Sunday, February 16, 2014

मजमेबाजों का सत्ता से पलायन

        दिल्ली में 48 दिन सत्तारूढ़ रहे मजमेबाज अति महत्वाकांक्षी हैं साथ ही बहुत धूर्त भी। उन्हें केवल एक बात की फिक्र है - राजनीति में अपनी हैसियत ऊपर उठाने की। इसके लिए वे कुछ भी कर सकते हैं।
        14 फरवरी को इस्तीफा देने के पहले और उसके बाद उन्होंने दावा किया कि उन्होंने चुनावों में किये गये वादों को पूरा करने के लिए अपनी ओर से सबकुछ किया। वे इसकी एक फेहरिस्त पेश करते हैं। पर असल में यह सारा कुछ उनके लिए मात्र लोकसभा चुनावों की तैयारी था।
        जब दिसंबर में इनके सामने दिल्ली में सरकार बनाने का मसला पेश हुआ तो उनके लिए सबसे बड़ा सवाल यही था कि क्या इससे लोकसभा चुनावों में इन्हें मदद मिलेगी ? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि यह सरकार उनके भविष्य के लिए घातक होगा ? वे पहले कसम भी खा चुके थे कि न तो वे सरकार बनाने के लिए कांग्रेस-भाजपा की मदद लेंगे और न देंगे।
        नाप-तौलकर इन्होंने अंत में फैसला कि कुछ दिनों तक सरकार चलाना इनके लिए फायदेमंद होगा। इसके जरिये सरकार बनाने की जनता की इच्छा भी पूरी हो जायेगी और दूसरी ओर वे यह संदेश देने में कामयाब होंगे कि बहुमत की सरकार न होने के चलते ही वे अपने वादों को पूरा नहीं कर पाये। वे अपनी असफलता का सारा ठीकरा कांग्रेस-भाजपा पर फोड़ देंगे। रही समर्थन न लेने-देने वाली कसम की बात तो उसकी काट के लिए उन्होंने सरकार बनाने न-बनाने के लिए जनमत संग्रह का नाटक रचा।
         यह सब मजमेबाजों का मास्टर मूव था। कहना न होगा कि उन्होंने राजनीति के खेल में कांग्रेस-भाजपा सरीखे पुराने खिलाडि़यों से ज्यादा दक्षता का परिचय दिया। सत्ता में अपने करीब डेढ़ महीने के दौरान इन्होंने लगातार झूठ और अर्धसत्य का सहारा लिया और ठीक इसी झूठ व अर्धसत्य के जरिये उन्होंने स्वयं को पाक-साफ और राजनीति की कीचड़ साफ करने वाले के रूप में पेश किया।
        मामला चाहे बिजली-पानी का हो या ठेके कर्मचारियों की स्थाई नियुक्ति का, चाहे वह दिल्ली पुलिस का हो या लोकपाल विधेयक का। इन्होंने पूरी दक्षता के साथ स्वयं को जनता के पक्ष में खड़ा किया, बिना कुछ किये। साथ ही यह भी प्रदर्शित किया कि कांग्रेस-भाजपा जनता की भलाई करने के इनके रास्ते में अड़ंगा लगा रहे हैं।
       किसी हद तक इसे हासिल कर लेने के बाद वे इस कोशिश में लग गये कि कांग्रेस पार्टी उनकी सरकार गिरा दे। जब ऐसा नहीं हुआ तो अंत में वे खुद ही इस्तीफा देकर चलते बने। 
        उनकी अंतिम चाल काबिलेतारीफ थी। वे जानते थे कि कांग्रेस और भाजपा उनके लोकपाल विधेयक की प्रक्रिया के खिलाफ हैं। ऐसे में यह विधेयक पास तो क्या विधानसभा में पेश भी नहीं हो सकता था। उन्होंने इसी बिन्दु पर चलते बनने का फैसला किया। शहीदी बाना ओढ़ने का उनके लिए यह सबसे अच्छा बिन्दु था। लेकिन जाने से पहले उन्होंने कांग्रेस-भाजपा को और भी काले रंग में रंगने का फैसला किया। उन्होंने मुकेश अंबानी के कोवेरी बेसिन गैस की कीमतों का मुददा उठाकर उस पर अपने भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा जांच बैठा दी जबकि यह मसला पहले ही सर्वोच्च न्यायालय में चल रहा है। इसके बाद उन्होंने घोषित किया कि कांग्रेस-भाजपा इसलिए लोकपाल विधेयक के विरोध में हैं क्योंकि दिल्ली सरकार ने मुकेश अंबानी पर जांच बैठा दी है। यह सौ प्रतिशत झूठ था लेकिन इनकी राजनीति के लिए बेहद प्रभावी।
       उदारीकरण के इस दौर में गैर सरकारी संगठनों के ज्यादातर कर्ता-धर्ता तीन-तिकड़म करने वाले और भ्रष्ट होते हैं। पूंजीवादी राजनीतिज्ञों की तरह ही वे जनता को बेवकूफ बनाते हैं। केजरीवाल एण्ड कंपनी इस मामले में महारत हासिल किये लोग हैं। अब वे अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए इसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
       विडंबना केवल इतनी है कि कुछ भलेमानस इन्हें तारनहार के रूप में देख रहे हैं। उन्हें लगता है कि ये भारत की सड़ती-बजबजाती पूंजीवादी व्यवस्था को सुधार देंगे। ऐसे लोगों को वक्त के साथ केवल भयंकर निराशा ही हाथ लगेगी।
        रही मजदूर वर्ग की बात तो इन मजमेबाजों के वास्तविक चरित्र को देख पाना उसके लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। आम मजदूर भले ही बिजली-पानी के वायदों के चलते इन्हें वोट दे दे  पर वर्ग सचेत मजदूर इन्हें उतनी ही घृणा से देखेगा जितनी घृणा से वह कांग्रेस-भाजपा इत्यादि को देखता है।  

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