भूतपूर्व थल सेना अध्यक्ष जनरल वी. के. सिंह के मामले में उठे ताजा विवाद से यह स्पष्ट है कि किस तरह भारतीय सेना नागरिक मामलों में क्रमशः दखल बढ़ाती जा रही है और किस तरह जनरल वी. के. सिंह जैसे महत्वाकांक्षी लोग भारतीय पूंजीवादी जनतंत्र की कोख से पैदा हो रहे हैं।
जनरल वी. के. सिंह ने पहले सेवा को एक साल बढ़वाने का प्रयास किया था। इसमें असफल रहने के बाद उन्होंने सेवानिवृत्त होकर अन्ना हजारे का हाथ थामा और अब नरेन्द्र मोदी के बगलगीर हो रहे हैं। यह एक साथ इन तीनों के चरित्र को उजागर करता है।
ताजा खुलासे में जाहिर हो रहा है कि जनरल वी. के. सिंह ने सेना की खुफिया सेवा के जरिये जम्मू-कश्मीर के नागरिक मामलों में काफी घुसपैठ की थी। उन्होंने जम्मू-कश्मीर की सरकार के एक मंत्री और एक गैर सरकारी संगठन को पैसा देने की बात स्वीकार भी कर ली है। यह एक खुफिया सेवा के गठन के जरिये किया गया। कहा तो यहां तक जा रहा है कि वर्तमान थल सेना अध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह की पदोन्नति को रोकने के लिए उनके खिलाफ जिस गैर सरकारी संगठन ने न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी उसे भी पैसा इसी खुफिया सेवा ने दिया था।
यह सब बेहद कीचड़ से सना हुआ है। लेकिन जिस तरह से पिछले बीस-बाईस सालों से जम्मू-कश्मीर सेना के हवाले है, उसमें इससे भिन्न क्या उम्मीद की जा सकती है? क्या तब सेना को नागरिक मामलों से दूर रखा जा सकता है? तब क्या जनरल वी. के. सिंह जैसे महत्वाकांक्षी लोग पैदा नहीं होंगे? अभी एक-दो साल के भीतर ही सेना के एक शीर्ष अधिकारी ने मध्य भारत में सेना लगाने की सिफारिश की थी। क्या यह प्रवृत्ति और बढ़ेगी नहीं?
भाजपा को इस प्रवृत्ति को बढ़ावा देने में कोई दिक्कत नहीं है। उसकी पूरी विचारधारा में ही पुरुषवादी युद्धोन्माद रचा-बसा है। वह यह उम्मीद करती है कि सेना के साथ उसका गठजोड़ अच्छा चलेगा। वह तो पूरे समाज का ही सैन्यीकरण करना चाहती है। भूलना न होगा कि हिटलर स्वयं एक भूतपूर्व सैनिक था और सत्ता में आकर उसने पूरे जर्मन समाज का सैन्यीकरण कर दिया। और फिर शुरु हो गया द्वितीय विश्व युद्ध का महाविनाश ! यह अचानक या अनायास नहीं है कि भाजपा पूरी तरह से जनरल वी. के. सिंह की रक्षा में उतरी हुई है और चीख-चीख कर कह रही है कि इस तरह के आरोपों से सेना का मनोबल कमजोर होगा।
कहना न होगा कि हर ओर से फासीवाद की आहटें आ रही हैं। यह बेहद चैकन्ना होने का समय है।
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