जम्मू-कश्मीर इस समय एक भयानक बाढ़ त्रासदी का शिकार है। सारे देश के लोग इस समय सहज एकजुटता के भाव से इस त्रासदी के शिकार लोगों के साथ हैं। वे हर संभव मदद कर रहे हैं और मदद के आह्वान का तहे दिल से जवाब दे रहे हैं।
लेकिन वर्तमान संघी केन्द्रीय सरकार और उसके लगुए-भगुए इस त्रासदी को अपने हिन्दू साम्प्रदायिक हित में इस्तेमाल करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं। जोर-शोर से प्रचार किया जा रहा है कि इस त्रासदी के शिकार कश्मीरी लोगों की मदद में भारत सरकार और भारतीय सेना सामने आई जिसके खिलाफ कश्मीरी विद्रोह किये हुए हैं। जिस सेना पर पत्थर फेंके जाते थे वही कश्मीरी लोगों को बचा रही है। पत्थर फेंकने वाले अलगाववादी नेता गायब हैं।
इस घृणित प्रचार में यह बात गोल कर दी जाती है कि जम्मू-कश्मीर पर भारत सरकार का शासन है और भारत सरकार के अनुसार वह भारत का अभिन्न हिस्सा है। ऐसे में देश के किसी भी अन्य हिस्से की तरह यहां भी बाढ़, सूखे या भूकम्प की स्थिति में सहायता पहुंचाना सरकार का दायित्व बनता है। यह सरकार की ओर से एहसान का मामला नहीं है। इस दायित्व से मुकरने पर सरकार को चारों ओर से कठघरे में खड़ा किया जायेगा। इसलिए यदि भारत सरकार और भारतीय सेना कश्मीर में कुछ राहत पहुंचा रही है तो यह उसकी तारीफ का मामला नहीं बनता। हां, इस मामले में लापरवाही बरतने पर या भेदभाव करने पर उसकी तीखी आलोचना का मामला जरूर बनता है।
रही कश्मीरी जनता की भारत से आजादी की मांग की बात तो यह एक ऐसा राजनीतिक सवाल है जिसका समाधान जरूरी है। इसके लिए उनके संघर्ष को इस समय की त्रासदी में उनकी राहत की जरूरतों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। जो ये करते हैं वे स्वयं घृणा के योग्य हैं और उनकी भर्त्स्ना की जानी चाहिए। एक बार फिर यह कि इस त्रासदी के समय सारे देश के लोग जम्मू-कश्मीर की जनता के साथ खड़े हैं। त्रासदी के शिकार लोगों, खासकर मजदूरों-मेहनतकशों को बड़े पैमाने पर मदद की जरूरत है और हर संभव तरीके से यह पहुंचाई जानी चाहिए।
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