पाकिस्तान में हाल के चुनावों को लेकर पूंजीवादी हलकों में एक तरह से जश्न का माहौल है। पाकिस्तान ही नहीं साम्राज्यवादी देशों और भारत में भी यह बात बार-बार रेखांकित की जा रही है कि पाकिस्तान के इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि किसी चुनी हुई सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया और फिर चुनाव सफलतापूर्वक सम्पन्न हुये।
जहां तक औपचारिक पूंजीवादी जनतंत्र की बात है, यह सच है। लेकिन यदि इस जनतंत्र की हकीकत पर बात करें तो तस्वीर बेहद बदसूरत हो जाती है।
वर्तमान चुनाव चाहे जितने निष्पक्ष रहे हों, पर यह बात स्पष्ट है कि इनमें अमरिकी साम्राज्यवादियों और पाकिस्तानी सेना का अच्छा खासा दखल रहा। इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इन्साफ के बारे में तो कहा ही जा रहा है कि उसे पीछे से सेना का समर्थन हासिल है। भूतपूर्व सैनिक तानाशाह परवेज मुशर्रफ को जिस तरह चुनावों में भागीदारी से रोका गया वह इस जनतंत्र की मजबूती का सबूत नहीं बल्कि उसके भांति-भांति के तरीके से ‘मैनेज्ड’ होने का सबूत है। लेकिन जब अमेरिका के अधिपतियों द्वारा पूर्णतया नियंत्रित चुनावों को पूंजीवादी लोकतंत्र का आदर्श माना माना जाता हो तो पाकिस्तानी चुनाव इतने बुरे नहीं हैं।
पांच साल पहले पाकिस्तान में पूंजीवादी जनतंत्र की बहाली भ्रष्ट पूंजीवादी पार्टियों, परवेज मुशर्रफ की सैनिक तानाशाही, पाकिस्तानी सेना तथा अमेरिकी-ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के बीच सौदेबाजी से हुई थी। इस बहाली के बाद मुशर्रफ को बेआबरू होकर देश से भागना पड़ा ‘मिस्टर टेन परसेन्ट’ जरदारी के नेतृत्व में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी का भ्रष्ट शासन एक बार फिर कायम हो गया। इसके पूरे काल में न केवल भ्रष्टाचार फिर फला-फूला बल्कि सेना, न्यायपालिका तथा पी पी पी की सरकार के बीच खींच-तान चलती रही। इसी के फलस्वरूप बीच में ही गिलानी को प्रधानमंत्री का पद छोड़ना पड़ा। बाद के प्रधानमंत्री भी भ्रष्टाचार के घेरे में है।
बहाल हुआ पाकिस्तानी पूंजीवादी जनतंत्र ऐसा ही रहा। इस बीच पाकिस्तान की वास्तविक गति को अमेरिकी साम्राज्यवादी और तालिबानी तय करते रहे। इनकी करतूतों के चलते पाकिस्तान ‘एक असफल राज्य’ तक पहुंच गया। अभी भी अफगानिस्तान की विकट स्थिति के कारण हालात उसी दिशा में अग्रसर हैं। पाकिस्तानी पूंजीवादी राजनीति में अल्लाह, आर्मी और अमेरिका का दखल जस का तस है।
इस चुनाव के बाद भारतीय पूंजीपति वर्ग के नुमाइंदे पाकिस्तान के बारे में अपना नरम-गरम का सुर साधे हुए हैं। मनमोहन सिंह नवाज शरीफ को बेहतर रिश्तों के लिए आमंत्रित कर रहे हैं तो भाजपा वाले हमेशा पाला पाकिस्तान विरेाधी राग अलाप रहे हैं।
पाकिस्तान का मजदूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता आज बेहद मुश्किल में है। अल्लाह, आर्मी और अमेरिका के अलावा पूंजीवादी पार्टियां भी उसकी गर्दन पर सवार हैं। ये सारे मिलकर वास्तव में पूंजीपति वर्ग की लूट-पाट की व्यवस्था को कायम रखने की हरचन्द कोशिश कर रहे हैं। लेकिन तब बात यह भी है कि इनकी अपनी खींच-तान इस व्यवस्था को लगातार संकट में डाल रही है।
पाकिस्तान में औपचारिक पूंजीवादी जनतंत्र की बहाली सैनिक तानाशाही से बेहतर है लेकिन पाकिस्तानी मजदूर वर्ग को इस समूची व्यवस्था को ही नेस्तनाबूत करने की ओर बढ़ना चाहिए। उनकी वास्तविक मुक्ति इसी में है। भारत समेत दुनिया भर का मजदूर वर्ग इसमें उनके साथ दृढ़तापूर्वक खड़ा है।
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