Saturday, January 12, 2013

विवेकानन्द का हिन्दू साम्प्रदायिक अधिग्रहण

         इस साल विवेकानन्द की 150वीं जयंती मनाई जा रही है। इस अवसर का इस्तेमाल कर पोंगापंथी हिन्दू साम्प्रदायिक अपने पोंगापंथ और साम्प्रदायिकता को परंपरा से समृद्ध करना चाहते हैं। 
विवेकानन्द उन्नीसवीं सदी के उन तमाम सुधारकों में एक थे जो हिन्दू समाज को हिन्दू धर्म के मूलभूत आधार पर सुधार कर आगे ले जाना चाहते थे। वे हिन्दू धर्म से इस कदर बंधे हुए थे कि किसी भी हालत में उसे त्यागने को तैयार नहीं थे। यहां तक कि वे इसकी घृणित वर्ण और जाति व्यवस्था को भी पूर्णतया समाप्त करने को तैयार नहीं थे। वे औरतों की परम्परागत भूमिका के दायरे में ही सोचते थे। लेकिन इस सबके बावजूद वे देश के पिछड़ेपन, कूपमंडूकता, पोंगापंथ, संकीर्णता असमानता, भूखमरी इत्यादि से दुःखी थे। वे इनसे देश को मुक्त करना चाहते थे। वे ‘अपने रास्ते से’, भारतीय रास्ते से’ देश को आधुनिक बनाना चाहते थे। 

         इसके लिए विवेकानन्द ने वेदांत का रास्ता चुना, उपनिशदों में प्रस्तुत आत्मा और ब्रह्म के सिद्धांत का रास्ता। उत्तर-वैदिक काल में, बौद्ध-जैन धर्मों की पैदाइश के पहले जन्मे इस सिद्धांत की जमीन थी समाज का वर्गों में विभाजन तथा श्रम का इस तरह विभाजन कि शारीरिक और मानसिक श्रम एक दूसरे से जुदा हो गये। अजर-अमर आत्मा तथा ब्रह्म के इस सिद्धांत को उसकी पैदाइश की पृष्ठभूमि से अलग कर विवेकानन्द ने सोचा था कि वे हिन्दू धर्म का परिष्कार कर डालेंगे। वे मध्य कालीन सामंती हिन्दू धर्म से मुक्त कर हिन्दुओं को नयी जमीन पर स्थापित कर देंगे। इसी के जरिये उन्होंने यह सोचा कि हिन्दू समाज तथा भारतीय समाज पिछड़ेपन से मुक्ति पा जायेगा। गरीबों, शूद्रों, स्त्रियों के प्रति उनकी सहानुभूति भी थी। पर अपनी सीमाओं के कारण वे उनकी मुक्ति का यही रास्ता देखते थे। 
        लेकिन भारत की समस्याओं के समाधान का यह कोई रास्ता नहीं था। यह तो समस्याओं के दायरे में ही चक्कर  लगाना था। असली रास्ता तो वह था जो यूरोप का मजदूर वर्ग अपना रहा था और जिसके प्रति विवेकानन्द की सहानुभूति भी थी। पर अपनी सीमाओं के कारण वे उस रास्ते को अपना नहीं सके। 
        आज हिन्दू पोंगापंथी और साम्प्रदायिक विवेकानन्द की इन्हीं सीमाओं का इस्तेमाल करने में लगे हुए हैं। वे अपनी पोंगापंथी और साम्प्रदायिकता को विवेकानन्द के साथ जोड़कर गौरवान्वित करना चाहते हैं। विवेकानन्द के तर्कवादी, संकीर्णता विरोध तथा पोंगापंथ विरोध से इन पोंगापंथी और साम्प्रदायिकों की कोई संगति नहीं बैठती लेकिन तब भी उनके हर चन्द प्रयास जारी हैं। 
        भारतीय इतिहास और परम्परा के हिन्दू साम्प्रदायिकों द्वारा इस तरह के अधिग्रहण का भंडाफोड़ किया जाना चाहिये तथा विवेकानन्द जैसे ऐतिहासिक व्यक्तियों को उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सीमाओं में अवस्थित किया जाना चाहिए। सांस्कृतिक मोर्चे पर इस तरह के कार्य मजदूर वर्ग के महत्वपूर्ण कार्यभार हैं। 

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