Wednesday, October 10, 2012

एक और धोखेबाज

       आज पूंजीपति वर्ग जितनी बेरहमी से छोटी-मझोली किसानी व्यवस्था को तबाह कर रहा है, जितनी तेजी से गरीब किसानों को उनकी जमीनों से उजाड़ रहा है, उससे इनकी ओर से भांति-भांति के तीखे प्रतिरोध खड़े होने स्वाभाविक हैं। ये संघर्ष आदिवासी इलाके से लेकर ग्रेटर नोएडा तक फैले हैं।
      ऐसे में इन संघर्षों को धूमिल करने के लिए पूंजीपति वर्ग की सरकार हर मुमकिन प्रयास कर रही है। आदिवासियों और गरीब किसानों के बीच बड़ी मात्रा में गैर सरकारी संगठनों का सघन जाल इसी का एक हिस्सा  है।
     इन्हीं गैर सरकारी संगठनों के एक मंच ‘जन एकता परिषद’ ने जमीन वितरण की मांग को लेकर पांच साल पहले एक मार्च ग्वालियर से दिल्ली तक निकाला था। तब केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि तपाक से उनसे मिले थे और और एक समिति का गठन किया गया था।

     अब उस लालीपाप के पांच साल बाद एक बार फिर उसी ‘जन एकता परिषद’ द्वारा एक अन्य मार्च का आयोजन किया गया। खबर है कि सरकार ने इनके प्रतिनिधियों से बात कर एक समझौता कर लिया है और मार्च के आगरा पहुंचते ही इस समझौते की घोषणा कर दी जायेगी।
      देश के भूमिहीनों और गरीब किसानों को, खासकर आदिवासियों को ठगने का यह घृणित प्रयास बेहद योजनादद्ध है और इसमें सरकार से लेकर पूंजीवादी प्रचारतंत्र तक सब सुनियोजित ढंग से शामिल हैं। पूंजीपतियों की जिस सरकार ने आजादी के तुरंत बाद जमीन को पुनर्वितरण के अपने वादे से गद्दारी कर दी थी उससे अब इस लुटेरे पूंजीवाद के जमाने में उम्मीद लगायी जा रही है कि वह गरीब भूमिहीनों को जमीन देगी। यह वक्त सरकार द्वारा पूंजीपतियों की खातिर जमीन छीनने का है, जमीन भूमिहीनों को देने का नहीं।
      जन एकता परिषद में शामिल गैर सरकारी संगठनों के कारकून अपने आकाओं की सेवा कर रहे हैं। मजदूर वर्ग को भूमिहीन, गरीब किसानों के बीच इनका भंडाफोड़ कर इन्हें उनके चंगुल से बाहर खीच लाना होगा और उन्हें समूची पूंजीवादी व्यवस्था के विरूद्ध गोलबंद करना होगा।

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