मिश्र में 30 जून को करीब दो करोड़ लोगों के विरोध प्रदर्शन करने के बाद घटनाक्रम तेजी से बदला है। सेना ने तख्तापलट करते हुए मुस्लिम ब्रदरहुड के राट्रपति मोरसी को सत्ता से हटा दिया तथा संवैधानिक न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अदली मंसूर को अंतरिम राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया। संविधान को निलंबित कर दिया तथा अल बरदाई को अंतरिम प्रधानमंत्री घोषित कर दिया। सेना द्वारा कहा गया साल-डेढ़ साल के भीतर नये चुनाव कराये जायेंगे। तब तक अंतरिम राष्ट्रपति और एक अंतरिम टेक्नोक्रेटिक सरकार देश चलायेंगे। 3 जुलाई की रात को जब सेना प्रमुख तथा रक्षामंत्री अब्दुल सीसी द्वारा यह तख्तापलट घोषित किया गया तब अल बरदाई सहित मुसलमान और इसाई धर्मगुरु भी उनके साथ थे।
इस अप्रैल से चले घटनाक्रम का यह चरम बिन्दु था। अप्रैल में राष्ट्रपति मोरसी के इस्तीफे और नये चुनाव की मांग को लेकर कुछ युवक संगठनों ने एक अभियान शुरु किया। इस अभियान को तमराद या ‘विप्लव’ नाम दिया गया। इसमें लोगों से एक ज्ञापन पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया जिसमें हस्ताक्षर करने वाले को अपनी राष्ट्रीय पहचान संख्या भी लिखनी होती थी। विचार यह था कि मोरसी को चुनावों में मिले 1.4 करोड़ मतों से ज्यादा हस्ताक्षर हासिल किये जायें।
जब हस्ताक्षर अभियान कुछ आगे बढ़ा तो इसमें अन्य मोरसी व मुस्लिम ब्रदरहुड विरोधी तत्व भी शामिल हो गये। पुराने मुबारक शासन के समर्थक, सेना के समर्थक और अल बरदाई को राष्ट्र बचाओ मोर्चा इत्यादि सब इसे समर्थन देने लगे। देखते ही देखते इस अभियान को भांति-भांति का सहयोग मिलने लगा। इस सबका परिणाम यह निकला कि जून अंत तक करीब 2.2 करोड़ लोगों ने ज्ञापन पर हस्ताक्षर कर दिये। यह आयोजकों की उम्मीदों से ज्यादा था।
इससे उत्साहित होकर तमराद के आयोजकों ने 30 जून को विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया। जैसे-जैसे 30 जून नजदीक आता गया वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता गया कि यह मिश्र के इतिहास का सबसे बड़ा विरोध प्रदर्शन होगा।
शुरु-शुरु में मुस्लिम ब्रदरहुड ने इस विरोध प्रदर्शन को बहुत गंभीरता से नहीं लिया। उसने सोचा कि यह समय-समय पर आयोजित होने वाले विरोध प्रदर्शनों में से ही एक होगा। लेकिन जब 30 जून को महज कुछ दिन रह गये तब मोरसी सरकार और मुस्लिम ब्रदरहुड को मामले की गंभीरता एहसास हुआ। और तब उन्होंने प्रत्याक्रमण करने का निर्णय किया। 2 दिन पहले 28 जून को जुमे की नमाज के बाद मुस्लिम ब्रदरहुड के समर्थक जगह-जगह प्रदर्शन के लिए सड़क पर उतर आये। उनका इरादा जमे रहकर 30 जून के विरोध प्रदर्शन का मुकाबला करने का था।
लेकिन जब 30 को तमराद प्रदर्शन शुरु हुआ तो यह स्पष्ट हो गया कि मुस्लिम ब्रदरहुड उसका मुकाबला नहीं कर सकता। देश में जगह-जगह झड़पें हुयीं जिसमें दर्जनों लोग मारे गये। तमराद मोरसी सरकार और मुस्लिम ब्रदरहुड पर भारी पडा़ था।
इन्हीं स्थितियों में सेना आगे आयी। उसने 1 जुलाई को घोषित किया कि यदि 48 घंटे के भीतर मोरसी सरकार विपक्ष से सुलह-समझौता कर कोई रास्ता नहीं निकालती है तो सेना हस्तक्षेप करेगी। पर मोरसी सरकार और मुस्लिम ब्रदरहुड का रुख अडि़यल बना रहा। वे चुनावों से मिली वैधानिकता पर जोर देते रहे। 48 घंटे गुजर जाने के बाद सेना ने अंततः 3 जुलाई की रात को मोरसी का तख्तापलट कर दिया।
इस तात्कालिक घटनाक्रम को मिश्र के पिछले ढाई सालों के राजनीतिक परिदृश्य में रखकर समझने से चीजें ज्यादा स्पष्ट होंगी।
जब 25 जनवरी 2011 को होस्नी मुबारक शासन के खिलाफ युवकों द्वारा आयोजित तहरीर चौक का जमावड़े वाला विरोध प्रदर्शन शुरु हुआ तो यह एक साथ कई चीजों के खिलाफ लक्षित था या यूं कहें कि कई कारणों से लोग इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होते चले गये। सैनिक तानाशाही, मुबारक शासन का भ्रष्टाचार, अमेरिकी साम्राज्यवादियों की इस शासन पर पकड़, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां और इससे गंभीर हो उठी बेरोजगारी, गरीबी, मंहगाई की समस्याएं इत्यादि सब इन कारणों में थे। अंततः जब मिश्र के पूंजीपति वर्ग और साम्राज्यवादियों को यह लगा कि मुबारक शासन की बलि दिये बिना तथा सेना थोड़ा पीछे किये बिना काम नहीं चलेगा तो मुबारक को सत्ता से हटा दिया गया और एक सैनिक परिषद ने शासन संभाल लिया।
जब 25 जनवरी 2011 को होस्नी मुबारक शासन के खिलाफ युवकों द्वारा आयोजित तहरीर चौक का जमावड़े वाला विरोध प्रदर्शन शुरु हुआ तो यह एक साथ कई चीजों के खिलाफ लक्षित था या यूं कहें कि कई कारणों से लोग इस विरोध प्रदर्शन में शामिल होते चले गये। सैनिक तानाशाही, मुबारक शासन का भ्रष्टाचार, अमेरिकी साम्राज्यवादियों की इस शासन पर पकड़, उदारीकरण-निजीकरण की नीतियां और इससे गंभीर हो उठी बेरोजगारी, गरीबी, मंहगाई की समस्याएं इत्यादि सब इन कारणों में थे। अंततः जब मिश्र के पूंजीपति वर्ग और साम्राज्यवादियों को यह लगा कि मुबारक शासन की बलि दिये बिना तथा सेना थोड़ा पीछे किये बिना काम नहीं चलेगा तो मुबारक को सत्ता से हटा दिया गया और एक सैनिक परिषद ने शासन संभाल लिया।
मिश्र के पूंजीवादी प्रचारतंत्र से लेकर साम्राज्यवादियों तक ने इसे क्रांति का नाम दिया लेकिन थोड़े से अनुभवहीन युवकों को छोड़कर यह सबके लिए स्पष्ट था कि वास्तव में कुछ नहीं बदला है। कुछ महीनों में यह अनुभवहीन युवकों के लिए भी स्पष्ट हो गया। तब इस सैनिक परिषद के शासन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन होने लगे जिसमें मजदूरों की अहम भागेदारी थी। यह याद रखना होगा कि फरवरी 2011 में मजदूर वर्ग के विरोध प्रदर्शनों में बड़े पैमाने पर उतरने के कारण ही मुबारक का सत्ता में बने रहना संभव नहीं रह गया था।
सैनिक परिषद शासन ने शुरु में ही यह घोषित किया था वह जल्द से जल्द एक नये संविधान का निर्माण कराकर तथा उसके तहत चुनाव करवाकर सत्ता नागरिक हाथों में सौंप देगी। लेकिन इस दिशा में तेजी से आगे बढ़ने के बदले उसने इसमें अड़चनें ही पैदा कीं। केवल लगातार विरोध प्रदर्शनों के द्वारा ही उसे आगे ठेला जा सका। मिश्र के पूंजीपति वर्ग, साम्राज्यवादियों, सेना तथा सलाकी और मुस्लिम ब्रदरहुड जैसे इस्लामी कट्टरपंथियों की पूरी कोशिश थी कि यह सारी प्रक्रिया कुछ इस तरह सम्पन्न हो कि पुराना शासन तंत्र कम से कम प्रभावित हो, आर्थिक क्षेत्र में परिवर्तन की तो बात ही क्या ! लेकिन इसके साथ यह भी था कि इनके बीच प्रतिद्वंदिता भी थी। सेना अपनी पुरानी स्थिति ज्यादा खोना नहीं चाहती थी जबकि उसके किसी हद तक पीछे हटे बिना मुस्लिम कट्टरपंथियों का राजनीतिक क्षेत्र में दखल नहीं हो सकता था। इस वजह से इनके बीच सीमित स्तर पर टकराव होता रहा जो 30 जून की घटना तक जारी था।
अंततः 2012 में संसद और राष्ट्रपति पद के चुनाव हुए तो इसमें मुस्लिम कट्टरपंथी जीत गये। 2011 के विद्रोहियों के लिए यह स्तब्धकारी था। मिश्र को चुनाव की इस स्थिति तक पहुंचाने का काम उन्होंने ही किया था। उन्होंने ही इसके लिए सारा काम किया था और आवश्यक बलिदान किये थे। अब इस सबका परिणाम किसी और के हाथों में जा रहा था, उनके हाथों में जो विद्रोह में एक तरह से किनारे खड़े थे।
मुस्लिम कंट्टरपंथियों और खासकर मुस्लिम ब्रदरहुड की यह जीत कोई बहुत आश्चर्यजनक नहीं थी। मुस्लिम ब्रदरहुड मिश्र में पिछले सत्तर-अस्सी सालों से कार्यरत था। इसने समाज के कई हिस्सों में अपनी पैठ बना रखी थीं। दान-दक्षिणा करने से लेकर शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में यह भारत के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तरह ही हर जगह फैला हुआ था। यह देश की सबसे बड़ी संगठित ताकत था। मुबारक काल में किसी हद तक दमन के बावजूद यह राजनीतिक तौर पर सक्रिय भी था।
मुबारक के बाद मिश्र के पूंजीपति वर्ग, साम्राज्यवादियों और कतर के अमीर जैसे आस-पास के शासकों ने इसी पर दांव लगाये। चुनावों में इसे बहुत बड़े पैमाने पर पैसे व प्रचार से मदद की गयी। इसके मुकाबले खड़े धर्म निरपेक्ष और वामपंथी दल बहुत कमजोर थे। उनमें से तो कई अभी मुबारक के पतन के बाद ही गठित हुए थे। युवक विद्रोह और विरोध के लिए तो सड़कों पर उतर सकते थे पर वे एक पार्टी में संगठित नहीं हो सकते थे। उन्हें संगठित पार्टियों का कोई अनुभव भी नहीं था। मजदूर वर्ग बड़े पैमाने पर सक्रिय होकर अपनी ट्रेड यूनियने तो गठित कर रहा था पर उसकी अपनी कोई क्रांतिकारी पार्टी नहीं थी। मजदूरों में जो भी राजनीतिक संगठन सक्रिय थे वे बहुत छोटे थे और अपनी सोच में सुधारवादी।
चुनावों में मुस्लिम कट्टरपंथियों, खासकर मुस्लिम ब्रदरहुड (जिसने तुर्की की न्याय और विकास पार्टी की तर्ज पर न्याय और स्वतंत्रता पार्टी बनाई थी) की जीत के बाद एक त्रिकोणीय संघर्ष शुरु हो गया। एक ओर सत्ता के गलियारों में सेना और मुस्लिम ब्रदरहुड की सरकार के बीच संघर्ष था। सेना अपनी पुरानी स्थिति बचाने के लिए संघर्ष कर रही थी जबकि मोरसी सरकार इसमें कतर-ब्योंत कर अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए। मुस्लिम ब्रदरहुड को अस्सी सालों बाद पहली बार सत्ता में आने का मौका मिला था। वह सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत कर लेना चाहती थी जिससे अपना इस्लामी शासन स्थापित कर सके।
इन दोनों के खिलाफ सत्ता के बाहर और उसके खिलाफ लगातार संघर्ष करने वाली तीसरी शक्ति थी। यह भांति-भांति के तत्वों से मिलकर बनी हुयी थी। इसमें पुराने मुबारक शासन के तत्व थे। इसमें गैर सरकारी संगठनों के तहत संगठित वे युवक थे जिन्होंने जनवरी विद्रोह का आहवान किया था। इसमें इनसे अलग विद्रोही युवक थे जिनमें से कुछ ने बाद में तमराद आयोजन किया। इसमें अल बरदाई जैसे लोगों के नेतृत्व वाले धर्म निरपेक्ष दल थे जो उदारीकरण और साम्राज्यवादपरस्ती की नीति पर चलना चाहते थे। इसमें विभिन्न तरह के सुधारवादी वामपंथी दल थे। इसी के साथ इसमें कुछ वास्तविक क्रांतिकारी तत्व भी थे। यह तीसरा पक्ष अंततः 30 जून के तमराद तक पहुंचा।
जहां दोनो सत्ताधारी शक्तियों - सेना और मुस्लिम ब्रदरहुड - का लक्ष्य स्पष्ट था वहीं तीसरी शक्ति के ज्यादातर हिस्सों के लिए स्थिति बेहद अस्पष्ट थी। इनमें से मुबारक के पुराने दल या अल बरदाई जैसों के लिए ही चीजें ज्यादा स्पष्ट थीं। जहां मुबारक दल के लोग पुराने दिनों की वापसी चाहते थे वहीं अल बरदाई जैसे लोग पश्चिमी देशों की तरह का उदारीकृत पूंजीवाद और धर्मनिरपेक्ष पूंजीवादी जततंत्र। जहां तक विद्रोही युवकों और मजदूर वर्ग का संबंध था, उनके लिए स्थिति सबसे ज्यादा अस्पष्ट थी। यह उनके प्रमुख नारे से ही ध्वनित होता था - ‘रोटी, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय’।
ज्यादा गहराई से वर्गीय धरातल पर बात करें तो जनवरी 2011 में मुबारक के सैनिक शासन के खिलाफ विद्रोह सैनिक तानाशाही या एक व्यक्ति की तानाशाही से भी ज्यादा उदारीकृत पूंजीवाद के खिलाफ अचेत विद्रोह था। इसका वास्तविक निशाना उदारीकृत पूंजीवाद था जिसे यह भ्रष्ट सैनिक तानाशाही शासन चला रहा था। यह संघनित रूप में उपरोक्त नारे में अभिव्यक्त हो रहा था। जहां स्वतंत्रता से आशय सैनिक तानाशाही का खात्मा तथा जनवाद की स्थापना था वहीं रोटी और सामाजिक न्याय का मतलब गरीबी, मंहगाई और बेरोजगारी से मुक्ति थी, अमीर- गरीब के बीच बढ़ती खाई का खात्मा थी। विद्रोही नौजवानों, जिनमें से बहुत सारे बेरेाजगार थे, तथा मजदूरों के लिए विद्रोह का यही मतलब था। अल बरदाई जैसे लोगों से ठीक अलग उन्हें पश्चिमी देशों के उदारीकृत पूंजीवादी जनतंत्र की कोई आकांक्षा नहीं थी जिनके खिलाफ उन देशों में ही 2011 में बड़े पैमाने के विरोध प्रदर्शन उठ खड़े हुए थे। लेकिन इस नारे को व्यवहार में उतारने के लिए वे कैसे आगे बढ़ें यह उनके लिए एकदम अस्पष्ट था।
मिश्र का सैनिक शासन उस बड़े पूंजीपति वर्ग का शासन था जो नासिर से लेकर मुबारक तक के काल में फला-फूला था। नासिर के पश्चिमी साम्राज्यवाद विरोध से लेकर सादात और मुबारक के इस साम्राज्यवाद की चाटुकारिता तक इसने लंबी यात्रा तय की थी। अब मुबारक के जमाने में इसने राज्य नियंत्रित पूंजीवाद के बदले उदारीकृत पूंजीवाद को अपना लिया था जो रीगन-थैचर का माडल था तथा जिसने ज्यादातर मिश्र की मजदूर-मेहनतकश जनता की जिंदगी और मुश्किल में डाल दी। तीसरी दुनिया के ज्यादातर देशों की तरह मिश्र में भी सेना ने इस पूंजीपति वर्ग की व्यवस्था को स्थिरता और सुरक्षा प्रदान की थी। बदले में मिश्र की सेना को न केवल राजनीतिक विशेषाधिकार हासिल हुआ था बल्कि उसका अपना एक आर्थिक तंत्र भी खड़ा हो गया था जिसका देश की कुल अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान था।
बड़े पूंजीपति वर्ग के इस सैनिक शासन के विपरीत जो किसी हद तक आधुनिकता और धर्मनिरपेक्षता का पक्षधर था, मुस्लिम ब्रदरहुड ने अपना स्थान छोटे शहरों-कस्बों के छोटे मध्यम पूंजीपतियों तथा किसी हद तक देहातों के किसानों में बनाया। शहरों कस्बों का निम्न मध्यम वर्ग भी इसके प्रभाव में आया। शहरों-कस्बों के स्वरोजगार वाली घनी बस्तियां इसका आधार बन गईं। आबादी के ये हिस्से मुस्लिम ब्रदरहुड की मुस्लिम कट्टरपंथी विचारधारा के अनुकूल थे। उदारीकृत पूंजीवाद के दौर में आबादी के इन निचले हिस्सों की बरबादी ने मुस्लिम ब्रदरहुड का प्रभाव बढ़ाने में बहुत मदद की, खासकर उसकी दान-दक्षिणा की कार्यवाईयों ने।
सैनिक शासन और मुस्लिम ब्रदरहुड का टकराव इस तरह वास्तव में वर्गो का टकराव था। लेकिन पतित पूंजीवाद की इस बेला में मिश्र के बड़े पूंजीपति वर्ग के लिए यह स्पष्ट था कि सैनिक शासन भारी पड़ जाने पर और मुस्लिम कट्टरपंथ के उभार की अवस्था में वह मुस्लिम ब्रदरहुड और अन्य कट्टरपंथियों को अपना लेगा और उनके शासन को अपना बना लेगा। मुबारक के बाद के काल में मिश्र के बड़े पूंजीपति वर्ग ने यही करने का प्रयास किया।
मिश्र के मजदूर वर्ग की स्थिति इससे भिन्न रही है। नासिर ने अपने शासन काल में एक ओर तो मजदूर पार्टियों और किसी भी तरह के वामपंथियों का दमन किया और दूसरी और मजदूर वर्ग को अपने निजाम में समेटने की कोशिश की। पहले में वह पूरी तरह सफल रहा और इस कारण दूसरे में असफलता के बावजूद मजदूर वर्ग बाद के काल में अपनी कोई राजनीतिक सक्रियता नहीं दिखा सका। दूसरी ओर मुबारक काल के उदारीकरण के जमाने में मजदूर वर्ग की हालत बेहद खराब होती चली गयी। यह गौर तलब है कि मिश्र वह देश है जहां से भारी मात्रा में पड़ोसी खाड़ी के समृद्ध देशों में मजदूरी करने के लिए मजदूर जाते हैं।
पिछले दशक के मध्य से मिश्र के मजदूर वर्ग ने मुबारक शासन के भयानक दमन के बावजूद अपने ट्रेड यूनियन संघर्षों में उतरना शुरु किया। वस्तुतः जनवरी 2011 में विद्रोह का आहवान करने वाला अप्रैल 6 युवा आंदोलन 2008 की अप्रैल में तब अस्तित्व में आया था जब एक कपड़ा फैक्टरी के मजदूरों के समर्थन में कुछ युवकों ने विरोध प्रदर्शन का आहवान किया था और जिसमें सत्तर हजार लोग शामिल हुए थे। इन ट्रेड यूनियन संघर्षों से गुजरते हुए मजदूर वर्ग जनवरी-फरवरी 2011 के विद्रोह तक पंहुचा जहां मुबारक के पतन में उसकी भूमिका निर्णायक बन गई।
लेकिन न तो इस मजदूर वर्ग को पहले के राजनीतिक संघर्षों का अनुभव था और न ही यह अपनी क्रांतिकारी पार्टी के पीछे लामबंद था। वस्तुतः इसकी क्रांतिकारी पार्टी दृश्य पटल पर ही नहीं थी। इसके बदले कुछ क्रांतिकारी ग्रुप ही मौजूद थे। इसलिए मुबारक के पतन के बाद सत्ता अपने हाथ में लेना तो दूर वह इसकी कोई दावेदारी भी पेश नहीं कर सका। वह लगातार सड़कों पर उतरने के द्वारा युवकों की तरह महज एक दबाव समूह भी बना रहा जो घटनाक्रम को आगे तो धकेल रहा था पर निर्धारित नहीं कर था। अपनी सहज चेतना से उसे लग रहा था कि आगे जाना है पर किधर और कैसे यह स्पष्ट नहीं था। एक क्रांतिकारी पार्टी द्वारा नेतृत्व की नामौजूदगी इसमें सबसे बड़ी बाधा थी।
अब ढाई साल बाद सारा कुछ एकबारगी पीछे चला गया लगता है। यहां तक लगता है कि सेना फिर मुबारक के दिनों में लौट जायेगी। लेकिन यह प्रतीति मात्र है। वास्तव में ऐसा होने की गुंजाइश बहुत कम है। ढाई सालों में नील नदी में जितना पानी गुजर चुका है उसे देखते हुए मुबारक के पुराने दिनों की वापसी बहुत मुश्किल है।
यह सच है कि पिछले ढाई साल के अनुभव को देखते हुए साम्राज्यवादी और मिश्र का पूंजीपति वर्ग मुबारक के दिनों में वापस लौटना चाहेंगे। वे इसके लिए प्रयास भी करेंगे। लेकिन यह भी सच है कि वे इसमें सफल नहीं होंगे। यदि मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ उनका ताल-मेल सफल नहीं हो पाया तो अब उसके बिना हालात और भी बेकाबू होंगे।
ठीक वे ही चीजें मिश्र की राजनीति को आगे ढकेलेंगी जो उसे जनवरी 2011 से शुरु कर 30 जून 2013 तक ले आयीं थीं। इनकी चालक शक्तियां रही हैं मिश्र का युवा और मजदूर वर्ग तथा इनकी तह में रहा है उदारीकृत पूंजीवाद जिसमें साम्राज्यवादियों का बेतरह दखल है। जो दो करोड़ लोग 30 जून को मोरसी के मुस्लिम ब्रदरहुड शासन के खिलाफ उतरे वे मुबारक और मोरसी के बाद किसी और खुले या छद्म तानाशाह को स्वीकार नहीं करेंगे। जिन लोगों के बैनरों पर अंकित है ‘रोटी, स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय’ वे अल बरदाई के उदारीकृत पूंजीवादी जनतंत्र के झुनझुने से नहीं फुसलाये जा सकेंगे।
मिश्र के विद्रोह के ढाई साल दिखाते हैं कि आज के उदारीकृत पूंजीवाद के दौर में विद्रोह किस तरह पैदा होंगे और विकसित होंगे। ये एक बानगी पेश करते हैं। लेकिन साथ ही वे संगठन व स्पष्ट क्रांतिकारी दिशा की जरूरत को भी बेहद तीक्षणता से पेश करते हैं। इसी के साथ वे विरोध प्रदर्शनों की सीमा को और आम राजनीतिक हड़ताल की जरूरत को भी रेखांकित करते हैं। उम्मीद है कि मिश्र के विद्रोही युवा और मजदूर वर्ग जल्दी से जल्दी इन सबको ग्रहण करेंगे तथा मिश्र के विद्रोह को एक नयी ऊंचाई तक ले जायेंगे। वे इसे वास्तव में क्रांति की ओर, पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे की ओर ले जायेंगे। इस बीच उनके शानदार कारनामों के लिए उनका क्रांतिकारी अभिनंदन !
No comments:
Post a Comment