इस 19 नवंबर को हुए संविधान सभा चुनावों में नेपाल की दक्षिणपंथी शक्तियों को स्पष्ट बहुमत मिला और वे कुल मिलाकर काफी ताकतवर स्थिति में सामने आयीं। न केवल नेपाली कांग्रेस और नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) का सबसे ज्यादा सीटें मिली बल्कि खुले रूप में राजशाही की समर्थक पार्टी-आर.पी.पी.-नेपाल भी चैथे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आयी। इनके मुकाबले पिछले संविधान सभा की सबसे बड़ी पार्टी रही नेपाल की एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को इस बार पिछले चुनावों की सीटों की करीब एक तिहाई सीटें ही मिली।
यह संविंधान सभा पांच साल के लिए चुनी गयी है। पहले एक साल में यह संविधान का निर्माण करेगी और हो ऐसा हो जाने पर यह अगले चार साल तक संसद के रूप में काम करती रहेगी। इस एक साल में वह साथ ही संसद का भी काम करेगी।
पिछली संविधान सभा 2008 में दो साल के कार्यकाल के लिए चुनी गयी थी। इन दो सालों में इसे संविधान का निर्माण करना था। लेकिन ऐसा न हुआ। इसके बाद इस संविधान सभा के कार्यकाल को चार बार बढ़ाया - कुल दो साल और। लेकिन इसके बाद भी संविधान नहीं बन सका। अंत में मामला नेपाल के संघीय ढांचे के सवाल पर फंस गया। जहां पहाड़ी क्षत्रिय और ब्राहमण प्रधानता वाली नेपाली कांग्रेस व एमाले बहुपहचान वाले प्रदेशों के साथ अपेक्षाकृत केन्द्रीय ढांचा चाहती थी, वहीं माओवादी पार्टी और मधेसी पार्टियां जनजातीय पहचान वाले प्रदेशों के साथ अपेक्षाकृत संघीय ढांचा। अंत में संविधान सभा बिना संविधान का निर्माण किए ही मई 2012 में भंग हो गयी।
इसके बाद नयी संविधान सभा के चुनाव में लिए जद्दोजहद शुरु हुयी। जिन वजहों से संविधान निर्माण में गतिरोध रहा उन्हीं वजहों से नया चुनाव भी टलता रहा। पहले यह नवंबर 2012 के लिए तय हुआ था पर यह अंत में टलते-टलते नवंबर 2013 तक चला गया।
अब जबकि नयी संविधान सभा के चुनाव हो चुके हैं तथा करीब एक महीने में यह नयी संविधान सभा अपनी बैठकें भी शुरू कर देगी तब विभिन्न शक्तियों के बीच चला आ रहा पुराना संघर्ष नये सिरे से इस संविधान सभा में और इसके बाहर शुरु हो जायेगा। इस संघर्ष का अंतिम परिणाम क्या निकलेगा? इसके फलस्वरूप नेपाल कौन सी दिशा ग्रहण करेगा? इन सवालों का जवाब पाने के लिए थोड़ा अतीत में जाना जरूरी है।
1989 तक नेपाल एक पंचायती राजशाही था जिसका आशय था नाम मात्र के गैर पार्टी चुनावों के साथ मूलतः राजशाही। करीब चार दशक पहले पूंजीवादी जनतंत्र स्थापित करने की कोशिशों को तभी कुचल दिया गया था और राजशाही निरंकुश तरीके से चल रही थी।
1990 में इस राजशाही के खिलाफ एक जनांदोलन हुआ जिसे आज पहला जनआंदोलन कहा जाता है। (दूसरा जनांदोलन 2006 में हुआ)। इस जनांदोलन के फलस्वरूप राजशाही पीछे हटने को मजबूर हुयी और नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र कायम हुआ। इसके तहत एक संसद का चुनाव और चुनावों के जरिये सरकार बनाने का प्रावधान किया गया। लेकिन इस संविधान में राजशाही प्रमुख बनी रही- राजा के पास कानूनों के मामले में वीटो अधिकार था, उसे सरकार और संसद भंग करने का अधिकार था तथा सेना उसके अधीन थी। इसी के साथ यह भी था कि इस संविधान ने देश के भीतर अर्ध-सामंती भूमि संबंधों तथा नेपाल के भारत के साथ विस्तारवादी संबंधों और साम्राज्यवादियों के साथ संबंधों में कोई परिवर्तन नहीं किया।
स्वभावतः ही अर्ध-सामंजती, अर्ध-औपनिवेशिक नेपाल में ये आधे-अधूरे बदलाव मजदूर-मेहनतकश जनता की जिन्दगी में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं ला सकते थे, क्रांतिकारी परिवर्तन की तो बात ही क्या ? इसके फलस्वरूप उस समय की दोनों प्रमुख पार्टियां-नेपाली कांग्रेस तथा एमाले बहुत तेजी से जनता की नजरों में गिर गयीं। उनका पतन वास्तव में बहुत तेज था। उनके नेतागण ऊपर से नीचे तक बहुत तेजी से भ्रष्ट हुए और राजनीतिक जोड़-तोड़ चरम तक जा पहुंचा। इनके इस हश्र के ठीक विपरीत मजदूर-मेहनतकश जनता परिवर्तन के लिए छटपटा रही थी।
इन्हीं स्थितियों में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) सामने आयी। इसने 1991 के चुनावों में भागेदारी की थी और इसके 9 सांसद भी थे। लेकिन 1993 तक आते-आते इस पार्टी ने यह तय किया कि नेपाल अर्ध-सामंती अर्ध-औपनिवेशिक ढांचे में क्रांतिकारी बदलाव के लिए जनयुद्ध पर आधारित नव जनवादी क्रांति शुरु की जानी चाहिए। इस निर्णय के बाद माओवादी पार्टी ने खुद को संसद से अलग कर लिया तथा जनयुद्ध की राजनीतिक-सांगठनिक तैयारियां शुरु कर दीं। अंततः फरवरी 1996 में जनयुद्ध छेड़ दिया गया।
नेपाल की अंदरूनी भौतिक परिस्थितियां जनयुद्ध के लिए सर्वथा अनुकूल थीं इसीलिए जनुद्ध का तेजी से विस्तार हुआ। उत्तर पश्चिमी रोल्पा जिले से शुरु होकर वह चार सालों में सारे देश में फैल गया और स्थिति वहां पहुंच गयी जहां जनयुद्ध राजशाही और उससे जुड़ी आर्थिक-राजनीतिक शक्तियों के लिए खतरा बन गया। नेपाल की सेना के साथ जनमुक्ति सेना का आमना-सामना अनिवार्य हो गया।
इस जनयुद्ध के दौरान नेपली कांग्रेस और एमाले इस जनयुद्ध का दमन करने में राजशाही के साथ थीं। राजा वीरेन्द्र सिंह इन पार्टियों की सरकारों के साथ और उनके माध्यम से यह काम कर रहे थे। लेकिन तब भी कुछ अंदरूनी तथा कुछ बाहरी ताकतों को लग रहा था कि राजा वीरेन्द्र सिंह इस मामले में नरमी बरत रहे हैं। इसलिए उन्हें रास्ते से हटाने के लिए जून 2001 में शाही कत्लेआम का षडयंत्र रचा गया जिसमें राजा वीरेन्द्र सिंह का समूचा परिवार मारा गया। उनके बदले ज्ञानेन्द्र सिंह ने गद्दी संभाल ली।
गद्दी पर बैठते ही ज्ञानेन्द्र सिंह ने जनयुद्ध के दमन के लिए हमला बोल दिया। पर ज्ञानेन्द्र सिंह और उनके चाकरों को धता बताते हुए जनयुद्ध और विस्तार पाता गया तथा 2004 तक आते-आते लगभग समूचे देहाती इलाकों पर माओवादी पार्टी का प्रभाव कायम हो गया, हालांकि तराई के मधेसी इलाकों पर माओवादी पार्टी का यह प्रभाव कम था। अलबत्ता माओवादी जिला मुख्यालयों पर कब्जा नहीं कर सके। वहां शाही सेना काबिज रही।
इस बीच दोनों प्रमुख पार्टियां और भी पतित होकर तथा टूट-फूट का शिकार होकर राजा ज्ञानेन्द्र सिंह के हाथ का खिलौना बन गयीं। लेकिन राजा ज्ञानेन्द्र को यह स्थिति भी स्वीकार नहीं थी। वे अपने हाथ बिलकुल मुक्त चाहते थे। इसीलिए उन्होंने संसद को किनारे लगाकर पूरी सेना अपने हाथ में ले ली। संसदीय पार्टियां बिना मुरव्वत किनारे लगा दी गयीं।
इस बीच 2004 और 2005 में माओवादी पार्टी ने राजधानी काठमाण्डू तथा जिला मुख्यालयों पर कब्जा करने के कई प्रयास किये (इनमें यहां जन विद्रोह भड़काने के प्रयास भी थे)। लेकिन ये प्रयास असफल रहे। धीरे-धीरे माओवादियों के सामने स्पष्ट होने लगा कि सशस्त्र हमले से जिला मुख्यालयों और राजधानी पर कब्जा नहीं किया जा सकता। इस बात का वास्तविक खतरा पैदा हो गया था कि गतिरोध की इस अवस्था मंे जनयुद्ध और उसकी उपलब्धियां बिखर जायें।
इन्हीं स्थितियों में माओवादी पार्टी और सात राजनीतिक पार्टियों के बीच 2005 में एक समझौता हुआ जिसने उसके बाद की नेपाली नाजनीति की गति को निर्धारित किया। इस समझौते की पृष्ठभूमि में जनयुद्ध और राजशाही की उपरोक्त स्थिति के अलावा कुछ और महत्वपूर्ण चीजें भी थीं।
नेपाल की संसदीय पार्टियां राजा ज्ञानेन्द्र द्वारा किनारे लगा दिये जाने के बाद उनके खिलाफ जाने को मजबूर हो गयीं। 2004 तक वे राजशाही के साथ खड़ीं थीं और जनयुद्ध का दमन कर रहीं थीं। अब स्थिति उलट हो गयी। उनके माओवादी पार्टी के साथ गठबंधन का आधार पैदा हो गया-राजशाही के खिलाफ।
राजा ज्ञानेन्द्र और राजशाही की स्थिति को देखते हुए भारतीय शासक भी कमोबेश इस नतीजे पर पहुंच गये थे कि नेपाल की राजनीति में राजा की पुरानी भूमिका नहीं बनी रह सकती। राजशाही को पीछे हटना ही होगा। इसके लिए वे माओवादी पार्टी और सात संसदीय पार्टियों के बीच किसी समझौते को सम्पन्न कराने के लिए आगे बढ़े। कहना नहीं होगा कि साम्राज्यवादियों की भी इस पर सहमति थी।
इसी बीच माओवादी पार्टी भी इस तरह के समझौते लिए अपने को वैचारिक तौर पर तैयार कर चुकी थी। वैसे इस तरह के रणकौशलात्मक समझौते के लिए किसी वैचारिक समझौते की जरूरत नहीं होती। एक पूर्णतया क्रांतिकारी अवस्थितयों पर खड़ी पार्टी भी इस तरह के रणकौशलात्मक समझौते कर सकती है। पर माओवादी वैचारिक तौर पर एक भिन्न दिशा में पहले ही चल पड़ी थी जिसने दस साल बाद उसे 2013 की वर्तमान अवस्था में पहुंचा दिया। इस वैचारिक दिशा का सारतत्व था पूंजीवादी जनवाद के बारे में क्रांतिकारी अवस्थितियों को त्याग कर पूंजीवादी अवस्थितियां अपना लेना। पंजीवादी जनवाद के बारे में पूंजीवादी तरीके से सोचना और व्यवहार करना। इन अस्थितियों ने समूची पार्टी के लिए संसदीय पार्टियों के साथ समझौते को स्वीकार करना आसान बना दिया लेकिन इन्हीं ने माओवादी पार्टी के पतन का रास्ता भी खोला।
नवंबर 2005 में माओवादियों और सातों संसदीय पार्टियों के बीच जो समझौता हुआ उसके तहत यह तय हुआ कि वे मिलकर राजशाही के खिलाफ एक जनाआंदेालन छेड़ेंगे जिसका नेतृत्य सातों पर्टियां करेंगी। इसके बाद नया संविधान बनाने के संविधान सभा का चुनाव करवाया जायेगा तथा इसके जरिये एक संघीय जनवादी गणतंत्र का निर्माण किया जायेगा।
माओवादी पार्टी ने अपने लिए यही सोचा कि यह नवजनवादी राज्य की ओर बढ़ने के लिए एक घुमावदार रास्ता होगा तथा इसके जरिये वे उस गतिरोध को तोड़ने में कामयाब हो जायेंगे जिसमें जनयुद्ध 2005 में फंस गया था। इसीलिए मतभेदों के बावजूद पूरी पार्टी इस रास्ते पर चल पड़ी।
दूसरी ओर सातो पार्टियों ने यह सोचा कि इसके जरिये वे राजशाही और जनयुद्ध दोनों से छुटकारा पा लेंगी। वे संसदीय व्यवस्था के दायरे में माओवादियों की बांध लेंगी। वे नेपाल को पूंजीवादी जनतंत्र से आगे बढ़ने से रोक देंगी। जनयुद्ध ने पहले ही दिखा दिया था कि राजशाही नेपाल के लिए अप्रासंगिक हो चुकी है।
जब इस समझौते के तहत अप्रैल 2006 में जनांदोलन छेड़ा गया (दूसरा जनांदोलन) तो थोड़े ही दिनों में इसने विशाल रूप धारण कर लिया। अंततः राजधानी काठमाण्डू की जनता उठ खड़ी हुयी तथा राजमहल के सामने डट गयी। जब राजा के आदेश के बावजूद सेना ने जनता पर गोली चलाने से इंकार कर दिया तो राजा के सामने इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा कि जनांदोलन के सामाने आत्म समर्पण कर दे।
इसके बाद तो कुछ ही दिनों राजा के अधिकांश अधिकार छीन लिये गये और एक अंतरिम सरकार को दे दिये गये। इस सरकार के मुखिया नेपाली कांग्रेस के मुखिया जी. पी.काइराला थे। इसी बिन्दु से नेपाल की राजनीति में राजशाही गौण हो गयी और दूसरी शक्तियों के बीच वह संघर्ष शुरु हो गया जो बदलते समीकरणों के साथ आज भी जारी है।
दस साल तक चले जनयुद्ध ने दो काम दिये थे-एक तो उसने राजशाही की जड़ें खोद दी थीं। दूसरे उसने गांवो में पुराने अर्ध-सामंती संबंधों को भी ध्वस्त कर दिया था। गांवो में जनयुद्ध की सफलता इसी के जरिये संभव हुयी थी। अब राजशाही के समर्पण के साथ यह प्रक्रिया अपने मुकाम तक जा पहुंची। नेपाल में जनवादी क्रांति सम्पन्न हो गयी। अब बस इसे संवैधानिक-कानूनी जामा पहनाना बाकी था।
इसके बाद नेपाल की राजनीति में अब दूसरा संघर्ष प्रमुख हो गया। माओवादी पार्टी द्वारा छेड़े गये जनयुद्ध का उद्देश्य था नवजनवादी राज्य कायम करना। यह नवजनवादी राज्य समय के साथ समाजवाद की ओर बढ़ता। समाजवादी राज्य नवजनवादी राज्य की नियति होता।
अब जबकि एक भिन्न तरीके से संघीय जनवादी गणतंत्र कायम हो रहा था तब पूंजीवादी पार्टियों का उद्देश्य था नेपाल को यहीं तक सीमित करना। इनके मुकाबले माओवादी पार्टी का उद्देश्य था इस प्रक्रिया को नवजनवादी राज्य कायम करने की ओर ले जाना। इन दोनों शक्तियों के बीच संघर्ष का मर्म बिन्दु यही था। इस संघर्ष में पूंजीवादी पार्टियों की मजबूती थी नेपाल का पिछड़ापन तथा भारतीय विस्तारवादियों और साम्राज्यवादियों द्वारा उनको समर्थन। दूसरी ओर माओवादियों की मजबूती थी मजदूर-मेहनतकश जनता में उनका आधार व उनकी क्रांतिकारी साख। लेकिन साथ में उनकी एक बहुत बड़ी कमजोरी भी थी-वह वैचारिक अवस्थितियां जिसका ऊपर जिक्र किया गया है। माओवादियों को बाहरी दुनिया से समर्थन बहुत कम था क्योंकि यह बड़े क्रांतिकारी आंदोलन या समाजवादी देशों की उपस्थिति की मांग करता है। इन मजबूतियों और कमजोरियों के साथ दोनों पक्ष मैदान में आ गये।
पहले तो जन सेना के रख-रखाव, अंतरिम सरकार के गठन तथा संविधान सभा के चुनाव पर ही खींचतान होती रही। अंत में 2008 में चुनाव सम्पन्न हुए। इन चुनावों में पूंजीवादी पार्टियों और उनके बाहरी समर्थकों को चैंकाते हुए माओवादी पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर सामने आयी। नेपाली कांग्रेस और एमाले मिलकर भी उसके पास नहीं पहुंचते थे। यदि केवल सीधे मतदान हुए होते माओवादी पार्टी अपने दम पर बहुमत में होती।
ऐसे में पूंजीवादी पार्टियों और उनके बाहरी समर्थक घबरा गये। उन्हें स्थिति अपने हाथ से खिसकती दिखी। इसे रोकने के लिए उन्होंने किसी भी हद तक जाने की ठान ली। पूंजीवादी जनतंत्र के नियम-कानून और उसूल पूंजीपति वर्ग व उसकी पार्टियों के लिए यूं ही होते हैं यह साबित करते हुए उन्होंने माओवादी पार्टी के रास्ते में बाधा खड़ी करनी शुरु दी। उन्होंने अपने पुराने वायदे भुला दिये।
जब संविधान सभा की पहली बैठक हुयी तो राजशाही को समाप्त कर नेपाल को संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित कर दिया गया। नेपाल के फिलहाल संचालन के लिए एक अंतरिम संविधान को भी अंतिम रूप दे दिया गया। लेकिन पूंजीवादी पार्टियां इस बात पर दृढ़ थीं कि नेपाल को किसी प्रगतिशील दिशा में जाने नहीं देना है। इसलिए पहले माओवादी पार्टी द्वारा सरकार बनाने के मामले में बाधाएं खड़ी की गयीं और उसके बाद उसके हर कदम पर।
किसी प्रगतिशील संविधान के रास्ते में सौ बाधाएं खड़ी करते हुए साथ ही इन पार्टियों ने माओवादियों के सामने दो कठिन चुनौतियां पेश दीं। एक तो जन सेना के नेपाली सेना में एकीकरण के मामले में और दूसरा जनयुद्ध के दौर में किये गये भूमि वितरण के मामले में। इन दोनों मामले में माओवादी क्रमशः पीछे हटते गये। अंततः जन सेना के कुछ थोड़े से लोग ही नेपाली सेना में शामिल हुए, वह भी पूजीवादी तत्वों की शर्तो पर। इस तरह नेपाली सेना के रूपांतरण का अवसर समाप्त हो गया। इसी के साथ ज्यादातर भूमि माओवादियों को उनके पुराने मालिकों को वापस करनी पड़ी।
माओवादी यह सोच रह थे कि इन समझौतों के जरिये वे संविधान निर्माण की प्रक्रिया पूरी कर लेंगे और फिर आगे बढ़ेंगे पर असल में आगे बढ़ने का उनका आधार समाप्त हो रहा था। पूरा समाज पूंजीवादी जनतंत्र में स्थिर हो रहा था। जनयुद्ध की स्मृतियां दूर होती जा रही थीं। इसी के साथ पूंजीवादी जनतंत्र का भृष्टकारी असर माओवादी पार्टी पर गहरा प्रभाव छोड़ रहा था। उसके नेता-कार्यकर्ता जनयुद्ध के दौर के लड़ाकू सादगीपूर्ण जीवन को छोड़कर सुविधाभोगी जीवन के आदी हो रहे थे। कुछ तो सीधे-सीधे भ्रष्ट हो रहे थे।
अंत में जब संघीय ढांचे के सवाल पर संविधान सभा अटक गयी और उसी अवस्था में भंग हो गयी तो कुछ समय के लिए नेपाल गहमा-गहमी से भर गया। नेपाली कांग्रेस व एमाले में जनजातीय सवाल पर फूटें पड़ीं। नये ध्रुवीकरण के चिन्ह दिखे।
लेकिन सबसे ज्यादा असर माओवादी पार्टी पर पड़ा। पार्टी का एक हिस्सा पार्टी की गति और स्थिति से लगातार असहज महसूस कर रहा था। उसे लगातार लग रहा था कि पार्टी जरूरत से ज्यादा समझौतते कर रही है। उसके भीतर से आवाजें भी आती थीं कि जनयुद्ध की ओर वापस चले जाना चाहिए। लेकिन उसके पास भी आगे बढ़ने की कोई सुसंगत दिशा नहीं थी। ऐसे में केवल नेताओं के स्तर पर जोड़-तोड़ ही चलती थी। अंत में जब संविधान सभा भंग हो गयी तो यह असंतुष्ट हिस्सा माओवादी पार्टी से अलग हो गया और उसने नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी का गठन किया। अलग होकर उसने ‘जनयुद्ध के आधार पर जन विद्रोह’ की अस्पष्ट लाइन स्वीकार की जिसकी व्याख्या अलग-अलग नेता अलग-अलग तरह से करते रहे।
इस पार्टी ने नेपाल की फिलहाल की स्थिति के लिए प्रस्तावित किया कि संविधान निर्माण के लिए सभी पार्टियों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाय। इसे नकार कर जब बाकी पार्टियां नयी संविधान सभा के चुनाव की ओर बढ़ीं तो इसने चुनाव का बहिष्कार कर दिया। अंत में अपने बहिष्कार का असर न होता देख इसने चुपके-चुपके दोनों प्रमुख पार्टियों का समर्थन कर दिया क्योंकि उसका मुख्य निशाना माओवादी पार्टी का दूसरा हिस्सा था।
इस सबका यह परिणाम निकला कि पहले संविधान सभा में पराजित नेपाली कांग्रेस और एमाले इस बार विजयी होकर सामने आयीं। इसमें पूंजीवादी जनतंत्र के खेल में उनकी महारत ने उनकी मदद की। उन्होंने पहाड़ी ब्राहमणों और क्षत्रियों को जनजातीय संघीय ढांचे से डराया और साथ ही जनजातीय इलाकों में जनजातीय उम्मीदवार खड़े किये। रही-सही कसर एकीकृत माओवादियों के पिछले व्यवहार से हुए मोहभंग ने पूरी कर दी।
अब दोनों माओवादी धड़े नेपाल की राजनीति में अपेक्षाकृत दूसरे स्तर की भूमिका में चले गये हैं। 2008 की उनकी प्रमुख स्थिति समाप्त हो गयी है। जन सेना का ट्रंप कार्ड भी अब उनके हाथ में नहीं है। उनका आपसी बिलगाव उनकी कोई मदद नहीं करता। जहां एकीकृत माओवादी वैचारिक और व्यवहारिक तौर पर और पीछे गये हैं वहीं दूसरा धड़ा भी दिशा-भ्रम की स्थिति में है। उसके पास किसी स्पष्ट दिशा का अभाव है जो उनके बीच विघटन की प्रवृत्ति हवा दे रही है।
ऐसे में नेपाल की पूंजीवादी शक्तियां आश्वस्त हैं कि उन्होंने अपना अभीष्ट हासिल कर लिया है यानी नेपाल पूंजीवादी जतनंत्र तक सीमित हो गया है। यही नहीं, नयी संविधान सभा में दक्षिणपंथी तत्वों की प्रधानता को देखते हुए यह संभावना है कि वे अंतरिम संविधान से भी पीछे जाकर कोई संविधान बनाना चाहेंगे। हां, उनके लिए यह संभव नहीं होगा कि वे राजशाही वाले संविधान की ओर बढ़ें। इसका प्रयास ही माओवादियों को नया हथियार दे देगा।
वे संविधान निर्माण में प्रतिक्रियावादी रास्ते पर न लौटे इसके लिए जरूरी होगा कि इनके खिलाफ संविधान सभा और खासकर सड़क पर तीखा जन संघर्ष खड़ा किया जाये। इसके लिए दोनों माओवादी पार्टियों और संघीय ढांचे की पक्षधर पार्टियों की एकता जरूरी होगी।
वर्तमान संविधान सभा के संघटन और उसमें अभिव्यक्त नेपाल के अंदरूनी वर्गीय शक्ति संतुलन को देखते हुए अब यह स्पष्ट है कि फिलहाल नेपाल एक पूंजीवादी जनतंत्र तक सिमट चुका है। 1996 में शुरु हुयी क्रांतिकारी बदलाव की प्रक्रिया अब इस मुकाम तक पहुंच कर ठहर गयी है। इस प्रक्रिया ने राजशाही को समाप्त कर नेपाल में पूंजीवादी जनतंत्र कायम करने की उपलब्धि हासिल की।
अब नेपाल को पूंजीवादी जनतंत्र से समाजवाद की ओर ले जाने के लिए एक नयी क्रांति की, समाजवादी क्रांति की जरूरत होगी। यह समाजवादी क्रांति नये सिरे से शुरू होगी। यह पुरानी क्रांति की जारी रूप नहीं होगी। वह तो समाप्त हो चुकी है। वह नवजनवादी राज्य कायम कर समाजवाद की ओर प्रस्थान करने के बदले केवल पूंजीवादी जनतंत्र कायम कर सकी, हालांकि नेपाल के लिए यह आगे का भीम डग था।
अब नेपाल में जो समाजवादी क्रांति की नयी प्रक्रिया भविष्य में शुरु होगी उसके लिए जरूरी होगा कि वैचारिक और व्यवहारिक पतन की शिकार दोनों माओवादी पार्टियां उससे मुक्त हों और एक हों। एकीकृत माओवादी पार्टी के मामले में यह पतन ज्यादा है लेकिन दूसरी पार्टी में भी यह कम नहीं है। उसकी वैचारिक दिशाहीनता उसे केवल ‘‘वामपंथी’’ लफ्फाजी तक ढकेल देती है। यह वर्तमान संविधान सभा चुनावों में उसके व्यवहार से स्पष्ट दिखा।
लेकिन दोनों ही पार्टियों के लिए यह काफी कठिन कार्य है। इसके लिए उन्हें कठिन आत्म-संघर्ष से गुजरना पड़ेगा। यदि वे ऐसा नहीं कर पातीं तो टूट-फूट का शिकार होते हुए वे एमाले जैसी पार्टी में तबदील हो जायेंगी। तब नेपाल में एक कम्युनिस्ट क्रांतिकारी पार्टी के निर्माण का काम भी नये सिरे से करना पड़ेगा।
नेपाल की मजदूर-मेहनतकश जनता ने पिछले बीस सालों में एक से बढ़कर एक संघर्षों और कुर्बानियों का जज्बा प्रदर्शित किया है। आने वाले सालों में यह जारी रहेगा और यह भविष्य की समाजवादी क्रांतियों की नयी श्रृंखला के साथ गुंथ जायेगा। यह कब और कैसे होगा यह अभी नहीं कहा जा सकता लेकिन इतना तय है कि तब नेपाली क्रांति विस्तारवादियों और साम्राज्यवादियों की बाधाओं को तोड़ते हुए नेपाल में समाजवाद स्थापित करने की ओर बढ़ जायेगी।
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