Friday, January 11, 2013

अंध-राष्ट्रवादी उन्माद फैलाने का विरोध करो!

            भारत और पाकिस्तान के पूंजीवादी शासक एक बार फिर अंध-राष्ट्रवादी उन्माद फैलाने में लगे हुए हैं। अपनी आंतरिक समस्याओं से ध्यान हटाने के लिए वे गाहे-बगाहे ऐसा करते रहते हैं। खासकर पूंजीवादी पार्टियां और नेता इस संबंध में एक-दूसरे को मात देने की कोशिश करते हैं। 
पिछले सप्ताह भर में कश्मीर सीमा पर भारत और पाकिस्तान के सैनिकों के बीच झड़पों में दोनों ओर के दो-दो सैनिकों की मौत हो चुकी है। दोनों देशों की सरकारें इसके लिए एक-दूसरे पर आरोप लगा रही हैं। पाकिस्तान सरकार ने घटना की जाचं सीमा पर मौजूद संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यवेक्षक दल से कराने की की तो भारत सरकार ने उसे रद्द कर दिया। यहां मांग करने और उसे रद्द करने के पीछे दोनों सरकारों के अपने-अपने हित हैं। 
यह गौर-तलब है कि भारत और पाकिस्तान सीमा पर दोनों देशों के सैनिकों के बीच झड़पें आये दिन होती रहती हैं। कई बार तो वहां तैनात सैनिक इसे खेल के रूप में भी करते हैं। वाघा सीमा पर फाटक बंद करने का नाटकीय कार्यक्रम तो हर रोज दोहराया जाता है।
1947 से ही भारत-पाकिस्तान दोनों के पूंजीवादी शासक दोनों देशों के बीच रिश्तों को कुछ इस रूप में बनाये हुए हैं कि जरूरत पड़ने पर इसके द्वारा जनता में अंध-राष्ट्रवादी उन्माद फैलाया जा सके। इसके लिये समय-समय पर सीमित युद्ध भी लड़े गये हैं। ऐसे समयों में पूंजीवादी पार्टियों  और नेताओं को अपने को सबसे बड़ा राष्ट्रवादी दिखाने की होड़ लग जाती है। 1947, 1965, 1971 और 1999 में यह हो चुका है। इसके जरिये अपने देश के भीतर मौजूद गंभीर समस्याओं से मेहनतकश जनता का ध्यान हटाने में शासकों को मदद मिल जाती है। अंध-राष्ट्रवादी उन्माद जीवन की बुनियादी जरूरतों से ध्यान हटा देता है। 
अपने व्यवसायिक और अन्य हितों में कभी सहयोग और कभी प्रतिद्वंदिता  करने वाले दोनों देशों के पूंजीवादी शासक यह कभी नहीं चाहेंगे कि इस तरह का मारक हथियार उनके हाथ से निकल जाये। इसलिए वे न तो सीमा विवाद हल करते हैं और न ही दोनों देशों के बीच संबंध सामान्य होने देते हैं। 
पूंजीवादी शासकों से इतर दोनों देशों के मजदूरों-मेहनतकशों के हित एकदम भिन्न दिशा में हैं। इसीलिए इनके लिए जरूरी है कि वे शासकों की अंध-राष्ट्रवादी चालों का पर्दाफाश कर दोनों देशों के मजदूरों-मेहनतकशों की एकता और भाईचारा कायम करें तथा अपने संघर्षों का निशाना अपने-अपने पूंजीवादी शासकों को बनायें। ‘दुनिया के मजदूरो, एक हो!’ के मजदूर वर्ग के नारे का यही निहितार्थ है। 

No comments:

Post a Comment