साम्राज्यवादियों और पूंजीपतियों के दुलारे मोन्टेक सिंह अहलूवालिया के योजना आयोग ने एक बार फिर अपना कारनामा कर दिखाया है। उसने देश में गरीबों की संख्या को सात सालों में 15.3 प्रतिशत घटाते हुए 2011-12 में महज 21.9 प्रतिशत तक पहुंचा दिया है। कम से कम योजना आयोग के कागजों में देश में भुखमरी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बहुत घट गई है।
पिछले साल जब योजना आयोग ने भुखमरी की रेखा गांवों में 26 रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तथा शहरों में 32 रुपये घोषित की थी तो इस पर बहुत हंगामा मचा था। इस बार भी योजना आयोग ने उसी तर्ज पर चलते हुए 2011-12 के लिए भुखमरी की रेखा गांवों में 27.2 रुपये तथा शहरों में 33.3 रुपये रखी। इस आधार पर भुखमरी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या 2004-05 में 37.2 प्रतिशत से घटकर 2011-12 में 21.9 प्रतिशत तक आ गई।
यह याद रखने की बात है कि भारत सरकार और उसका योजना आयोग इस तरह का कारनामा कई बार पहले भी कर चुका है। करीब 10 साल पहले भी इसने भुखमरी की रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या घटाकर 22 प्रतिशत तक कर दी थी। हर बार हंगामा मचने पर सरकार इस संख्या को फिर ऊपर करने पर मजबूर होती रही है। इस बार भी यही होगा।
लेकिन सरकार यह करती क्यों है? यह इतनी बेहयाई पर उतरती क्यों है? इसकी वजह यह है देश की अच्छी तस्वीर दिखाने के साथ-साथ सरकार को इससे राहत योजनाओं में कटौती करने का मौका मिलता है। अभी जबकि खाद्य सुरक्षा बिल जैसे राहत कार्यक्रम चलाने का सरकार दिखावा कर रही है तब इससे लाभान्वित होने वालों की संख्या कम से कम होनी चाहिये। ज्यादा से ज्यादा गरीबों को इससे वंचित रखा जाना चाहिए।
बाकी तो वास्तविकता यही है कि हर संकेत हमें दिखाता है कि उदारीकरण के सालों में देश में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ी है। खासकर यह इसलिए है कि इन सालों में पूंजीपतियों ने खूब मुनाफा कमाया है और उच्च मध्यम वर्ग को भी इससे फायदा हुआ है। इनके मुकाबले देश के गरीबों की हालत खस्ता हुई है। आबादी का एक बड़ा हिस्सा तो अपनी पहले की हालत से भी नीचे चला गया है।
एक बेहद पतित पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार ही इस तरह की बेहयाई पर उतर सकते हैं। लेकिन उनकी यह बेहयाई उन्हें उनकी कब्र की ओर और तेजी से ढकेलेगी।
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