छत्तीसगढ़ के सुकमा में 25 मई को कांग्रेस के काफिले पर माओवादियों के हमले तथा उसमें महेन्द्र कर्मा और नन्द कुमार पटेल तथा अन्य कांग्रेसी नेताओं व कार्यकर्ताओं की मौत के बाद पूंजीवादी पार्टियों और सरकारी नुमाइन्दों में इस हमले की निन्दा करने की होड़ लग गई है। कांग्रेस ही नहीं विपक्षी भाजपा तथा अपने को कम्युनिस्ट कहने वाली माकपा तक सब इसकी निंदा कर रही हैं। सब अपने-अपने ढंग से इससे निपटने की बात कर रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा सारे मानवाधिकार समाप्त करने की मांग कर रही हैं, जिससे इनसे सख्ती से निपटा जा सके।
जाहिरा तौर पर माओवादियों के खिलाफ सारा पूंजीपति वर्ग तथा उसके नुमाइंदे एक हैं। चाहे वो सरकार में हों या विपक्ष में। सब इस विपदा से निपटना चाहते हैं ।
मगर माओवादियों ने यह हमला किया क्यों ? उनका निशाना कौन थे ? पूंजीपति वर्ग और उनकी सरकारों के पक्ष में सारा माहौल बनाने के बावजूद स्वयं पूंजीवादी प्रचारतंत्र यह खुलेआम स्वीकार कर रहा है कि हमले का निशाना मुख्यतः महेन्द्र कर्मा थे। और ये महेन्द्र कर्मा महोदय सलवा जुडुम के संगठनकर्ता थे यह भी पूंजीवादी प्रचारतंत्र बता रहा है।
इस सलवा जुडुम के बारे में पिछले साल सर्वाच्च न्यायलय ने यह आदेश दिया था कि सरकार द्वारा प्रायोजित इस गैर सरकारी हथियार बन्द गिरोह को भंग कर दिया जाये। पूंजीपति वर्ग के ही इस सर्वोच्च न्यायालय ने घोषित किया था कि छत्तीसगढ़ सरकार की यह कार्यवाही गैर- कानूनी और गलत है। यह अलग बात है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने इस हथियार बन्द गिरोह को वास्तव में भंग करने के बदले उसे दूसरे नामों से संचालित करना शुरू कर दिया।
विपक्ष में रहते हुए भी महेन्द्र कर्मा ने छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार के साथ मिल कर इसी सलवा जुडुम का संगठन किया था। तब इन्होंने तथा उनके भोंपू प्रचारतंत्र ने यही घोषित किया था कि यह माओवादियों की ज्यादतियों के खिलाफ पीड़ित आदिवासियों का स्वतः स्फूर्त संघर्ष है। वास्तविकता कुछ और थी। सलवा जुडुम के लिए आदिवासी युवकों को मासिक तनख्वाह और हथियार छत्तीसगढ़ सरकार के द्वारा उपलब्ध कराये गये थे। असली उद्देश्य था आदिवासी गावों को उजाड़ कर उन्हें शिविरों के बाड़े में कैद करना। इससे एक तो उनके गांव की जमीन टाटा इत्यादि कारपोरेट घरानों को मिल जानी थी, दूसरा इनका संपर्क माओवादियों से कट जाना था। गांवों को उजाड़ने की यह कार्यवाही सलवा जुडुम अभियान ने की।
जब इसका बड़े पैमाने पर आदिवासियों द्वारा प्रतिरोध किया गया तथा मओवादी भी उनके साथ संघर्ष में उतरे तो सलवा जुडुम वालों ने बहुत खून- खराबा किया। मामला इतना तूल पकड़ गया कि इस पर चर्चा करने के लिए छत्तीसगढ़ विधानसभा की एक विशेष बंद बैठक बुलाई गई। इस गोपनीय बैठक में कांग्रेस और सरकारी भाजपा दोनों ने इस सलवा जुडुम की महत्ता को समझा-समझाया तथा मिल कर चलने का फैसला किया ।
अंततः पूंजीपति वर्ग के सर्वोच्च न्यायालय को मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा और कहना पड़ा कि छत्तीसगढ़ की सरकार द्वारा की जा रही यह गैर- कानूनी हरकत नहीं चलेगी। उसे बन्द करना पड़ेगा ।
अब सवाल यह उठता है सलवा जुडुम द्वारा ढाई गई भायनक तबाही और मारकाट की सजा किसको मिलेगी ? यदि पूंजीवादी प्रचारतंत्र के अनुसार महेन्द्र कर्मा ही इसके संगठनकर्ता थे, और यही सच भी है, तो उन्हें सजा क्यों नहीं मिलनी चाहिए? सर्वोच्च न्यायालय ने तो सजा दी नहीं । फिर उन्हें कौन सजा देगा ? और जो माओवादी इसके विशेष शिकार हुए उनके द्वारा इस कार्यवाही को क्यों इतना गलत माना जाय?
पूंजीपति वर्ग द्वारा इस तरह की घटना की निंदा भले ही क्यों न की जाए पर इससे कौन इंकार करेगा कि प्रकाश झा जैसे मसाला फिल्म निर्माता को भी इस विषय पर बनाई माओवादी विरोधी फिल्म में सच्चाई को स्वीकार करना पड़ता है ? आज जो मध्य भारत में कारपोरेट लूट चल रही है और जिस तरह उसमें आदिवासियों का कत्लेआम किया जा रहा है वहां उनके सामने और क्या रास्ता बचता है? हिमांशु कुमार जैसे गांधीवादी तो वहां से खदेड़े जा चुके हैं।
इंकलाबी मजदूर केन्द्र का यह दृढ़ विश्वास है कि भारत में माओवादियों के तरीके से इंकलाब नहीं आयेगा और न ही वह इस तरह की हत्याओं का हामी है। यही नहीं, इस तरह की कार्यवाहियों से समग्र तौर पर इंकलाब का नुकसान ही होता है । लेकिन तब भी उसका यह कहना है कि स्वयं पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार ने आदिवासी इलाकों में इसके अलावा कोई रास्ता नहीं छोड़ा है। इसलिए इस मामले में यदि भर्त्सना किसी की बनती है तो वह माओवादियों की नहीं बल्कि भारत के पूंजीपति वर्ग और उसकी सरकार की बनती है। इनका नाश हो!
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