दिल्ली में बलत्कार की शिकार लड़की की दुःखद मौत के बाद जिस तरह देश का शहरी मध्यम वर्ग क्षुब्द्ध और आक्रोशित है तथा जिस तरह शासक वर्ग उसकी मिजाज पुर्सी करने में लगा हुआ है, वह अच्छी बात है। इसके चलते आज देश में औरतों के प्रति हो रही यौन हिंसा के खिलाफ व्यापक पैमाने पर बात हो रही है। समाज में औरतों की स्थिति पर भी लगे हाथों बात हो रही है।
जैसा कि कहा गया है, शासक पूंजीपति वर्ग क्षुब्द्ध और आक्रोशित शहरी मध्यम वर्ग की मिजाज पुर्सी में लगा हुआ है। देश में प्रति वर्ष बलात्कार की शिकार होने वाली हजारों लड़कियों में कितनी लड़कियां सरकारी खर्च से ईलाज के लिए विदेश भेजी जाती हैं ? कितनी लड़कियों की मौत पर पूंजीवादी नेता श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ? कितनी मृत लड़कियों के शव के आगमन पर प्रधानमत्री वहां उपस्थित होते हैं ?
पूरे देश में हर साल बलात्कार की शिकार लड़कियों-औरतों की संख्या दसियों हजार है (सामने आये हुए मामले)। इनके प्रति आम तौर पर शासक पूंजीपति वर्ग और उसकी मशीनरी-पुलिस व न्यायालय का रुख क्या होता है ? क्या बहुचर्चित भंवरी देवी मामले में निचली अदालत ने अभियुक्तों को यह कहकर बरी नहीं कर दिया था कि गांव के ये सम्मानित सवर्ण ऐसा नहीं कर सकते ?
आज के भारतीय समाज की यह सामान्य हकीकत है कि मजदूर और गरीब औरतें अपने काम की जगह पर मालिकों, प्रबंधकों, ठेकेदारों द्वारा शिकार बनायी जाती हैं। यहां तक कि घरेलू कामगार औरतें मध्यम वर्गीय पुरुषों द्वारा शिकार बनायी जाती हैं। यह बेहद आम है। लेकिन इस पर समूचा पूंजीपति वर्ग और पूरा मध्यम वर्ग चुप रहता है क्योंमि वही इसमें अभियुक्त होता है। ऐसे मामले में कोई ‘फांसी-फांसी’ की गुहार नहीं लगाता। कश्मीर से लेकर मध्य भारत तक देश की पुलिस और सेना औरतों से बलात्कार करती है-भारत के पूंजीपति वर्ग की सत्ता की ताकत प्रदर्शित करने के लिए। इस पर भी मध्यम वर्गीय हलकों में कोई हल्ला नहीं मचता। मोदी के गुजरात में 2002 में हजारों औरतें हैवानियत की शिकार हुयीं। इसके लिए मोदी को सलाखों के पीछे डालने के बदले दिल्ली में उनकी ताजपोशी के लिए पूंजीपति वर्ग के एक हिस्से ने मुहिम चला रखी है तथा मध्यम वर्ग का एक हिस्सा उसे हाथों-हाथ ले रहा हैं
संक्षेप में यह कि औरतों के प्रति यौन हिंसा के मामले में देश के पूंजीपति वर्ग तथा मध्यम वर्ग की संवेदनाएं विभाजित हैं। देश के शोषित-उत्पीड़ित वर्गों और तबकों की महिलाएं-लड़कियां उनकी संवेदना की पात्र नहीं हैं अन्यथा तो बहुत पहले ही इंडिया गेट खून से सराबोर हो गया होता, केवल कुछ लोगों के सिर नहीं फूटते।
मध्यम वर्ग की क्षुब्द्धता और आक्रोश के इस माहौल में यदि मजदूर वर्ग किसी हद तक अन्यमनस्क है तो यह समझ में आने वाली बात है। आखिर मजदूर महिलओं के प्रति हो रही यौन हिंसा के खिलाफ मध्यम वर्ग कब सड़क पर उतरता है ? क्या ऐसे मामलों में लिप्त अपने सदस्यों के बचाने के लिए वह एड़ी -चोटी का जोर नहीं लगा देता ? फिल्म अभिनेता शाइनी आहूजा को कड़ी से कड़ी सजा देने की मांग के बदले उसके प्रति मध्यम वर्ग की सहानुभूति क्यों उमड़ती है ?
लेकिन तब भी जिस हद तक मध्यम वर्ग के आक्रोश के चलते आम तौर पर औरतों के प्रति यौन हिंसा के मामले में समाज में संवेदना जागृत हो रही है, वह सकारात्मक है। मजदूर वर्ग का कार्यभार यह बनता है कि इस जागृत हो रही संवेदना को सही नजरिये से लेते हुए समाज में महिला मुक्ति के व्यापक मुद्दे से इसे जोड़े । ‘फांसी-फांसी' के शोर-शराबे से अलग व समूची पूंजीवादी व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह खड़ा करें। उसे खुलेआम घोषित करना होगा कि औरतों के खिलाफ यौन हिंसा का मामला पूंजीवादी समाज से जुड़ा है और इस हिंसा की समाप्ति पूंजीवादी व्यवस्था के खात्मे की मांग करती है।
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