Saturday, September 28, 2013

पूंजीवादी राजनीति की सडा़न्ध और कूपमंडूकीय नुस्खे

देश की सारी पूंजीवादी पार्टियां, सर्वोच्च न्यायालय या यहां तक कि राष्ट्रपति भी इस समय एक खेल खेलने में व्यस्त हैं। वे भांति-भांति के तरीके से इस देश की बेजार हो चुकी जनता को यह बताना चाहते हैं कि देश की सड़ी-गली जनतांत्रिक व्यवस्था को सुधारा जा सकता है।
देश में एक लम्बे समय से राजनीति के अपराधीकरण और अपराधियों के राजनीतिकरण की चर्चा होती रही है। यह अब एक सामान्य सच्चाई में तबदील हो चुकी है। स्वभावतः इस घृणित परिघटना से जनता क्षुब्ध होगी।
समूची व्यवस्था को जनता के कोप से बचाने के लिए पिछले समय में दो चीजें की गयीं हैं। एक तो यह कि देश की सारी समस्याओं के लिए इस अपराधीकरण को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। प्रत्यक्षतः और परोक्षताः यह बताया जा रहा है कि यदि साफ-सुथरे लोग सांसद/विधायक हों तो देश की सारी समस्याएं हल हो जायेंगी। अन्ना-अरविन्द जैसे मजमेबाजों ने तो इसे रामबाण औषधि ही घोषित कर दिया है। 
दूसरी चीज यह कि सर्वोच्च न्यायालय से लेकर अन्य संस्थाओं ने इस अपराधीकरण से मुक्ति का एक नुस्खा पेश किया है।
लेकिन जैसा कि सारे नीम-हकीमी नुस्खों में होता है इससे रोग का इलाज होने के बदले रोगी और ज्यादा गंभीर हालत में पहुंचता है।
जब सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय के जरिये देश की संसद और विधान सभाओं को अपराधियों से मुक्त करने का अभियान चलाया तो स्वभावतः ही पूंजीवादी राजनीतिक पार्टियों की इस पर प्रतिक्रिया होती। यह होना और भी लाजिमी था क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय का नुस्खा घटिया नीम-हकीमों को भी मात करता था। जिस देश में किसी के खिलाफ कोई भी मुकदमा दर्ज कराया जा सकता हो, जिसमें निचली अदालतें खरीदी जा सकती हों, जिसमें दसियों साल तक मुकदमें लटके रहते हों, उसमें सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का मतलब राजनीति का और ज्यादा अपराधीकरण है। 
लेकिन देश की पतित पूंजीवादी पार्टियां तो हमेशा ही एक कदम आगे रहती हैं-बेहयाई में भी। अभी सर्वोच्च न्यायालय का नीम-हकीमी फैसला आया ही था कि उन्होंने मिल-बैठकर आपस में सहमति बना ली कि इस फैसले से पार पाने के लिए एक कानून बना लिया जाये। कांग्रेसी,संघी, ‘वामपंथी’ सभी इस पर राजी थे। 
लेकिन कांग्रेसियों को इससे भी चैन नहीं पड़ा। उन्होंने बिल पास होने कि लिए संसद के अगले सत्र का इंतजार नहीं किया। अपने कुछ नेताओं को बचाने के लिए उन्होंने एक अध्यादेश जारी करने का फैसला कर लिया। 
अब संघियों ने पैतरा बदला और वे कुछ यह जताते हुए मैदान में आ गये  कि वे सर्वोच्च न्यायालय के साथ हैं। झूठ-फरेब में उनका कोई सानी नहीं है। 
कूपमंडूकता के वर्तमान दौर में कांग्रेसी अपनी ही करनी से डर गये। आनन-फानन में राहुल बाबा ने अपनी ही पार्टी की ऐसी-तैसी कर डाली।
इस सब का अंतिम परिणाम क्या निकलेगा ? क्या भारत की पूंजीवादी राजनीति में इससे जरा भी स्वच्छता आयेगी ? लाइलाज कूपमंडूक ही ऐसा सोच सकता है। इससे भी बड़ी बात यह कि पूंजीवादी राजनीति में कोई भी सुधार इसे मजदूर वर्ग और मेहनतकश जनता का पक्षधर नहीं बना सकता। उसके लिए तो यह पूंजीपति वर्ग की तानाशाही ही रहेगा।  

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