Tuesday, June 25, 2013

तुर्की और ब्राजील : जनता सड़कों पर

      जून का महीना तुर्की और ब्राजील के लिए वही साबित हुआ जो स्पेन और ग्रीस के लिए जून 2011 था। वहां लाखों की संख्या में लोग, मुख्यतः युवा और मजदूर, सड़कों पर उतर आये। इनका भी निशाना उदारीकरण-वैश्वीकरण की राह पर चलने वाला पूजीपति वर्ग और उसकी सरकारें थीं।
तुर्की में विरोध प्रदर्शनों की शुरूआत एक बेहद मामूली बात से हुयी। आतोमान साम्राज्य की राजधानी रहे इस्तामबूल शहर के तक्सीम चौक  से सटे गेजी पार्क को सरकार ने एक सैनिक बैरक और शापिंग  माल के लिए साफ करवाना चाहा। इसके लिए इसमें मौजूद तीन सौ पेड़ों को काटा जाना था। जब 28 मई को यह कार्रवाही शुरु हुई तो करीब सौ पर्यावरणवादियों ने इसका विरोध किया। इन पर पुलिस ने बल प्रयोग किया। दो-तीन दिन तक पुलिस और कार्यकर्ताओं में झड़प चलती रही। लेकिन जब 31 मई को पुलिस ने अत्यधिक बल प्रयोग किया तो रात में ही हजारों लोग तक्सीम चौक  पर विरोध करने के लिए निकल पड़े।
उसके बाद तो तुर्की का हर शहर विरोध प्रदर्शनों से लबरेज हो गया। सरकार ने इसे दबाने के लिए भारी दमन का सहारा लिया। अब तक इसमें चार लोग मारे गये हैं और साढ़े सात हजार से ज्यादा लोग घायल हुए हैं। दर्जनों लोग अस्पताल में मौत से जूझ रहे हैं। सैकड़ों लोगों को जेल में ठूस दिया गया है और उन्हें बर्बर यातनाएं दी जा रही हैं। सरकार द्वारा बार-बार सेना का इस्तेमाल करने की धमकी दी जा रही है।
तुर्की में न्याय और विकास पार्टी की सरकार है जिसके प्रधानमंत्री इरडोगन हैं जो मुबारक जैसे तानाशाहों की तरह पेश आ रहे हैं। इस पार्टी ने अपने दस साल के शासन में उदारीकृत पूंजीवाद को पाला पोसा है तथा  धर्म निरपेक्ष तुर्की के बदले इस्लामी तुर्की की ओर देश को धकेला है। अमेरिकी साम्राज्यवादियों और जियनवादी इस्रायली शासकों से इसकी सांठ-गांठ है। हाल में सीरिया में असद सरकार के खिलाफ विद्रोह में कतरी-सऊदी मध्ययुगीन शासकों और पश्चिमी साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर अत्यन्त घृणित भूमिका निभायी है। इन सबसे इस सरकार के विरूद्ध  अक्रोश भीतर-भीतर ही पनप रहा था जो  एक पार्क के कुछ पेड़ों के काटे जाने की मामूली घटना से फूट पड़ा। सभी वर्तमान पूंजीवादी शासकों की तरह तुर्की के शासक भी इससे बर्बरता पूर्वक निपट रहे हैं।
तुर्की से काफी दूर ब्राजील में वर्कर्स पार्टी की सरकार है। यह पार्टी भी करीब दस साल से सत्ता में है। लूला डी सिल्वा के नेतृत्व में यह पार्टी उदारीकरण की नीतियों का विरोध करते हुए सत्ता में आई थी। कम से कम उसने दिखावा यही किया था।
पर सत्ता में आने के बाद उसने मूलतः उन्हीं नीतियों को जारी रखा। हां, जनता को भ्रम में डालने के लिए उसने कुछ खैराती कार्यक्रम लागू किये। वास्तव में चुनाव जीतने से पहले ही लूला ने देशी-विदेशी पूंजीपतियों को यह संदेश दिया था कि वे पुरानी नीतियों पर चलते रहेंगे। तभी वे चुनाव जीत भी पाये। चुनाव जीतने पर उन्होंने अपने इस संदेश का पूरा सम्मान किया। अब उनकी उत्तराधिकारी डिल्मा रसॊफ़  भी उसी रास्ते पर चल रही हैं।
इस सरकार ने जब कुछ दिनों पहले बसों के किराये में बीस सेन्ट की बढ़ोत्तरी की तो देखते-ही-देखते पूरे देश में इसके विरूद्ध एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। 20 जून को तो बीसों लाख लोग सड़कों पर थे। लोगों का भयंकर गुस्सा इस बात पर भी है कि सरकार फीफा कन्फेडेरेशन कप तथा विश्व कप के लिए स्टेडियम बनाने के लिए खुले खजाने पैसा लुटा रही है जबकि बसों के किराये में वृद्धि की जा रही है। स्टेडियम के निर्माण में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार हो रहा है। ध्यान रखने की बात है कि ब्राजील एक फुटबाल  प्रेमी देश है और उसकी टीम विश्व विजेता भी रही है।
विरोध प्रदर्शनों की इस भारी लहर के सामने डिल्मा सरकार झुकी है और उसने जनता की मांगों पर विचार करने का वादा किया है। लेकिन इसके बावजूद विरोध प्रदर्शनों का सिलसिला जारी है।
तुर्की और ब्राजील के ये विरोध प्रदर्शन उस बड़ी व्यापक लहर का हिस्सा हैं जो 2011 के शुरु में उठी थी। तब से एक के बाद एक बीसों देश इसकी चपेट में आ चुके हैं। यह सिलसिला जारी है और आगे भी जारी रहेगा क्योंकि इसकी पृष्ठभूमि में मौजूद विश्व आर्थिक संकट जारी है। उदारीकृत पूंजीवाद हर ओर से न केवल संकट का शिकार है बल्कि वह लगातार बढ़ते पैमाने पर मजदूर-मेहनतकश जनता द्वारा हमले का निशाना बनाया जा रहा है। जरूरत बस इस बात की है कि इस हमले को संगठित क्रांतिकारी दिशा दी जाय। इसमें मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी संगठनों व कार्यकर्ताओं की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो उठती है। उम्मीद है कि वे वक्त के साथ अपनी भूमिका में खरे उतरेंगे।

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