Monday, June 2, 2014

यह बर्बर घटना बर्बर सामाजिक ताने-बाने की उपज है

     बदायूं में दो नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार और उनकी हत्या की घटना पर जिस तरह पूंजीवादी प्रचारतंत्र और पूंजीवादी पार्टियां व नेता नैतिक गुस्से का इजहार कर रहे हैं, वह बेहद घृणित है। यह उससे कम घृणित और जुगुसित नहीं है जो अखिलेश व मुलायम कर रह हैं।
      सभी चीख-चीखकर कानून व्यवस्था के लचर या तार-तार होने की भत्र्सना कर रहे हैं। इसके लिए अखिलेश सरकार को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। कुछ तो प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू करने की मांग उठा रहे हैं। जवाब में अखिलेश सिंह अपनी सरकार की रक्षा कर रहे हैं। 
     असल में यह बर्बर घटना कानून व्यव्सथा के कमजोर या मजबूत होने से बहुत आगे जाती है। यह पूरे समाज और शासन के ताने-बाने को उजागार करती है जिस पर न केवल सारे चुप हैं बल्कि जिसे सारे ढंकना भी चाहते हैं। 
     यह मसला कुछ पुरूषों की यौन लिप्सा, कुछ नौजवानों के भटकने या उनके मुलायम सिंह बलात्कार समर्थक बयान से प्रोत्साहित होने का नहीं है। यह मसला उस सामाजिक ताने-बाने का है जिसमें वर्ग, जाति और लिंग के आधार प्रभुत्शाली लोग कुछ भी कर गुजरने का साहस करते हैं। बदायूं की नाबालिग बच्चियां गरीब दलित परिवार की लड़कियां हैं। उनके गायब हो जाने की रिपोर्ट थाने में करने जाने वाले बाप को वहां सरेआम अपमानित किया जाता है और पूरी हिकारत के साथ दुतकार कर भगा दिया जाता है। यह गौरतलब है कि बलात्कारियों और हत्यारों में दो पुलिस वाले भी हैं।
     गांव के किसी गरीब दलित और उनकी लड़कियों के साथ पुलिस का यह व्यवहार कानून-व्यवस्था का मामला नहीं है। यह उस सामाजिक सरंचना का मामला है जिसकी एक अभिव्यक्ति अभी इन लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत में हुयी। यह उस प्रशासनिक संरचना का मामला है जिसमें पुलिस बेगुनाह मुसलमान युवकों को फर्जी मुठभेड़ में मार देती है या आतंकवाद के फर्जी मामले में फंसाकर फांसी चढ़ा देती है। गोहाना से लेकर बदायूं तक और इशरत जहां से लेकर अफजल गुरू तक इसका पूरा विस्तार है। इसे कानून-व्यवस्था से ठीक नहीं किया जा सकता क्योंकि कानून-व्यवस्था वाले तो स्वयंही मुजरिम हैं, बदायूं मामले में तो शाब्दिक अर्थों में।
     ठीक यही मसला है जिस पर मोदी से लेकर राहुल तक और मुलायम से लेकर माया तक कोई नहीं बोलना चाहेगा। अब जबकि संघी दिल्ली में सत्ताशीन हो चुके हैं तो हालात बद से बदतर होंगे।
    एक बार फिर ‘बलात्कारियों को फांसी दो’ और ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ की आड़ में सारे पूंजीवादी रहनुमा छिप जाना चाहते हैं। पर जो लोग वास्तव में इस तरह की घटनाओं के होने को समाप्त करना चाहते हैं उन्हें समस्या को उसकी जड़ से उठाना होगा।

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