आज एक सप्ताह बाद भी उत्तराखण्ड में भारी बारिश के शिकार हजारों लोग अपने को बचाये जाने का इंतजार कर रहे हैं। सरकारी राहत और बचाव कार्य अभी भी उन तक नहीं पहुंच पाया है।
प्राकृतिक आपदा इंसान के बस में नहीं हैं लेकिन यह आपदा किसको और कितना प्रभावित करेगी यह समाज की संरचना पर निर्भर करता है। इसी तरह कौन इससे बचेगा और कौन मारा जायेगा यह भी उसी पर निर्भर करता है।
यदि इस आपदा का शिकार देश का पूंजीपति वर्ग होता तो अब तक सरकार जमीन आसमान एक कर चुकी होती। देश की समस्त ताकत उन्हें बचाने में झोंक दी गई होती।
सरकार दावा कर रही है कि उसने राहत और बचाव कार्य में सेना और अर्ध सुरक्षा बलों को लगा रखा है। पर क्या भारत सरकार के पास कुछ सैनिक और कुछ हैलीकाप्टर ही हैं? क्या हजारों की संख्या में सेना के जवान और हैलीकाप्टर नहीं लगाये जा सकते? इसी तरह क्या हर जगह फंसे लोगों के लिए खाने-पीने का सामान और दवायें नहीं पहुंचाई जा सकतीं?
यह सब हो सकता है पर यह सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। उसकी प्राथमिकतायें कुछ और हैं। तभी तो हर साल लाखों करोड़ों रुपये पूंजीपतियों पर लुटाने वाली सरकार के प्रधानमंत्री उत्तराखण्ड के आपदा प्रभावित लोगों को राहत पहुंचाने के लिए प्रधानमंत्री राहत कोष में दान करने की अपील करते हैं।
उत्तराखण्ड सरकार कई सालों से आपदा प्रबंध की बात करती रही हैं। पर जब वास्तव में बड़ी आपदा आई तो क्या पता चला? यही कि आपदा प्रबंधन की सारी बातें हवाई या फिर अपनी जेब भरने वाली थीं। वास्तव में आपदा से बचने के लिए कोई प्रबंधन नहीं किया गया था।
उलटे उत्तराखण्ड के पहाड़ों में पूंजीवादी लूट-पाट के तहत वह सब किया जा रहा है जिससे कोई भी भारी बारिश एक बड़ी आपदा में बदल जाये। यह इस कदर हुआ कि इसे सरकारी टी वी समाचार चैनल भी खुलेआम कह रहे हैं।
पर इस सबका खमियाजा किसे भुगतना पड़ रहा है? उत्तराखण्ड के गरीब बाशिन्दों को या इस बार के खास मामले में शहरी मध्यमवर्गीय पर्यटकों को भी। लूट-पाट करने वाला पूंजीपति वर्ग तो इससे बहुत दूर है। वह तो इन गर्मियों में विदेशों में अपनी छुट्टियां मना रहा होगा।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र गंभीर संकट की इस घड़ी में उत्तराखण्ड की आपदा प्रभावित जनता के साथ खड़ा है और इस आपदा के लिए वह पूरी तरह देश के पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार को जिम्मेदार मानता है। वह अपनी क्षमता भर प्रभावित जनता तक राहत पहुंचाने की कोशिश करेगा।
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