सोलहवीं लोकसभा के चुनावों में भाजपा और राजग की जीत के बाद एकाधिकारी पूंजीपति वर्ग से लेकर संघ परिवार तक जश्न मना रहे हैं। चुनावों से पहले की अपनी धुंआधार प्रचार की नीति को जारी रखते हुए पूंजीवादी प्रचार तंत्र इसे ‘ऐतिहासिक’ इत्यादि बताने में लगा हुआ। स्तुतिगान और साष्टांग दंडवत की सारी सीमाएं लांघी जा रही हैं। हर तरीके से यह स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है कि अब के बाद देश में सब कुछ बदल जायेगा और वह भी शानदार दिशा में।
घनघोर पूंजीवादी प्रचार के इस समय में कुछ सवालों के जवाब जरूरी हो जाते हैं। इसमें से तीन प्रमुख हैंः 1.) भाजपा और राजग की इस जीत का क्या यथार्थ है? 2.) इस जीत का सामान्य राष्ट्रीय-अंतराष्ट्रीय राजनीतिक परिपेक्ष्य क्या है? 3.) आने वाले समय में देश में क्या कुछ घटित होने वाला है?
इन सवालों को एक-एक कर लिया जाये।
भाजपा और राजद की इस जीत के बारे में कहा जा रहा है कि यह अभूतपूर्व है, ऐतिहासिक है। बिना कहे यह कहने का प्रयास किया जा रहा है कि ऐसा देश में पहले कभी नहीं हुआ। यह भी कहा जा रहा है कि इस जीत में देश में लम्बे समय से चला आ रही धर्म और जाति की राजनीति खंडित हो गई है। भाजपा को लोगों ने इन से परे जा कर वोट दिया है। इसी के साथ कहा जा रहा है कि अब न केवल सपा-बसपा जैसी पार्टियों के दिन लद गये हैं बल्कि कांग्रेस पार्टी भी इस बार के मर्णान्तक प्रहार से नहीं उबर पायेगी यानी आगे अब देश में भाजपा का ही राज चलेगा। साथ ही यह भी कहा जा रहा है कि क्षेत्रिय पार्टियों और गठबंधन की राजनीति का दौर समाप्त हो रहा है।
मोदी और भाजपा के पक्ष में झूठ और अर्धसत्य पर आधारित चुनाव प्रचार की तरह इन बातों में भी झूठ और अर्धसत्य की भरमार है और इनके द्वारा मोदी व भाजपा को और ज्यादा मजबूत बनाने की कोशिश की जा रही है। तथ्य ठीक उल्टी बात करते हैं।
भाजपा की इस जीत को अभूतपूर्व और ऐतिहासिक बताया जा रहा है। यह सच है कि इस जीत के साथ 1984 के बाद पहली बार किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है। पर यह न तो अभूतपूर्व है और न ही ऐतिहासिक। बात ठीक उल्टी है। भाजपा को इस चुनाव में कुल 282 सीटें और 31.0 प्रतिशत वोट मिले जबकि राजग को 336 सीटें और 38.27 प्रतिशत वोट। यह भारत के इतिहास में पहली बार था कि कोई पार्टी इतने कम वोट पाकर पूर्ण बहुमत हासिल कर ले। 1984 की राजीव गांधी की कांग्रेस की वाकई अभूतपूर्व जीत को किनारे रख भी दें तो 1977 में जनता पार्टी को 295 सीटों के साथ 41.32 प्रतिशत वोट मिले थे। 1971 में कांग्रेस पार्टी को 352 सीटों के साथ 43.68 प्रतिशत मत मिले थे तबकि 1980 में 353 सीटों के साथ 42.69 प्रतिशत मत। 1977 का आंकडा इसलिए महत्वपूर्ण है कि तत्कालीन जनता पार्टी में आज की भाजपा भी शामिल थी। 1977 की जनता पार्टी की 295 सीटों से आज की भाजपा की 282 सीटों का आंकडा बहुत दूर नहीं है। पर वोटों में सीधे 10 प्रतिशत का फर्क है। 1977 की जनता पार्टी के मुकाबले इस बार की भाजपा का प्रदर्शन दयनीय है। यह आज भाजपा की बहुत ज्यादा लोकप्रियता को प्रदर्शित नहीं करता। उसे कुल मतदाताओं के महज पांचवें हिस्से का ही समर्थन हासिल है जबकि सम्पूर्ण राजग को महज चैथे हिस्से का। यह तो महज भारत की चुनावी व्यवस्था का खेल है कि कुल मतदाताओं के महज पांचवे हिस्से का समर्थन पाने वाली पार्टी संसद में पूर्ण बहुतम हासिल कर लेती है और अपनी लोेकप्रियता का ढोल पीटती है। कम से कम तीन-चैथाई मतदाताओं में तो एकदम ही लोकप्रिय नहीं है। केवल वोट डालने वाले लोगों के हिसाब से ही देखें तो 60 प्रतिशत से ज्यादा लोग भाजपा के खिलाफ हैं क्योंकि राजग को 40 प्रतिशत से कम ही वोट मिले हैं।
जिस कांग्रेस पार्टी को ये अतीत की चीज बता रहे हैं उसकी वास्तविकता क्या है? कांग्रेस को इस चुनाव में 44 सीटें और 19.3 प्रतिशत मत मिले हैं। कांग्रेस की हालत वाकई बेहद खराब है। यह उसका सबसे खराब प्रदर्शन है। पर इसके बावजूद इसे मिले वोटों का प्रतिशत 2009 में भाजपा को मिले वोटों से ज्यादा है। तब भाजपा को महज 18.80 प्रतिशत वोट मिले थे (116 सीटों के साथ)। भाजपा किस दम पर कूद रही है। इसी तरह 2009 में कांग्रेस को केवल 206 सीटें मिली थीं जबकि उसे 28.55 प्रतिशत मत मिले थे, अबकी बार भाजपा के मतों से महज ढाई प्रतिशत कम जबकि वह बहुमत से कोसों दूर थी। यह सब आंकड़े भाजपा के बारे में कोई गुलाबी तस्वीर नहीं बनाते और न ही यह इंगित करते हैं कि भविष्य में कांग्रेस वापसी नहीं कर सकती। यदि भाजपा पांच सालों में 18.80 प्रतिशत मतों से 31.0 प्रतिशत तक पहुंचकर बहुमत हासिल कर सकती है तो कांग्रेस भी 18.3 प्रतिशत से छलांग लगाकर यह कर सकती है। कांग्रेस ने 1980, 1991, 2004 में यह किया भी है।
क्षेत्रीय पार्टियों और गठबंधन की राजनीति के बारे में भी, ठीक इसी तरह, सारा प्रचार मिथ्या है। इस बार भी दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों को आधे ही वोट मिले (31.0 व 19.3)। 49.7 प्रतिशत मत क्षेत्रीय पार्टियों को मिले (जिसमें राष्ट्रीय पार्टी की मान्यता प्राप्त क्षेत्रीय पार्टियां भी हैं)। सीटें भी इन्हें कम नहीं मिली हैं। कुल 543 सीटों में से इन्हें 217 सीटें मिली हैं। जिनमें से 54 राजग में हैं और 12 संप्रग में। राजग में भी यदि 54 सीट पाने वाली पार्टियां भाजपा के साथ नहीं होतीं तो भाजपा कभी भी 282 सीट हासिल नहीं कर सकती थी। कोई कारण नहीं है कि अकेले दम पर बहुमत हासिल कर लेने के बाद भी भाजपा नेता राजग गठबंधन के इतने मुरीद हैं। वे इसकी वास्तविक कीमत जानते हैं। भारत की पूंजीवादी राजनीति से क्षेत्रीय दल और उनकी भूमिका इतनी आसानी से गायब नहीं होने वाली। इसके लिए भारत को उससे बहुत-बहुत ज्यादा समांग होना पड़ेगा जितना आज भारत है अथवा कांग्रेस व भाजपा को ही बेहद असमांग हो जाना पड़ेगा।
अब रही धर्म और जाति की बात। इन चुनावों में भाजपा की जीत मंडल और कमंडल से ऊपर उठने का परिणाम नहीं बल्कि दोनों में दक्षता से ताल-मेल बैठाने में है। कहना न होगा कि मोदी और अमित शाह एक दूसरे तरीके से शेष उत्तर भारत में गुजरात माॅडल लागू करने में कामयाब रहे हैं।
गुजरात में भाजपा की जीत का यह बुनियादी आधार था कि वहां भाजपा ने मुसलमानों के खिलाफ सवर्ण हिन्दुओं ही नहीं बल्कि पिछड़े और दलित हिन्दुओं को भी लामबंद किया। इसी के साथ उसने आदिवासियों में भी आधार बनाया।
एक लम्बे समय से भाजपा की दुर्गति का कारण बिहार और उत्तर प्रदेश में उसकी असफलता थी। यदि इस बार भी इन दोनों प्रदेशों में भाजपा की पहले की तरह हालत होती तो वह 200 सीटों के आस-पास सिमट जाती। ज्यादातर विश्लेषक इसीलिए भाजपा को बहुमत मिलने से इंकार कर रहे थे। वे मंडल और कमंडल के टकराव को दूर होता नहीं देख रहे थे।
और यहीं पर मोदी-अमित शाह तथा संघ परिवार ने अपना शानदार कारनामा अंजाम दिया। एक योजना के तहत चुनावों से पहले साल भर से बिहार और उत्तर प्रदेश में हिन्दू मुस्लिम दंगे भड़काये गये जिनकी चरम परिणति मुजफ्फर नगर दंगों में हुई। ज्यादातर लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि मुजफ्फर नगर दंगे 2002 के गुजरात नरसंहार का एक छोटा संस्करण थे। एक योजना के तहत संघ परिवार द्वारा दंगे भड़का कर मुसलमानों को उनके गांवों से खदेड़ा गया और उनके खिलाफ सभी हिन्दुओं को लामबंद किया गया। इस कारण जाट और जाटव क्रमशः रालोद (अजीत सिंह) और बसपा का साथ छोड़कर भाजपा के पीछे खड़े हो गये। परिणाम यह निकला कि सीटों के हिसाब से इस क्षेत्र में सपा और कांग्रेस का ही नहीं बल्कि बसपा और रालोद का सफाया हो गया। मुसलमान मतों को अपने पीछे करने की नीयत से इन दंगों में सपा ने जो घृणित भूमिका निभाई थी उसे उसकी कीमत चुकानी पड़ी।
दंगों के द्वारा मुसलमानों के खिलाफ हिन्दू वोटों को अपने पक्ष में करने से आगे बढ़कर भाजपा ने और भी दांव खेला। उसने इस बात पर ध्यान केन्द्रित किया कि यादवों को विशेषाधिकार देने के कारण अन्य पिछड़े सपा से नाराज हैं तो जाटवों/चमारों को विशेषाधिकार देने के कारण अन्य दलित जातियां बसपा से। भाजपा ने इन्हें अपने साथ लाने की कोशिश की और कामयाब रही। मुस्लिम विरोधी भावनाएं भड़काने के अलावा इसके लिए मोदी के पिछड़ा या दलित होने को खूब प्रचारित किया गया। इन्हीं सबको पूंजीवादी प्रचार माध्यमों में सभ्य भाषा में भाजपा की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ और ‘रिवर्स पोलराइजेशन’ कहा जा रहा है। आम भाषा में इसे जाति और धर्म की राजनीति कहा जाता है। इस तरह सपा-बसपा की नीति पर उतर कर ही भाजपा इन्हें मात दे सकी। इसमें अपना दल और लोजपा जैसी पार्टियों से गठबंधन ने उसकी मदद की।
कुल मिलाकर भाजपा की जीत बिल्कुल भी वैसी नहीं है जैसा उसे प्रचारित किया जा रहा है। यह प्रचार झूठ और अर्धसत्य पर टिका हुआ है। हां, यह जरूर कहना होगा कि इस जीत में कांग्रेस के दस वर्ष के बदनाम और घृणित शासन के प्रति जनता के गुस्से तथा तथाकथित गुजरात माॅडल के सब्जबाग की भी भूमिका है। यह सब्जबाग भी झूठ और अर्धसत्य पर आधारित है तथा आने वाले दिनों की गति में इसकी अपनी भूमिका होगी।
मोदी नीत भाजपा की इस जीत के राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की बात करें तो एक तरह से यह भारत की पूंजीवादी राजनीति के दक्षिण की ओर ढुलकने की अंतिम परिणति है और यह पूरी दुनिया में पूंजीवादी राजनीति के आम तौर पर दक्षिण की ओर ढुलकने की प्रवृत्ति का हिस्सा है (दक्षिण अमेरिकी देशों के अपवाद को छोड़कर)। भारत की पूंजीवादी राजनीति के दक्षिण की ओर ढुलकने की शुरुआत 1980 के दशक में हुयी। यह स्वयं ‘गरीबी हटाओ’ वाली इंदिरा गांधी के द्वारा किया गया हालांकि इसकी पृष्ठभूमि आपातकाल और उसके बाद बनी जनता पार्टी की सरकार में तैयार हो चुकी थी। जनता पार्टी सरकार में दक्षिणपंथियों की प्रधानता थी हालांकि उसमें पुराने समाजवादी भी थे। लेकिन यह सरकार कोई नीतिगत परिवर्तन करने से पहले ही बिखर गई और परिवर्तन की शुरुआत अपने नये अवतार में आई इंदिरा गांधी ने की और उसे आगे बढ़ाया। ‘इक्कीसवीं सदी’ वाले उनके सुपुत्र ने जिन्हें शुरु में ‘मिस्टर क्लीन’ की उपाधी दी गई लेकिन जो बहुत जल्दी ‘मिस्टर डर्टी’ में रूपांतरित हो गये।
पर इस परिवर्तन में गुणात्मक छलांग लगी 1991 में ‘नयी आर्थिक नीति’ के साथ। इसके साथ नेहरू के टूटे-फूटे ‘कल्याणकारी राज’ को त्याग दिया गया। सरकार अब गरीबों के लिए धर्मशाला के बदले पूंजीपति वर्ग के लिए पांच सितारा होटल बन गई। आने वाले दशकों में निजीकरण-उदारीकरण-वैश्वीकारण वाली नीतियां आगे बढ़ती ही रहीं, शासन चाहे कांग्रेस का हो, भाजपा का हो या तीसरे मोर्चे का।
गौर करने की बात है कि ठीक यही काल भाजपा के उत्थान का भी काल है, उस भाजपा के, जिसकी जनसंघ के जमाने से ही ऐसी आर्थिक सोच रही है। एक ओर साम्प्रदायिक विग्रह और दूसरी ओर छुट्टे पूंजीवाद को बढ़ावा।
आर्थिक दर्शन के हिसाब से तो भारत के पूंजीपति वर्ग को 1980 या 1990 के दशक में ही अपनी परम्परागत पार्टी कांग्रेस को छोड़कर भाजपा को उसी तरह चुन लेना चाहिए था जैसा उसने 2009 के बाद किया। लेकिन एक तो तब भाजपा का अखिल भारतीय आधार नहीं था दूसरे भाजपा के साम्प्रदायिक चरित्र को लेकर पूंजीपति वर्ग अभी आश्वस्त नहीं था। उसे भरोसा नहीं था कि साम्प्रदायिक दंगे को भड़काने वाली भाजपा उसे नियंत्रित कर पूर्ण अराजक होने से रोक सकती है। लेकिन गुजरात के ‘फाइनल सोल्यूशन’ प्रयोग के बाद पूंजीपति वर्ग आश्वस्त हो गया कि भाजपा इसमें सक्षम है। गुजरात के ‘विकास माॅडल’ ने तो उसे पहले आकर्षित कर लिया था।
कुल मिलाकर अब वे स्थितियां बन गयीं थीं कि पूंजीपति वर्ग भाजपा को सचेत तौर पर आगे बढ़ाये। और जब 2009 में सत्ता में पुनः काबिज हुयी कांग्रेस ने पूंजीपति वर्ग की लूट को और छूट देने में तथा मजदूर-मेहनतकश जनता के व्यापक और संपूर्ण दमन में हिचक दिखाई तो पूंजीपति वर्ग ने उसे किनारे कर भाजपा को, खासकर मोदी नीत भाजपा को सचेत तौर पर आगे करना शुरु कर दिया। यह इस हद तक हुआ कि पहले के सारे लिहाज छोड़कर इस बार पूंजीपति वर्ग ने पैसे और अपने प्रचार माध्यमों के द्वारा बेहद नंगे ढंग से इसे अंजाम दिया। यहां तक अन्य पूंजीवादी पार्टियों को भी इस पर अपनी नाखुशी जाहिर करनी पड़ी।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि पूंजीपति वर्ग के लिए कांग्रेस की भूमिका समाप्त हो गई है। जनता के भाजपा से मोह भंग की अवस्था में या किन्हीं अन्य अवस्थाओं में भी कांग्रेस उसकी विश्वस्त पार्टी की भूमिका अदा करेगी। इसीलिए स्वयं कांग्रेस पार्टी दबी जबान से अपनी कुछ नाखुशी जाहिर करने के अलावा पूंजीपति वर्ग के खिलाफ कुछ नहीं कह रही है बल्कि अपनी हार को वह खेल का सामान्य हिस्सा बता रही है- ‘जनतंत्र में हार-जीत चलती रहती है’। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि पांच साल बाद कांग्रेस फिर सत्तारूढ़ हो।
लेकिन अब मोदी नीत भाजपा के रूप में भारत की पूंजीवादी राजनीति धुर दक्षिणपंथ तक पहुंच गई है तो वह अपना गुल खिलायेगी ही। पूंजीपति वर्ग ने लूट की खुली छूट के लिए मोदी नीत भाजपा को आगे बढ़ाया और अब वे चाहेंगे कि उन्हें उनका पावना मिले। यह तभी हो सकता है जब पर्यावरण विध्वंस को दरकिनार कर तथा जन प्रतिरोध को कुचल कर रुकी हुई परियोजनाओं को आगे बढ़ाया जाये, किसानों तथा शहरी झुग्गीवासियों के प्रतिरोध को कुचलकर उनकी जमीनें छीनी जायें और उन्हें पूंजीपतियों को सौंपा जाये, श्रम कानूनों और श्रम संगठनों को समाप्त कर मजदूरों के शोषण को बेलगाम बनाया जाये, जनता को मिल रही राहतों में कटौती कर पूंजीपतियों की प्रोत्साहन राशि को बढ़ाया जाये। मोदी नीत भाजपा का ऐसा करने का इरादा और चुनावों में किया गया वायदा है। गुजरात के अनुभव को देखते हुए मोदी सरकार इस ओर बढ़ेगी भी। यही पूरे देश के स्तर पर ‘न्यूनतम सरकार और महत्तम प्रशासन हो’।
लेकिन ऐसा करने का मतलब यह भी होगा कि मेहनतकश जनता को, खासकर युवाजनों को जो सब्जबाग दिखाया गया है वह एकदम फर्जी साबित होगा। उसका सरकार से तेजी से मोह भंग होगा। इस मोह भंग को रोकने का एक ही उपाय है- जनता को किसी और दिशा में मोड़ना। और ठीक यहीं संघ परिवार इसमें बहुत काम आयेगा और स्वयं उसे अपने मिशन को आगे बढ़ाने में मदद भी मिलेगी।
इसका सीधा मतलब यह होगा कि पूंजीपति वर्ग को लूट की खुली छूट देने के साथ मेहनतकश जनता को साम्प्रदायिक दिशा में धकेला जायेगा। हिन्दू जनमानस को बताया जायेगा कि उनकी समस्याओं का कारण देश के भीतर मुसलमान और देश के बाहर पाकिस्तान व बांग्लादेश हैं। इसके लिए राम मंदिर, धारा 370, समान नागरिक संहिता, बांग्लादेशी घुसपैठिये तथा सीमा पार से आतंकवाद का प्रसार इत्यादि मुद्दों को उछाला जायेगा। उन्माद, भय और आतंक का एक पूरा वातावरण कायम किया जायेगा तथा जब भयग्रस्त मुसलमान प्रतिक्रिया स्वरूप कुछ करेंगे उसे और भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जायेगा। इनका विरोध करने वाले भांति-भांति के वामपंथियों को तुष्टीकरण के पक्षधर, छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी, अराजकतावादी, विकास के विरोधी, राष्ट्र द्रोही इत्यादि घोषित कर उनका दमन किया जायेगा। इस तरह एक कठोर नहीं तो नरम हिन्दू फासीवादी राज कायम किया जायेगा। वैसे भी हिटलर व मुसोलिनी का कठोर नाजीवाद और फासीवाद इतना बदनाम है कि फिहाल उसके उसी संस्करण में उपस्थित होने की सम्भावना कम है हालांकि भीषण संकट के समय में इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता।
इस तरह मोदी नीत भाजपा जिसकी पृष्ठभूमि में संघ परिवार प्रेत की तरह खड़ा है, का नरम हिन्दू फासीवाद अब भारतीय समाज का यथार्थ बनने वाला है। यह मजदूर वर्ग और बाकी मेहनतकश जनता के लिए भीषण समय होगा। इसका मुकाबला करने के लिए अभी से सभी शक्तियों को गोलबंद करना होगा। देरी घातक होगी।
विश्लेशण का पहला भाग बहुत ही लचर और अप्रभावी है I प्रतीत होता है कि कोई कांग्रेस समर्थक या बीजेपी विरोधी ने लिखा हो Iचुनावीं आंकड़ों में पड़कर वही घिसी पिटी दलील परोसी गयी है I हमारी व्यवस्था की कमी पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत थी। यह एक अच्छा समय था वाम की नाकामियों की वजह ढूंढने का I दूसरा भाग प्रभावी व् आख़री सटीक है I पहले भाग की नकारात्मकता की वजह से दूसरा व् तीसरे भाग का प्रभाव कम पड़ता है I देखना यह है कि क्या फासीवादी ताकतें राष्ट्रीय मंच पर वाही कर पाएंगी जैसा प्रपंच गुजरात में रचा गया है I
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