगे किए जा रहे हैं।
      इसीलिए यह उम्मीद करना बेवकूफी होगी कि इन उपचुनावों में हार (पिछले दो महीनों में 54 विधान सभा उप चुनावों में भाजपा को केवल 19 सीटें मिली हैं) से सबक लेकर भाजपा सांप्रदायिक उन्माद फैलाने से बाज आएगी और विकास और रोजी-रोटी के बुनियादी मुद्दो पर लगेगी। यानी वह अपना सारा सांप्रदायिक अतीत छोड़कर एक दक्षिणपंथी पार्टी भर बन जाएगी। मोदी और भाजपा के नेता यह अच्छी तरह से जानते हैं कि जिस छुट्टे पूंजीवाद को और ज्यादा छूट देने के लिए वे प्रतिबद्ध हैं वह मजदूर मेहनतकश जनता को रोटी नहीं दे सकता। यही नहीं उनकी रोटी में कटौती ही करेगा क्योंकि इस कटौती के बिना पूंजीपतियों का मुनाफा नहीं बढ़ाया जा सकता जिसे बढ़ाने के लिए ही पूंजीपतियों ने तीस-चालीस हजार करोड़ रुपया खर्च कर और अपने प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल कर मोदी को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया।
      मोदी सरकार ठीक इसी कारण से कि वह मजदूर-मेहनतकश जनता की रोटी बढ़ाने के बदले छीनेगी, उन्हें सांप्रदायिक उन्माद में उलझायेगी। इसके अलावा और कुछ नहीं हो सकता।
      इसीलिए प्रगतिशील और क्रांतिकारी ताकतों को भाजपा को लगे इस हल्के-फुल्के धक्के से खुश होने की जरूरत नहीं है। उन्हें इनके छुट्टे पूंजीवाद और सांप्रदायिक उन्माद के विरुद्ध अपने संघर्ष को और ज्यादा व्यापक बनाना व तीखा करना होगा।

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