इस हफ्ते शेयर बाजार और रुपये के लुढ़कने से देश की अर्थव्यवस्था की गंभीर हालत आम चर्चा का विषय बन गई। सरकार ने पहले तो यह जताने का प्रयास किया कि यह सब बाहरी कारणों से हो रहा है। फिर यह दावा किया कि हालात इतने बुरे नहीं हैं और जल्दी ही बेहतरी आयेगी।
पर नीचे की दो तालिकायें दिखाती हैं कि हालात वास्तव में बहुत बुरे हैं और वह भी एकदम अंदरूनी तौर पर। इसमें दुनियाभर में चल रहे आर्थिक संकट की निश्चित भूमिका है लेकिन अंदरूनी कारक ही प्रमुख हैं।
ऐसी अवस्था में बाहर के और गंभीर प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था को डुबोने वाले हो सकते हैं। देश पर कर्ज और उसमें छोटी अवधि के ऋणों की अपेक्षाकृत महत्वपूर्ण स्थिति तथा बढ़ता व्यापार और चालू खाता घाटा बहुत तेजी से रुपये को नीचे गिरा सकते हैं। तब सरकार के सारे दावों के बावजूद हालात 1991 जैसे हो जायेंगे।
इस सबमें बेहद घृणित बात यह है कि सरकार और पूंजीपति वर्ग इस हालत से उबरने के लिए ठीक उन्हीं नीतियों को और आगे बढ़ाने की बात कर रहा है जो वर्तमान हालत के लिए जिम्मेदार हैं। उसे इसी में अपना मुनाफा सुरक्षित लगता है भले ही वह देश की मजदूर-मेहनतकश आबादी को और ज्यादा कंगाली में ढकेल दे।
मजदूर वर्ग को आगे बढ़कर पूंजीपति वर्ग के इन कदमों का विरोध करना होगा।
No comments:
Post a Comment